shri krishna, yashoda mata

बात केवल ढाई सौ वर्ष पुरानी है । मधुपुर नामक गांव में एक ब्राह्मण-दम्पत्ति नारायणकान्त और रत्नेश्वरी रहते थे । वे वास्तविक अर्थ में ब्राह्मण थे—सादा, सुखी और संतोषी जीवन । नारायणकान्त अध्यापन का कार्य करते और रत्नेश्वरी अपने आंगन में लगे कपास के पौधों से रुई कातकर गांव भर के यजमानों के लिए जनेऊ बनाती रहती और मन-ही-मन बुदबुदाती रहती—

मेरो मन रामहि राम रटै रे ।
राम नाम जप लीजै मनुआं कोटिक पाप कटै रे ।।

पूर्ण संतोषी जीवन होने पर भी संतान न होने से ब्राह्मणी का हृदय हाहाकार करता रहता । अंत में भगवान वैद्यनाथ की शरण लेने पर उन्हें विलक्षण गुणों से सम्पन्न एक कन्या पैदा हुई, नाम रखा लीलावती ।

दुर्लभ हैं वे लोग जो अपनी संतान के लिए भगवद्भक्ति रूपी सम्पत्ति छोड़ते हैं

नारायणकान्त और रत्नेश्वरी का अपनी पुत्री से प्रेम भगवान की भक्ति से लबालब भरा था । इसी कारण लीलावती की जीवनधारा भी सहज ही भक्ति की ओर मुड़ती गयी । नारायणकान्त जब पूजा में बैठे होते तो वह बालिका चुपचाप उनके शालग्राम को निहारा करती । लीलावती को सबसे मीठी और प्यारी लगती मां के द्वारा ब्राह्ममुहुर्त में गायी गई नाम-धुन—

राधाकृष्ण जय कुंजबिहारी ।
मुरलीधर गोवर्धनधारी ।।
श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे ।
हे नाथ नारायण वासुदेव ।।

प्रतिदिन सुनने से लीलावती को भी यह नाम-धुन याद हो गयी और वह अपनी तोतली बोली में इसे गाती रहती । संध्या समय जब मां तुलसी महारानी को दीप दिखाने जातीं तो वह घुटनों के बल तुलसी चौबारे में पहुंच जाती और मां का आंचल पकड़कर खड़ी हो जाती और स्वयं चौबारे में दीप रखती ।

लीलावती जब थोड़ी सयानी हो गयी तो नित्य भगवान के लिए फूल चुनकर माला बनाती और जब नारायणकान्त विष्णुसहस्त्रनाम का पाठ कर रहे होते तो उसे ध्यान से सुनती और दोहराती—

श्रीद: श्रीश: श्रीनिवास: श्रीनिधि: श्रीविभावन: ।
श्रीधर: श्रीकर: श्रेय: श्रीमांल्लोकत्रयाश्रय : ।।

सांसारिक विषय-भोग रूपी काजल की कोठरी से कोई बिरला ही बेदाग निकलता है

समय पाकर लीलावती का विवाह एक सम्पन्न परिवार में हो गया । पति राजपुरोहित, घर में लक्ष्मी का विलास, पुत्र-पुत्री, दास-दासियां । कंचन-कामिनी, भोग-विलास के प्रलोभनों को जीतना बहुत कठिन है । लीलावती भी इस विषवल्लरी में अटक गयी । देर तक सोना, घर का कोई काम नहीं करना, इन्द्रियों का नियमन नहीं, मुख में भगवान का नाम नहीं—ऐसा विलासपूर्ण दलदल का जीवन मानो भोजन में मक्खी निगल रहे हों । लीलावती पुराने संस्कारों को भूलकर दुनिया के राग-रंग में बेसुध बही जा रही थी ।

प्रभु जिसे अपनाते हैं उसके सारे बन्धनों और सम्बन्धों को छिन्न-भिन्न करने के लिए ठोकर देते हैं

जगत के प्रलोभन की मदिरा पीकर जीव जब मदमस्त और बेसुध हो जाता है तो दु:खों  की प्यारभरी मार से प्रभु उसे होश में लाते हैं । एकाएक लीलावती के गांव में हैजा फैला और उसके पुत्र व पुत्री हैजे की चपेट में आ गए, उनके प्राण अब-तब थे । उस जमाने में हैजा असाध्य बीमारी थी । कोई दवा काम नहीं कर रही थी और लीलावती अपने बीमार बच्चों की शय्या के सिरहाने बैठी आंसू बहाते हुए एक-एक क्षण गिन रही थी और अपने जीवन को कोसती हुई धाड़ मार कर रोती जा रही थी । चारों ओर से असहाय लीलावती को बचपन का प्रभु-प्रेम स्मरण हो आया और वह पुकार उठी—

श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे ।
हे नाथ नारायण वासुदेव ।।

सच्ची प्रार्थना में प्रभु का स्पर्श मिलता ही है । उसके बच्चे धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगे । भगवान का वचन है कि जिसे वे एक बार अपना लेते है, उसे एक क्षण के लिए भी छोड़ते नहीं ।

लीलावती के जीवन का नया प्रभात

दूसरे दिन का प्रभात लीलावती के जीवन का नया प्रभात था । सुबह-सुबह एक अलमस्त फकीर की तंबूरे पर गाते हुए उसने आवाज सुनी—

राम कहत चलु, राम कहत चलु, राम कहत चलु भाई रे ।
नाहिं तो भव बेगारी में परके, छूटत अति कठनाई रे ।।

इसे सुनते ही लीलावती की मन की आंखें उसी तरह खुल गयीं जैसे बादलों को हटाकर सूर्य झांकने लगा हो और जन्म-जन्मान्तर का संचित अंधकार भाग गया हो । पिता के विष्णुसहस्त्रनाम और माता की नारायण नाम-धुन के संस्कार मन में जाग उठे और वह भगवान की सच्ची चेरी बन गई ।

लीलावती ने भगवान बालकृष्ण की सोने की मूर्ति बनवाकर उसकी प्राण-प्रतिष्ठा कराई और नित्य उनका षोडशोपचार पूजन करने लगी । परिवार की सेवा तो वह पहले की तरह करती पर सब कर्मों के केन्द्र अब भगवान हो गए । अब नित्य विष्णुसहस्त्रनाम के पाठ के साथ जिह्वा पर अखण्ड नाम-स्मरण का चस्का लग गया ।

लीलावती के प्राणाधार बालकृष्ण

बालकृष्ण की वह मूर्ति ही उसकी प्राणाधार थी । उसके हृदय के आंगन में बालकृष्ण निरन्तर किलकारी मारते रहते । कभी वे चन्द्रखिलौने के लिए हठ करते तो कभी ‘भूखा हूँ’ कहकर स्तनपान की जिद करते । मन-ही-मन अपने बालकृष्ण की चुम्बियां लेती, कभी उलझी लटें सुलझाती और उसमें मोरपंख व गुंजामाला सजाती । कभी उनके लाल-लाल तलवों की रज को हृदय से लगाती

अंदर ही अंदर वह बालकृष्ण की सेवा व लाड़-प्यार में इतना उलझी रहती कि सांसारिक कार्यों से वह धीरे-धीरे विमुख होती चली गयी । संसार से उसे वैराग्य हो गया था । उसकी प्रगाढ़ साधना से परिवार में भी भक्ति की सुगंध फैल गयी ।

जब बालकृष्ण ने दिया लीलावती को मां का स्थान

देवोत्थान एकादशी की रात्रि को घर में बालकृष्ण की झांकी सजाकर महोत्सव मनाया गया । परिवार के सभी लोगों ने आधी रात तक जागरण किया फिर चरणामृत लेकर सब सो गए । मगर, लीलावती की आंखों में नींद नहीं थी । उसके हृदय में आज कुछ अजीब तरह की लहरें उठ रही थीं मानो कन्हैया ने उसके आंचल को कसके पकड़ रखा हो और कह रहा हो कि ‘मैं भूखा हूँ मां, मुझे दूध पिला’ । उसने ठान लिया कि आज कन्हैया को स्तनपान कराऊंगी ही ।

जैसे-जैसे उसके हृदय में संकल्प की लहरें उठ रही थीं, वैसे-वैसे उसकी तरसती और बरसती आंखों ने देखा कि  बालकृष्ण की सुवर्ण-प्रतिमा साक्षात् बालकृष्ण बन गयी और यशोदा का लाल किलकारियां मारने लगा । लीलावती का आंचल दूध की धार से भीग गया । तभी मचलते हुए बालकृष्ण दौड़कर लीलावती के आंचल में प्रवेश कर जाते हैं और मां से चिपटकर दुग्धपान करने लगते हैं ।

कलियुग की यशोदा मां और उसके बालकृष्ण दोनों ही लाड़ लड़ाते हुए एक-दूसरे की इच्छा पूरी करने लगे । लीलावती को दुर्लभ रत्न मिल गया । अब उसकी कोई इच्छा शेष नहीं रह गयी ।

दूसरे दिन प्रात:काल जब घरवालों ने पूजाघर का द्वार खोला तो देखा कि लीलावती बालकृष्ण की मूर्ति को गोद में चिपटाए बेहोश पड़ी है—सदा सदा के लिए बेहोश किन्तु वह बेहोशी इस संसार के होश और होशियारी से कहीं ज्यादा मूल्यवान है जिसमें उसने सदा-सदा के लिए अपने बालकृष्ण को पा लिया और बालकृष्ण ने भी उसका दुग्धपान कर उसे दूसरी यशोदा मां का दर्जा दे दिया ।

‘मां’ जब मुझको कहा कृष्ण ने, तुच्छ हो गए देव सभी ।
इतना आदर, इतनी महिमा, इतनी श्रद्धा कहां कभी ?
उमड़ा स्नेह-सिन्धु अन्तर में, डूब गयी आसक्ति अपार ।
देह, गेह, अपमान, क्लेश, छि: ! विजयी मेरा शाश्वत प्यार ।।

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