सबसे ऊँची प्रेम सगाई।
दुर्योधन की मेवा त्यागी साग विदुर घर खाई॥
जूठे फल सबरी के खाये बहुबिधि स्वाद बताई।
प्रेम के बस नृप सेवा कीनी आप बने हरि नाई॥
राजसुयज्ञ युधिष्ठिर कीनो तामैं जूठ उठाई।
प्रेम के बस अर्जुन रथ हाँक्यो भूल गए ठकुराई॥
ऐसी प्रीत बढ़ी बृन्दाबन गोपिन नाच नचाई।
सूर क्रूर इस लायक नाहीं कहँ लगि करौं बड़ाई॥ (सूरदासजी)
भगवान में भी प्रेम की भूख रहती है। उपनिषद् में आता है कि भगवान का अकेले में मन नहीं लगा तो उन्होंने संकल्प किया कि ‘मैं एक ही अनेक रूपों में हो जाऊँ।’ इस संकल्प से सृष्टि की रचना हुई–‘एकाकी न रमते। सोऽकामयत। बहु स्यां प्रजायेयेति।’
स्पष्ट है कि भगवान ने मनुष्य को अपने लिए अर्थात् प्रेम के लिए ही बनाया है। मनुष्य तो संसार से प्रेम करके भगवान से विमुख हो जाता है, पर भगवान कभी मनुष्य से विमुख नहीं होते। श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड (८६।४) में भगवान कहते हैं–‘सब मम प्रिय सब मम उपजाए।’
भक्त का प्रेम ईश्वर के लिए महापाश है जिसमें बंधकर भगवान भक्त के पीछे-पीछे घूमते हैं। इस भगवत्प्रेम में न ऊंच है न नीच, न छोटा है न बड़ा। न मन्दिर है न जंगल। न धूप है न चैन। है तो बस प्रेम की पीड़ा; इसे तो बस भोगने में ही सुख है। यह प्रेम भक्त और भगवान दोनों को समान रूप से तड़पाता है।
जब भगवान श्रीकृष्ण ने सुदामा के भाग्ययोग में ‘श्रीक्षय’ के स्थान पर ‘यक्षश्री’ लिख दिया
श्रीकृष्ण और सुदामा की मैत्री वास्तव में अतुलनीय है। श्रीकृष्ण सुदामा के ही तुल्य होते, तो कुछ महत्त्व नहीं था; पर वे तो राजराजेश्वर द्वारिकानाथ थे। उन्होंने निर्धन, दीन सुदामा के चरण धोए, उसका चरणामृत लिया, उसे महलों में छिड़का, दीन को गले से लगाया। यह है महत्ता उनके प्रेम और स्नेह की।
ऐसी प्रीति दीनबंधु! दीनन सौं माने को?
ऐसे बेहाल बिवाइन सों पग, कंटक-जाल लगे पुनि जोये।
हाय! महादुख पायो सखा तुम, आये इतै न किते दिन खोये।
देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिके करुनानिधि रोये।
पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सौं पग धोये।। (नरोत्तमदासजी)
भगवान ने सुदामा के द्वारा लाए हुए चिउड़ों का बड़ी रुचि के साथ भोग लगाया और सुदामा से कहा–’आपके द्वारा लाया हुआ चिउड़ों का यह उपहार मुझको अत्यन्त प्रसन्नता देने वाला है। ये चिउड़े मुझको और मेरे साथ ही समस्त विश्व को तृप्त कर देंगे।’
सुदामा ने श्रीकृष्ण से प्रेम किया तो श्रीकृष्ण ने उन्हें द्वारिकानाथ बना दिया। उन्हें अपने सिंहासन पर बिठाया और स्वयं नीचे ही नहीं वरन् सुदामा के चरणों में बैठे। श्रीकृष्ण ने एक मुट्ठी चावल खाकर सुदामा को द्वारिका के तुल्य सम्पत्ति प्रदान की।
सुदामाजी द्वारिका से लौटकर अपने गांव आए तो देखा कि यहां तो किसी राजा ने सुन्दर नगर बसा दिया है, जिसकी रचना और उसका ऐश्वर्य द्वारिका के समान है। लेकिन इतने अपार वैभव को प्राप्त कर भी सुदामाजी उसके मोह और भोगों में आसक्त नहीं हुए।
सुदामा की इतनी सम्पत्ति देखकर यमराजजी से रहा न गया। वे परमात्मा को कायदे-कानून बताने के लिए सब बही-चौपड़े लेकर द्वारिका पहुंचे और भगवान के चरणों में वंदन करके बोले–’महाराज! अब शायद मेरी जरुरत नहीं है। प्रत्येक को उसके कर्मानुसार फल प्रदान करने का नियम तो आपने ही तोड़ दिया है। अब कायदा-कानून कुछ रहा नहीं।’
भगवान ने पूछा–’क्यों, क्या हुआ यमराजजी!’ यमराजजी ने कहा–’भगवन्! आप ही जब नियम भंग करते हैं तो फिर जगत का क्या होगा? आपको कौन रोक सकता है? आप परमेश्वर हैं, किन्तु किसी साधारण जीव को यदि इतनी सम्पत्ति प्रदान करेंगे तो कर्म की मर्यादा छिन्न-भिन्न हो जाएगी।’
श्रीकृष्ण ने पूछा–’ क्या आप सुदामा की बात कर रहे हैं?’ यमराज ने कहा–’हां महाराज! इस सुदामा ने ऐसा कोई बड़ा पुण्य नहीं किया है। इस ब्राह्मण के भाग्य में तो दरिद्रता का ही योग लिखा हुआ है और आपने इसको इतना अधिक दे दिया! इतनी सम्पत्ति तो इन्द्र के दरबार में भी नहीं है। आप उदार हैं, किन्तु इससे कर्म की मर्यादा लुप्त होती है।’ सुदामा के ऐश्वर्य को देखकर यमराज को भी ईर्ष्या हुई, इसलिए भगवान को कर्म की मर्यादा समझाने लगे।
श्रीकृष्ण ने कहा–’यमराजजी! आप अपना हिसाब-किताब ठीक नहीं रखते। सुदामा के पुण्य का क्या बखान करुं! सुदामा ने मुझे एक मुट्ठी चावल खिलाए। जो मुझे खिलाता है उसे सम्पूर्ण विश्व को भोजन कराने का फल मिलता है।’
भगवान ने यमराज के बही-चौपड़े खोलकर देखे और जहां सुदामा के भाग्ययोग में ‘श्रीक्षय’ (सम्पत्ति का नाश) लिखा हुआ था, श्रीकृष्ण ने वहां उन अक्षरों को उलटकर ‘यक्षश्री’ (कुबेर की सम्पत्ति) लिख दिया। इससे स्पष्ट है कि भगवान के दरबार में ‘सबसे ऊंची प्रेम सगाई’ है। जो भगवान श्रीकृष्ण को खुश करते हैं, उनसे सारा संसार खुश रहता है।
जो श्रीकृष्ण को भोजन कराते हैं, वे पूरे विश्व को भोजन कराते हैं
भगवान ने द्रौपदी की बटलोई से बचे हुए साग के पत्ते को खाकर दुर्वासा एवं उनके शिष्यों सहित समस्त विश्व को तृप्त कर दिया था। भगवान ने गजेन्द्र द्वारा अर्पण किए गए पुष्प को स्वयं वहां पहुंचकर ग्रहण किया।
स्वयं भगवान मूर्तिमान होकर जनाबाई का हाथ बंटाते थे
भगवान विट्ठलनाथ के दरबार में जनाबाई का क्या स्थान है, यह इससे सिद्ध होता है कि नदी से पानी लाते समय, चक्की से आटा पीसते समय और घर की झाड़ू लगाते समय भगवान स्वयं जनाबाई का हाथ बंटाते थे। जनाबाई भगवान विट्ठलनाथ की अनन्य भक्त थी। रात को सब लोग जब अपने-अपने घर चले जाते, तब जनाबाई विट्ठलनाथ के मन्दिर पहुंचती और एकान्त में भगवान का ध्यान-भजन करती, उनसे बातें करती, हंसती-गाती और नृत्य करती। एक बार भगवान का एक आभूषण चोरी हो गया। मन्दिर के पुजारियों को जनाबाई पर संदेह हुआ। लोग उसे सूली पर चढ़ाने के लिए ले गए। जनाबाई विकल होकर विट्ठल-विट्ठल पुकारने लगी। देखते-ही-देखते सूली पिघल कर पानी हो गयी। यह है भगवान का प्रेमानुबन्ध।
जब भगवान श्रीकृष्ण ने लिखा ‘गीतगोविन्द’ का अन्तिम चरण
जयदेवजी और उनकी पत्नी पद्मावती श्रीकृष्ण प्रेम में डूबे रहते थे। इसी प्रेमरस में डूबकर उन्होंने ‘गीतगोविन्द’ की रचना की। एक दिन जयदेवजी ‘गीतगोविन्द’ की एक कविता लिख रहे थे, पर कविता का अन्तिम चरण (पंक्ति) पूरा नहीं हो पा रहा था। पद्मावती ने कहा–’अब स्नान का समय हो गया है, लिखना बन्द करके आप स्नान कर आएं।’ जयदेवजी ने कहा–’पद्मा! मैंने एक गीत लिखा है, पर इसका अन्तिम चरण ठीक नहीं बैठता। मैं क्या करुँ।’ पत्नी के स्नान के लिए जाने पर जोर देने पर वे गंगास्नान को चले गए। कुछ ही मिनटों बाद जयदेव का वेष धारणकर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण आए और बोले–’पद्मा! जरा ‘गीतगोविन्द’ देना।’
पद्मा ने आश्चर्यचकित होकर कहा–’आप स्नान करने गए थे न? बीच से ही कैसे लौट आए?’ महामायावी किन्तु भक्तवत्सल श्रीकृष्ण ने कहा–’रास्ते में ही अन्तिम चरण याद आ गया, इसी से लौट आया।’ पद्मावती ने कलम और दवात ला दिए। जयदेव-वेषधारी भगवान ने ‘देहि मे पदपल्लवमुदारम्’ लिखकर कविता पूरी कर दी। फिर पद्मावती से जल मंगाकर स्नान किया और पद्मावती के हाथ का भोजन ग्रहण कर पलंग पर विश्राम करने लगे।
पद्मावती भगवान की पत्तल में बचा प्रसाद पाने लगी। इतने में ही गंगास्नान करके जयदेवजी लौट आए। पति को इस प्रकार आते देखकर पद्मावती चौंक गयी। जयदेव भी पत्नी को भोजन करते देखकर आश्चर्यचकित हो गए। जयदेव ने पूछा–’पद्मा, आज तुम मुझे भोजन कराए बिना कैसे भोजन कर रही हो?’
पद्मावती ने कहा–’यह आप क्या कह रहे हैं? आप कविता का शेष चरण लिखने के लिए रास्ते से ही लौट आए थे। कविता पूरी करने के बाद अभी तो स्नान-पूजन के बाद भोजन करके आप लेटे थे।’ जयदेवजी ने जाकर देखा, पलंग पर कोई नहीं सो रहा था। वे समझ गए आज अवश्य ही भक्तवत्सल भगवान की कृपा हुई है। फिर उन्होंने भगवान द्वारा लिखा कविता का शेष चरण देखा तो मन-ही-मन कहा–’यही तो मेरे मन में था पर मैं संकोचवश लिख नहीं रहा था।’
इतना कहकर जयदेवजी पद्मा की पत्तल से श्रीहरि का प्रसाद उठाकर खाने लगे। पद्मावती ने उन्हें अपनी जूठन खाने से रोका भी पर प्रभु प्रसाद के लोभी जयदेव ने उसकी एक न सुनी। इस घटना के बाद जयदेवजी उसी गीत को गाते हुए मस्त घूमा करते और उस गीत को सुनने के लिए नंदनन्दन उनके पीछे-पीछे छिपकर चलते रहते थे।
भक्त के ध्यान में भगवान
तीनों लोकों के स्वामी परब्रह्म श्रीकृष्ण अपने भक्तों को कितना प्यार और आदर करते हैं, यह सोचा भी नहीं जा सकता। कभी-कभी भक्त समझता है कि मैं ही भगवान का ध्यान करता हूँ, परन्तु सत्य तो यह है कि भगवान भी भक्त का ध्यान करते हैं। एक बार राजा युधिष्ठिर ने देखा कि भगवान श्रीकृष्ण ध्यान में बैठे हुए हैं। भगवान जब ध्यान से उठे तो युधिष्ठिर ने उनसे पूछा–’भगवन्! सारा संसार तो आपका ध्यान करता है, परन्तु आप किसका ध्यान कर रहे थे? भगवान ने उत्तर दिया–’मैं शरशय्या पर पड़े हुए अपने भक्त भीष्म का ध्यान कर रहा था कि वे कैसे हैं?’ सत्य है भगवान सच्चे प्रेमीभक्तों की पीड़ा में सदैव साथ रहते हैं।
सखाओं के साथ खेल में घोड़ा बने भगवान श्रीकृष्ण
प्रेम की महिमा अद्भुत है। परब्रह्म श्रीकृष्ण सख्य प्रेम में इतने छोटे हो जाते हैं कि बच्चों में आकर बच्चे बनकर खेलते हैं। एक बार खेल हो रहा था; खेल की शर्त थी कि जो हारे वह घोड़ा बने। श्रीकृष्ण जीती हुई बाजी भी मित्र श्रीदामा को खुश करने के लिए हार जाते हैं–’हरि हारे जीते श्रीदामा।’
भगवान हारे और घोड़ा बने। श्रीदामा आदि सखा भगवान को घोड़ा बनाकर उनकी पीठ पर चढ़कर अपना दाँव लेने से नहीं चूकते; इससे गहरी मित्रता और कहां देखने को मिल सकती है? भगवान के साथ खेलना, भगवान से रूठना, फिर हृदय से लगाना, भगवान की बराबरी करना–यह तभी संभव है जब अपने को मिटाकर उनके सुख में सुखी रहने की लगन लगी रहे। उनके ईश्वरत्व को भूल जाएं, उन्हें अपना मित्र और हितैषी समझें और स्वार्थ की तो गंधमात्र भी न हो। यदि ऐसा न होता तो फटे कपड़ों की चिन्दियों से बनी गेंद को लाने के लिए श्रीकृष्ण कालियदह में क्यों कूद जाते। परम मित्र मनसुखा की हठ थी कि मुझे वही गेंद चाहिए। अब वह तो जल में कूद कर ही वापिस लाई जा सकती है, तो मित्र की हठ को पूरा करने के लिए श्रीकृष्ण कालियदह में कूद गए। श्रीकृष्ण ने अपने सम्पूर्ण लीलाकाल में अपने मित्रों के दु:ख को पहिचाना।
जिन परमात्मा का वेदों ने ‘नेति नेति’ कहकर वर्णन किया है और जो मुनियों के लिए भी अगम्य हैं, उन्हें मनुष्य अपने पुरुषार्थ, प्रभाव या वैभव से नहीं पा सकता। भगवान को केवल प्रेम के बल पर ही प्राप्त किया जा सकता है, उनके वियोग में विकल होने की आवश्यकता है, उन्हें रीझते देर नहीं लगती। नि:स्वार्थ प्रेम के बन्धन में भगवान स्वत: बंध जाते हैं।
मत मरम किसी से कहना, जो आय पड़े सो सहना।
पर प्रेम-पन्थ मत तजना, प्रभु प्रेमरूप साकार हैं।।
प्रेम के कारण नामदेव-का, छप्पर प्रभु ने आ छाया।
नरसी मेहता की कन्या का, शुभ विवाह भी करवाया।। (पं. जानकीरामाचार्यजी)
स्वयं कबीरदासजी ने अपने बारे में लिखा है–’आगे पीछे हरि फिरे कहत कबीर कबीर।’ इसलिए हमें चारों ओर बिखरी हुई अपनी सांसारिक वृत्तियों को समेटकर प्रेममय भगवान में लगा देनी चाहिए।
माई री ! अचरज की यह बात।
निर्गुण ब्रह्म सगुन ह्वै आयौ, बृज में ताहि नचात।।
पूरन ब्रह्म अखिल भुवनेश्वर, गति जाकी अज्ञात।
ते बृज गोप-ग्वाल संग खेलत, वन-वन धेनु चरात।।
जाकूँ बेद नेति कहि गावैं, भेद न जान्यौ जात।
सो बृज गोप-बन्धुन्ह गृह नित ही, चोरी कर दधि खात।।
शिव-ब्रह्मादिक, देव, मुनि, नारद, जाकौ ध्यान लगात।
ताकूँ बांधि जसोदा मैया, लै कर छरी डरात।।
जाकी भृकुटि-बिलास सृष्टि-लय, होवै तिहुँ पुर त्रास।
‘कृष्णगुपाल’ ग्वाल डरपावत, हाऊ तें भय खात।। (पं. श्रीकृष्णगोपालाचार्य)