shri krishna, krishna

परमात्मा का दूसरा नाम प्रेम है और वे प्रेम के विवश हैं, प्रेमाधीन हैं । वे प्रेम के अतिरिक्त अन्य किसी साधनों से नहीं  रीझते हैं । प्रेम ईश्वर के लिए महापाश है । प्रेमवश वह कुछ भी कर सकते हैं, कहीं भी सहज उपलब्ध हो सकते हैं ।

निर्विकार प्रेम और भक्ति के मूर्तिमान रूप विदुर-विदुरानी

‘श्रीकृष्ण कल हस्तिनापुर आ रहे हैं’—यह बात विदुरजी को ज्ञात हुई तो उनके आनन्द का पारावार न रहा । कल उनके आराध्य पधार रहे हैं, जी-भर कर उनका दर्शन करेंगे—यह सोच-सोच कर उनका रोम-रोम पुलकित और रोमांचित हो रहा है । यह भक्त के जीवन सर्वोत्तम क्षण था । 

उनकी पत्नी सुलभाजी ने जब उनसे इतना खुश होने का कारण पूछा तो उन्होंने कहा—‘कल द्वारकानाथ पधार रहे हैं । तुम्हारी तपस्या का फल कल मिलने जा रहा है ।’

सुलभाजी ने पूछा—‘भगवान के साथ आपका कोई परिचय है ?’

विदुरजी पुलकित होकर कहते हैं—‘हां देवि ! मैं जब उन्हें वंदन करता हूँ तो वे मुझे ‘काका’ कहकर सम्बोधित करते हैं । कितना अपनत्व से भरा और सुखकारक होता है उनसे काका सुनना ।’

यह सुनकर सुलभाजी कहती है—‘तब तो आप उन्हें अपने यहां आने का निमंत्रण तो देंगे न ?’

विदुरजी कहते हैं—‘मैं आमंत्रण दूं तो वे मना नहीं करेंगे, लेकिन इस झोंपड़ी में हम उन्हें बिठायेंगे कहां ? भगवान हमारे घर पधारेंगे तो हमें तो आनन्द होगा, लेकिन उन्हें कष्ट होगा । वे छप्पन-भोग अरोगते हैं । अपने पास तो भाजी के सिवाय है भी क्या, जो उन्हें अर्पण कर सकें ? धृतराष्ट्र के यहां उनका स्वागत-सत्कार अच्छा होगा । अपने सुख के लिए उन्हें दु:ख देना सही नहीं है ।’

मोहन केवल प्रेम पियारा चाहे कर लो कोटि उपाय

सुलभाजी ने कहा—‘मेरे घर में कुछ हो न हो पर मेरे हृदय में प्रभु के लिए अथाह प्रेम है । यही प्रेम में परमात्मा को अर्पित करुंगी । मैं गरीब हूँ इसमें मेरा क्या दोष है ? भगवान तो प्रेम के भूखे हैं । मैं उन्हें मन से आमन्त्रित कर रही हूँ । देखें वे कैसे नहीं आते हैं ?’ 

ऐसे भक्त जिनमें भगवान को पाने के लिए लगातार विरह-अग्नि जलती रहती है, खाना पीना तक नहीं सुहाता, नींद उड़ जाती है और दिन-रात प्रेमाश्रु बहते रहते हैं, उन विरहाकुल निष्कपट भक्तों के लिए भगवान भला कैसे निष्ठुर हो सकते हैं ? वे तो ऐसे भक्तों के पास में ही छिपे-छिपे रहते हैं ।

दूसरे दिन प्रात:काल नित्य-नियमानुसार विदुर-विदुरानी अपनी कुटिया में बालकृष्ण की सेवा करते समय उनसे घर आने की प्रार्थना करते हैं । उनकी प्रार्थना फलीभूत होती है । धृतराष्ट्र ने श्रीकृष्ण से आग्रह किया—‘छप्पन भोग तैयार हैं ।’

श्रीकृष्ण ने मना कर दिया । द्रोणाचार्यजी ने कहा तो उनसे कह दिया—‘हम तो गंगातट पर एक भक्त के यहां जिमेंगे ।’

फल मेवा मिष्टान्न सब, दुर्योधन का त्याग ।
कृष्णचन्द्र श्रीविदुर घर, चले चाखने साग ।।

इधर झोंपड़ी बंद कर र कीर्तन में तल्लीन हैं । उन्हें पता ही नहीं है कि जिनका वे कीर्तन कर रहे हैं, वे द्वारकानाथ बाहर खड़े होकर द्वार खुलने की प्रतीक्षा कर रहे हैं । अंत में भक्त से मिलने को व्यग्र होकर भगवान ने द्वार खटखटाया—

जा पहुंचे तत्काल ही, विदुर-भक्त के द्वार ।
देख कपाटों को लगे, करने लगे प्रेम-पुकार ।।
‘खोलो विदुरजी ! विदुरजी ! पट’ कृष्ण यों रटने लगे ।
भव-बन्ध मानो विदुर के तत्काल ही कटने लगे ।।
भगवान ‘खोलो’ कह रहे, वह बँध गए किस डोर से ।
सत्प्रेम की जंजीर से, जकड़े हुए चहुँ ओर से ।।

आवाज सुनकर विदुरजी ने द्वार खोला तो सामने चतुर्भुज नारायण के साक्षात् दर्शन हो गए । सामने भगवान को देख हर्ष की अधिकता से पति-पत्नी भाव-शून्य हो गए । एकदम मूर्तिवत् ! जड़ ! स्तब्ध ! 

श्रीकृष्ण के भी लोचनों से प्रेम के आंसू बहे ।
भगवान उनकी गुप्त-भक्ति पर ठगे से ही रहे ।।

वाह रे भक्त का प्रेम, भगवान ने स्वयं ही अपने हाथ से दर्भासन लिया और विदुरजी को झंझोड़ते हुए अपने पास बिठा कर कहा—‘मैं भूखा हूँ, मुझे कुछ खाने को दो ।’ 

पति-पत्नी को कुछ सूझता नहीं है ।
‘क्या कुछ खिलाऊँ मैं इन्हें ?’ विदुरानि चिन्ता में पड़ी,
पल भर न आत्मा ने उसे पर दी वहां रहने खड़ी ।
कुछ भी खिला दे आज तू, होगा सुधा से कम नहीं,
भगवान भूखे भाव के हैं, देख लेना तू यहीं ।।

यह है प्रेम की शक्ति जिसने आप्तकाम (भगवान को कोई कामना नहीं होती है) को सकाम (भोजन की कामना करने वाला) बना दिया । भगवान को भूख नहीं लगती है, लेकिन भक्त के लिए भगवान को भूख लगी है । कितना अलौकिक दृश्य होगा ! 

मिठास किसी वस्तु में नहीं वरन् प्रेम में होती है

विदुरजी को संकोच होता है कि भाजी कैसे परेसूं ? भगवान ने स्वयं अपने हाथों से चूल्हे पर से भाजी उतारी और अनन्य प्रेम से अरोगी । विदुरानी अंदर से केले लेकर आईं—

देखा ज्यों ही कृष्ण ने, कदलीफल हैं चार ।
मानो भूखे जन्म-जन्म के, टूटे इसी प्रकार ।।

विदुरानी ने कहा—‘ना, ना, गोपाल ! मैं अभी अपने हाथ से छिलके छीलकर आपको केले खिलाती हूँ । भगवान ने फिर बाललीला रच दी और बोले जल्दी खिलाओ, मुझे बड़ी जोर की भूख लगी है । विदुरानी का चित्त तो श्रीकृष्ण को देखकर पहले ही जड़ हो गया था, श्रीकृष्ण के ये वचन सुनकर तो उनकी और भी विचित्र दशा हो गयी—

झट लग गई घनश्याम को छिलके खिलाने छील कर,
बेसुध खिलाती वह रही, बेसुध हुए हरि खा रहे ।
क्या बात है इन फलों की, यों कथन करते जा रहे,
इस भांति आधे से अधिक श्रीकृष्ण फल खा चुके ।।

इतने में विदुरजी ने, जब देखा यह अंधेर ।
छिलके खाते श्याम हैं, थाली में गिरी का ढेर ।।

भगवान बड़े प्रेम से सराह-सराह कर छिलके खाने लगे । विदुरानी प्रेमदान में और श्रीकृष्ण प्रेमसुधापान में तन्मय थे । यह देखकर विदुरजी विस्मित रह गए और जब उन्होंने विदुरानी को झंझोड़ कर यथास्थिति से अवगत कराया तो वह हंस कर कुटिया के भीतर चली गईं और श्रीकृष्ण को उलाहना देने लगीं—

छिलका दीन्हें स्याम को, भूली तन मन ज्ञान ।
खाए पर क्यों आपने, भूलि गए क्यों भान ।।

भगवान विदुरानी की इस सरल वाणी पर हंस दिए और विदुरजी से बोले—‘आप बड़े बेमौके आए । मुझे बड़ा ही सुख मिल रहा था । मैं तो ऐसे ही भोजन के लिए सदा अतृप्त रहता हूँ ।’ 

भगवान की तो प्रतिज्ञा है—

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो में भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन: ।। (गीता ९।२६)

अर्थात्— जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उसे मैं सगुण रूप से प्रकट होकर प्रेम से खाता हूँ ।

विदुरजी बड़ी सावधानी से भगवान को केले का गूदा खिलाने लगे तो भगवान ने कहा—‘आपने केले तो मुझे बड़े प्यार से खिलाए, पर न मालूम क्यों इनमें छिलके जैसा स्वाद नहीं आया ।’  इसी से कहा गया है—‘सबसे ऊंची प्रेम सगाई ।’

हो धन्य तुम भी विदुरजी, विदुरानि ! तू भी धन्य है, 
हरि के हृदय को हर लिया, तुम-सा जग में न अन्य है ।
भगवान को प्यारा नहीं अभिमानयुत सम्मान भी,
भगवान को प्यारा सदा सम्मानयुत अपमान भी ।।

माण्डव्य ऋषि के शाप से यमराज ने ही दासीपुत्र विदुर के रूप में जन्म लिया जो धृतराष्ट्र और पाण्डु के भाई थे । यमराज भागवताचार्य हैं; इसलिए मनुष्य जन्म में विदुर होकर भी वे भगवान के परम भक्त रहे ।

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