सांझी उत्सव का अनूठा इतिहास
चौंसठ कलाओं में निपुण भगवान श्रीकृष्ण ने अनेक कलाओं को जन्म दिया उनमें से एक है—सांझी कला । सांझी बनाने की शुरूआत भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधा द्वारा शुरु की गई थी ।
व्रज के ठाकुर श्रीकृष्ण और ठकुरानी श्रीराधा की सांझ अर्थात सायंकाल की मिलन लीला का रूप है सांझी चित्रण । व्रज में सायंकाल को संजा भी कहते है ।
शरद् काल में भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधा गोप-गोपियों के साथ वन-भ्रमण करते हुए पुष्प बीन लेते थे, और सायंकाल वन से लौटते समय यमुना किनारे सांझी बनाया करते थे । इसलिए सांझी शरद काल में आश्विन (क्वार) मास में सायंकाल में बनायी जाती है । अष्टछाप के कवियों ने व कृष्ण-भक्त कवियों ने अपने पदों में सांझी का काफी उल्लेख किया है ।
चित्र विचित्र बनाव के, चुनि चुनि फूले फूल ।
सांझी खेलहिं दोऊ मिल, नवजीवन समतूल ।।
▪️एक मान्यता के अनुसार श्रीराधा मनचाहा वर (श्रीकृष्ण) को पाने के लिए संध्या देवी की पुष्पों से पूजा करती थीं । जब श्रीकृष्ण को यह बात पता चली तो उन्होंने श्रीराधा जी की मदद करने की ठानी परन्तु इसमें एक अड़चन थी कि संध्या पूजन में केवल कन्याएँ और महिलाऐं ही भाग ले सकती थी, पुरुषों का प्रवेश निषेध था । श्रीकृष्ण ने एक सखी का वेश धरा और फूलों की टोकरी लिए श्रीराधा जी की मदद करने वृषभानुभवन पहुंच गए । जब मां कीर्तिकुमारी ने पूछा यह नई सखी कौन हैं तो श्रीराधा ने कहा यह तो मेरी प्रिय सहेली है ।
श्रीराधा और उनकी सखियों ने सांझी सजाने के बाद संध्या देवी को भोग लगाया और आरती की । सांझी पूजन के पश्चात काफी देर होने से नन्दगांव जाना संभव नहीं होने के कारण श्रीकृष्ण ने वहीं श्रीराधा और सखियों के साथ रात्रि विश्राम किया ।
सखियन संग राधिका बीनत सुमनन वन मांह ।।
सांझी पूजन को आतुर हो ठाडे कदंब की छांह ।
सखी भेष दे मोहन को ले चली आपने गेह ।।
पूछी कीरति यह को सुन्दरि तब कह्यौ मेरी सनेह ।
सांझी खेल बिदा कर सबकों, दोऊ पौढ़े सेज मंझार ।। (सूरदासजी)
श्रीराधा को अत्यन्त प्रिय था सांझी बनाना
श्रीराधा ने दीवाल (व्रजभाषा में भीत) पर गोबर और फूलों से सांझी बनायी थी । यह बात कवि घनश्यामजी के इस पद से स्पष्ट है—
मृगमद चंदन केसर सों श्यामाजू लीपी भीत ।
कामधेनु के गोबर सों रचि सांझी फूलन चीत ।।
धूप दीप धरि भोग अमृत रस आप आरतौ उतारि ।
गावत गीत पुनीत किशोरी श्री वृषभानु कुमारि ।।
अर्थात्—श्रीराधा ने कस्तूरी, चंदन और केसर के घोल से दीवाल को लीप कर कामधेनु गाय के गोबर से सांझी बनायी और उसे फूलों से सजाया । श्रीराधा ने धूप-दीप दिखाकर स्वयं सांझी की आरती की और फिर मंगलगीत गाने लगीं ।
एक दिन जो सांझी का मोटिफ बनाया जाता, दूसरे दिन प्रात:काल सांझी को उतारकर डलिया में रखकर गोप-कन्याएं यमुना-स्नान को जातीं तो सांझी को यमुना में पधरा आतीं ।
व्रज में सांझी अंकन का बहुत है महत्व
तभी से यह परंपरा ब्रजवासियों ने अपना ली और राधाकृष्ण को रिझाने के लिए अपने घरों के आंगन में सांझी बनाने लगे। व्रजमण्डल में सांझी का अनुष्ठान सोलह दिनों तक चलता है और साझी के सोलह मोटिफ बनाये जाते है । व्रजमण्डल व राजस्थान के ग्रामीण घरों में आज भी कुंवारी कन्याएँ गाय के गोबर से घर के बाहर की दीवार पर सुन्दर सांझी मांडकर उसे पुष्पों से सजाती हैं और मनचाहे वर की प्राप्ति हेतु उसका पूजन करती हैं ।
सांझी अंकन व्रज की विशिष्ट कला
वैदिक काल से ही हिन्दू सनातन धर्म में यज्ञ-मंडप, वेदियों और वहां की भूमि को विभिन्न प्रकार के रंगों से सजाने की परम्परा रही है । वर्तमान में सांझी कई प्रकार से बनायी जाती है—
- फूलों व पत्तियों की सांझी
▪️केले के पत्तों को विभिन्न आकारों में काट कर बनायी गयी सांझी - रंगों की सांझी
- सूखे मेवे व फल की सांझी
- विभिन्न दालों से बनी सांझी
- गाय के गोबर की सांझी
- पानी और तेल पर तैरती सांझी । इसमें पहले सांचे बनाये जाते हैं, पानी पर तेल डालकर फिर उन पर रंगों को उड़ा कर विभिन्न दृश्य बनाए जाते हैं ।
व्रज के मन्दिरों में सूखे रंगों की सांझी कला का विकास हुआ, जिसमें व्रज के विभिन्न स्थानों, यमुना, पर्वत, वन-उपवन और श्रीकृष्ण की महारास लीला, गोवर्धनधारण लीला, गौचारण लीला, माखनचोरी लीला आदि का चित्रण किया जाता है ।
वृन्दावन की सांझी के सम्बन्ध में वहां के कवि लाल बलबीर का एक पद—
कहूँ राधा बाग रच्यौ गहबर निकुंज बन,
झूम रही लता लौनी भूमि परसावनी ।
कहूँ चीर घाट, नंद घाट औ विहार घाट,
जमुना तरंग लेत हिय हुलसावनी ।।
कैसी मनभावनी रिझावनी रची है चारु,
देखो चल सांझी वृन्दावन की पावनी ।।
मन्दिरों में सांझी चित्रण
☘️ वल्लभ सम्प्रदाय के नाथद्वारा में श्रीनाथजी मन्दिर में कमलचौक में हाथीपोल के द्वार के बाहर पंद्रह दिन तक संध्या समय चौरासी कोस की व्रजयात्रा की लीला की सांझी मांडी जाती है । गीले सफेद वस्त्र के ऊपर कलात्मक रूप से केले के पत्तों को काट कर उनसे विभिन्न आकार बना कर सुन्दर सांझी सजायी जाती है एवं उन्हीं पत्तों से उस दिन की लीला का नाम भी लिखा जाता है । भोग-आरती में सांझी के कीर्तन गाये जाते हैं और महाप्रसाद की एक डलिया सांझी को भोग धरी जाती है ।
☘️ बरसाना के लाड़िलीजी मंदिर में पितृ पक्ष के प्रारंभ से ही रंगों की सांझी बनाई जाती है । जहां प्रतिदिन रात्रि को बरसाना के गोस्वामी सांझी के पद और दोहा गाते हैं ।
☘️ राधागोविन्द मंदिर में आश्विन की एकादशी से प्रतिप्रदा तिथि तक पांच दिन सांझी महोत्सव के तौर पर मंदिर में राधारानी का आह्वान किया जाता है । इसमें मंदिर के चौक में सूखे रंगों, पुष्पों से सांझी बना कर मंदिर में विराजमान ठाकुर जी के श्रीविग्रह के समक्ष उसकी पूजा, भोगराग और गोस्वामियों द्वारा सामूहिक समाज गायन किया जाता है ।
कुमारी कन्याओं का सांझी अनुष्ठान पर्व
सांझी माई खोल किवाड़,
मैं आयी पूजन को द्वार
एक अन्य रूप में सांझी का पूजन लोक-देवी के रूप में किया जाता है जिसमें कुमारी कन्याएं आश्विन मास (पितृ पक्ष) में गौरी पूजन के लिए दीवाल पर गोबर से सांझी चित्रित करती हैं, फूलों से उसका श्रृंगार करती हैं, मान मनाती है, आरती करती हैं, भोग लगाती हैं और उनको प्रसन्न करने के लिए मीठे-मीठे गीत गाती हैं—
मेरी सांझी के औरें-जौरें फूल रही फुलवारी
तू तौ ओढ़ लै री सांझी मैया सोलह गज की सारी ।।
सांझी की आरती में वे गाती हैं—
आरती री आरती, संजा मैया आरती,
आरती के फूल महेसर की वारती,
गौरा री गौरा संझा मैया गौरा ।
सांझी का पर्व कुमारी कन्याओं द्वारा पितृगृह की शुभकामना तथा सौभाग्य की कामना से मनाया जाता है । सांझी की पूजा के फल के सम्बन्ध में लोकगीत है—
नौ नवराते देविन के,
सोलह कनागत पितरों के,
मैं आई तेरे पूजन द्वार,
पूज पुजन्तर कहा फल होइ,
भैया भतीजे संपत होइ ।
अर्थात् सांझी-पूजा से भैया-भतीजे और सम्पत्ति प्राप्त होती है ।
‘सोरह तिथि भर पूजै याकों अचल सुहाग कंत मन भावै’—जो कन्या सोलह दिनों तक सांझी को पूजती है उसे अचल सौभाग्य प्राप्त होता है तथा पति का प्रेम मिलता है ।
सांझी का यह अनुष्ठान हरियाणा, उत्तर प्रदेश राजस्थान, मालवा, निमाड़, गुजरात, बिहार और महाराष्ट्र में प्रचलित है लेकिन सभी जगह पर्व के रूप में भिन्नता है ।
द्वापर युग से चली आ रही सांझी की यह अनूठी परंपरा अब विलुप्त होने के कगार पर है, लेकिन अब भी बरसाना के श्रीजी मंदिर, वृंदावन के श्रीराधा बल्लभ, राधा रमण, शाहजहांपुर वाले मंदिर समेत कई मंदिरों में सांझी बनाई जाती है।