श्रीकृष्ण की मार में भी प्यार है
भगवान श्रीकृष्ण अति प्रेममय और उदार हैं । शिशुपाल वैर-भाव से ही सही, परमात्मा का स्मरण कर रहा था । मन मित्र से ज्यादा शत्रु का स्मरण करता है । पारसमणि का काम है लोहे को सोना बनाना । अब यदि हथौड़ा पारसमणि पर मारा जाए तो यद्यपि पारसमणि टूट जाएगी पर वह अपने स्पर्श से हथौड़े को सोना बना देगी; परंतु पारसमणि नहीं बनाएगी । इसीलिए जिसने श्रीकृष्ण को छुआ या जिसे श्रीकृष्ण ने छुआ; उन्हें श्रीकृष्ण ने श्रीकृष्णमय बना दिया ।
कर्म और पुनर्जन्म
कितना निर्लिप्त रहता है कमल जल से ! पैदा होता है पानी में, बढ़ता-पनपता भी पानी में है, विकसित भी पानी में होता है, पानी में खिलता है, पानी में ही आठों पहर बसता है; परंतु पानी से सर्वथा अछूता, पानी को वह अपने ऊपर ठहरने ही नहीं देता, अपने से चिपकने नहीं देता, पानी आया तुरंत उसे लुढ़का कर फेंक देता है । इसी तरह कमल का आदर्श लेकर मनुष्य को संसार में कर्म करने चाहिए, तब वही कर्म उसके मोक्ष का द्वार खोल देंगे ।
कर्मफल : जब यमराज बने दासी-पुत्र विदुर
ब्रह्मा आदि सभी देवता भी कर्म के वश में हैं और अपने किए कर्मों के फलस्वरूप सुख-दु:ख प्राप्त करते हैं । भगवान विष्णु भी अपनी इच्छा से जन्म लेने के लिए स्वतन्त्र होते तो वे अनेक प्रकार के सुखों व वैकुण्ठपुरी का निवास छोड़कर निम्न योनियों (मत्स्य, कूर्म, वराह, वामन) में जन्म क्यों लेते ? सूर्य और चन्द्रमा कर्मफल के कारण ही नियमित रूप से परिभ्रमण करते हैं तथा सबको सुख प्रदान करते हैं, किन्तु राहु के द्वारा उन्हें होने वाली पीड़ा दूर नहीं होती ।
मथुरा जहां पूजे जाते हैं मृत्युदेवता ‘यमराज’
मथुरा नगरी को तीन लोक से न्यारा कहा गया है; क्योंकि यहां मृत्यु के देवता यमराज जिन्हें ‘धर्मराज’ भी कहते हैं, का मंदिर है । पूरे कार्तिक मास कार्तिक-स्नान करने वाली स्त्रियां यमुना-स्नान कर उनकी पूजा करती हैं ।
जिस प्रकार पूरे विश्व में ब्रह्माजी का मंदिर केवल पुष्कर (राजस्थान) में है; उसी प्रकार यमराज का मंदिर संसार में केवल मथुरा में है और वे यहां इस मंदिर में अपनी बहिन यमुना के साथ विराजमान हैं । मथुरा में यह मंदिर ‘विश्राम घाट’ पर स्थित है ।
मनुष्य के बार-बार जन्म-मरण का क्या कारण है ?
प्रत्येक जीव इंद्रियों का स्वामी है; परंतु जब जीव इंद्रियों का दास बन जाता है तो जीवन कलुषित हो जाता है और बार-बार जन्म-मरण के बंधन में पड़ता है । वासना ही पुनर्जन्म का कारण है । जिस मनुष्य की जहां वासना होती है, उसी के अनुरूप ही अंतसमय में चिंतन होता है और उस चिंतन के अनुसार ही मनुष्य की गति—ऊंच-नीच योनियों में जन्म होता है । अत: वासना को ही नष्ट करना चाहिए । वासना पर विजय पाना ही सुखी होने का उपाय है ।
शुभ-अशुभ कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है
कर्मों की गति बड़ी गहन होती है । कर्म की गति जानने में देवता भी समर्थ नहीं हैं, मानव की तो बात ही क्या है ? काल के पाश में बंधे हुए समस्त जीवों को अपने द्वारा किये गये शुभ अथवा अशुभ कर्मों का फल निश्चित रूप से भोगना ही पड़ता है । मनुष्य कर्म-जंजाल में फंसकर मृत्यु को प्राप्त होता है और फिर कर्मफल के भोग के लिए पुनर्जन्म धारण करता है ।
शंख की उत्पत्ति कथा तथा शंख-ध्वनि की महिमा
समुद्र-मंथन के समय समुद्र से जो १४ रत्न निकले, उनमें एक शंख भी है । इसलिए इसे ‘समुद्रतनय’ भी कहते हैं । शंख में साक्षात् भगवान श्रीहरि का निवास है और वे इसे सदैव अपने हाथ में धारण करते हैं । मंगलकारी होने व शक्तिपुंज होने से अन्य देवी-देवता जैसे सूर्य, देवी और वेदमाता गायत्री भी इसे अपने हाथ में धारण करती हैं; इसीलिए शंख का दर्शन सब प्रकार से मंगल प्रदान करने वाला माना जाता है ।
भगवान श्रीकृष्ण का गोप-गोपियों को वैकुण्ठ का दर्शन कराना
ब्रज में आकर गोप-गोपियों ने भी चैन की सांस लेते हुए कहा—‘वैकुण्ठ में जाकर हम क्या करेंगे ? वहां यमुना, गोवर्धन पर्वत, वंशीवट, निकुंज, वृंदावन, नन्दबाबा-यशोदा और उनकी गाय—कुछ भी तो नहीं हैं । वहां ब्रज की मंद सुगंधित बयार भी नहीं बहती, न ही मोर-हंस कूजते हैं । वहां कन्हैया की वंशीधुन भी नहीं सुनाई देती । ब्रज और नन्दबाबा के पुत्र को छोड़कर हमारी बला ही वैकुण्ठ में बसे ।
अवधूत दत्तात्रेय जी के 24 गुरु और उनकी शिक्षाएं
अवधूत दत्तात्रेय जी ने अपने जीवन-यापन के क्रम में पंचभूतों और छोटे-छोटे जीवों की स्वाभाविक क्रियाओं को बहुत ध्यान से देखा और उनमें उन्हें जो कुछ भी अच्छा लगा, उसे उन्होंने गुरु मान कर अपने जीवन में उतार लिया । इस प्रसंग का वर्णन श्रीमद्भागवत के एकादश स्कन्ध में किया गया है ।
कुरुक्षेत्र को ‘धर्मक्षेत्र’ क्यों कहा जाता है ?
श्रीमद्भगवद्गीता का आरम्भ ही ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ इन शब्दों से होता है । कुरुक्षेत्र जहां कौरवों और पांडवों का महाभारत का युद्ध हुआ और जहां भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी दिव्य वाणी से गीता रूपी अमृत संसार को दिया, उसे धर्मक्षेत्र या पुण्यक्षेत्र क्यों कहा जाता है ? इसके कई कारण हैं ।