यह संसार एक मुसाफिरखाना है । यहां हम सब एक मुसाफिर हैं । इसलिए सबके साथ हिलमिल कर चलना चाहिए । एक-दूसरे का सम्बन्ध थोड़े दिनों का ही है । दूसरों को सुख देना पुण्य है और दु:ख देना पाप है । यदि दु:खी रहना है तो दूसरों को दु:ख दो और तुम्हें सुखी रहना है तो दूसरों को सुख दो । इसलिए सभी प्राणियों में भगवान को देखकर उनकी सेवा करनी चाहिए । भगवान श्रीकृष्ण का कथन है—‘मैं सबका आत्मा, परमेश्वर सभी जीवों में स्थित हूँ । जो मेरी उपेक्षा करके केवल मूर्ति पूजन में ही लगा रहता है, वह तो मानो भस्म में ही आहुति डालता है ।’
‘सीय राममय सब जग जानी ।
करौं प्रनाम जोरि जुग पानी ।। (राचमा)
संत एकनाथ के घर श्राद्ध में पितरों का साक्षात् आगमन
महाराष्ट्र में पैठण नाम स्थान पर संत एकनाथ के पिता का श्राद्ध था । घर में श्राद्ध का भोजन बन रहा था जिसकी खुशबू दूर-दूर कर फैल रही थी । आमन्त्रित ब्राह्मणों की प्रतीक्षा में एकनाथ द्वार पर खड़े थे ।
उसी समय एक महार (अन्त्यज जाति के) परिवार उधर से जा रहा था । उनकी नाक में भी पकवानों की सुगन्ध पहुंची । उस परिवार के एक बच्चे ने अपनी मां से कहा—‘पकवानों की कैसी मीठी महक आ रही है ।’ मां ने उदास होकर कहा—‘बेटा ! हमारे नसीब में ये सब चीजें कहां, हमारे लिए तो इनकी गन्ध भी दुर्लभ है ।’
श्राद्ध में निमन्त्रित ब्राह्मणों की प्रतीक्षा में द्वार पर खड़े संत एकनाथ का बच्चे की बात सुनकर हृदय द्रवित हो गया ।
उन्होंने सोचा—‘सब शरीर भगवान के ही मन्दिर हैं । सभी स्त्री पुरुष फिर वे किसी जाति, धर्म, वर्ण और कुल के क्यों न हों, सब उसी ईश्वर की ज्योति से जगमगा रहे हैं । इन महारों को भोजन कराने से भगवान ही भोग लगायेंगे ।’
उन्होंने सब महारों को बुलाया और अपनी पत्नी गिरिजाबाई को सब भोजन महारों को देने के लिए कहा ।
निज-हित पर तें जैसो चाहै, करै सबनि सों सो व्यवहार ।
देखैं सदा सबनि में हरि कौं, यहै संत को धर्माचार ।। (भाई हनुमानप्रसादजी पोद्दार)
गिरिजाबाई का भाव और भी ऊंचा था । उसने कहा—‘भगवान सर्वत्र हैं और सब प्राणियों में हैं, सब भूतों के भीतर रहने वाला आत्मा एक है । आज भगवान ने ही इनके द्वारा यह अन्न चाहा है, भोजन तो बहुत है, इनके सभी स्त्री-पुरुष व बच्चों को बुलाकर अच्छी तरह परोस कर जिमाया जाए । आज इन्हीं को तृप्त करके भगवान की सेवा करनी चाहिए ।’
जिधर देखता हूँ उधर तू ही तू है ।
नदियों में तू है, पहाड़ों में तू है ।।
छोटों में तू है, बड़ों में भी तू है ।
पंडित में तू है, औ अन्त्यज में भी तू है ।।
ऋग्वेद में भी कहा गया है–’परमेश्वर के पुत्रों में न कोई बड़ा है और न छोटा और न ही मध्यम । इस प्रकार की भावना रखने वाले मनुष्य ही दिव्य हैं, उनका स्वागत है ।’
सब महारों को बुलाकर घर के बाहर पत्तल परोस कर खूब जिमाया गया । जिन पकवानों की कभी गन्ध भी नसीब नहीं होती थी, उनको भरपेट खाकर महारों को कितना आनन्द हुआ, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता था । गिरिजाबाई ने पान-सुपारी देकर उनको विदा किया । महारों के अंग-प्रत्यंग एकनाथजी और गिरिजाबाई को मूक आशीर्वाद दे रहे थे । लेकिन इससे भी ज्यादा प्रसन्न संत एकनाथ और उनकी पत्नी गिरिजाबाई थी ।
इसके बाद गिरिजाबाई ने आंगन धोकर, बर्तन साफ किए, शुद्ध जल से फिर से श्राद्ध की रसोई बनायी । लेकिन श्राद्ध में निमन्त्रित ब्राह्मणों ने भोजन करने से इंकार करते हुए कहा—‘तुम्हारे जैसे पतित के यहां हम भोजन नहीं करेंगे ।’
एकनाथजी ने ब्राह्मणों से विनती की—‘पूजनीय ब्राह्मणों ! पहली रसोई बनी तो आप लोगों के लिए ही थी किन्तु उसकी गंध महारों के नाक में पहुंच गयी, तब वह उच्छिष्ट अन्न आपको कैसे परोसा जाता, इसलिए वह भोजन उन्हें खिला दिया गया । आप लोगों के लिए फिर से नये सिरे से भोजन तैयार किया गया है ।’ परन्तु ब्राह्मणों ने एकनाथजी की एक बात न मानी, इससे वे बहुत चिन्तित हो गये ।
सच्चे संत स्वभाव के मनुष्यों की भगवान सदैव सहायता करते हैं
एकनाथजी के यहां भगवान श्रीकृष्ण बारह वर्षों से पानी भरने वाले सेवक के छद्म रूप में रहते थे जिनका नाम खण्डिया था ।
खण्डिया ने कहा—‘नाथजी ! आपने रसोई पितरों के लिए बनायी है न ! फिर चिन्ता क्यों ? पत्तलें परोसकर पितरों को बुलाइये । वे स्वयं आकर भोजन करेंगे ।’
एकनाथजी ने खण्डिया के कहे अनुसार किया । पत्तलें लगा दी गयीं और ‘आगतम्’ कहते ही पिता, पितामह और प्रपितामह अपने-अपने आसनों पर आकर बैठ गये । एकनाथजी ने बड़े भक्तिभाव से उनका पूजन कर जिमाया । तीनों पितर तृप्त होकर आशीर्वाद देकर अन्तर्धान हो गये ।
खण्डिया ने साक्षात् पितरों को बुलाकर श्राद्ध का भोजन खिला दिया, इस बात से ब्राह्मण और चिढ़ गये । उन्होंने एकनाथजी को जाति से बहिष्कृत करके प्रायश्चित करने को कहा । एकनाथजी ने कहा—‘मेरे माई-बाप श्रीकृष्ण बैठे हुए हैं, फिर मैं किस बात का प्रायश्चित करुं ?’
ब्राह्मणों के बहुत कहने पर एकनाथजी प्रायश्चित करने को तैयार हो गये । शरीर पर भस्म, गोमय मलकर और पंचगव्य का पान करके वे नदी में स्नान के लिए उतरे । ब्राह्मण जोर-जोर से मन्त्र पाठ कर रहे थे । उसी समय नासिक त्र्यम्बकेश्वर से एक कुष्ठी ब्राह्मण आया और पूछने लगा—‘यहां एकनाथ कौन और कहां हैं ?’
ब्राह्मणों ने पूछा—‘तुम्हें उनसे क्या काम हैं ? वे तो नदी में प्रायश्चित स्नान कर रहे हैं ।’
कुष्ठी व्यक्ति ने कहा—‘मैंने त्र्यम्बकेश्वर में कई वर्षों तक कठिन अनुष्ठान किया । भगवान शंकर ने स्वप्न में आदेश दिया है कि पैठण में विष्णुभक्त एकनाथ ने श्राद्ध का अन्न अन्त्यज लोगों को खिलाकर भूत दया का अद्भुत पुण्य कमाया है । यदि वह तुम्हें उसमें से कुछ पुण्य दे दें तो मेरा कुष्ठ ठीक हो जाएगा ।’
एकनाथजी को जब यह बात पता लगी तो उन्होंने कहा—‘भगवान शंकर का आदेश है तो लो, मैं उसका कुछ पुण्य तुम्हें दे देता हूँ ।’
एकनाथजी को प्रायश्चित कराने वाले ब्राह्मण एकटक देखते ही रह गये । एकनाथजी ने हाथ में जल लेकर अपने पुण्य का अंश दान करने का सकल्प किया और जल कुष्ठी पर छिड़क दिया ।देखते-ही-देखते उसकी काया सोने-सी चमक उठी, कुष्ठ का नामोनिशान भी न रहा । प्रायश्चित कराने वाले ब्राह्मणों ने भी अपने किये की एकनाथजी से क्षमा मांगी ।
नि:स्वार्थ सेवा करने का कोई फल नहीं है बल्कि मनुष्य स्वयं फलदाता हो जाता है । सच्चे वैष्णव के आगे तो देवता भी हाथ जोड़कर खड़े रहते हैं । आवाहन करने पर पितर भी स्थूल शरीर में प्रकट होकर भोजन ग्रहण कर लेते हैं ।
वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीड पराई जाणे रे ।
परदु:खे उपकार करे तोये, मन अभिमान न आणे रे ।। (नरसी मेहता)