‘दोषों में गुण देखना’ यही है संत का स्वभाव
यह कह कर भट्टजी ने अपनी दोनों भुजाओं में महंतजी को भर कर हृदय से लगा लिया । भट्टजी की सरल और प्रेमपूर्ण वाणी सुन कर और उनके अंगस्पर्श से आज सचमुच महंतजी का हृदय पिघल गया और उनकी आंखों से अश्रुधारा बह निकली । दोष में गुण देखना—यही संत का सहज स्वभाव है ।
भगवान विट्ठल और भक्त कान्होपात्रा
यह कहते-कहते कान्होपात्रा की देह अचेतन हो गई । उसमें से एक ज्योति निकली और वह भगवान की ज्योति में मिल गई । कान्हूपात्रा की अचेतन देह भगवान पण्ढरीनाथ के चरणों पर आ गिरी । कान्होपात्रा की अस्थियां मंदिर के दक्षिण द्वार पर गाड़ी गईं । मंदिर के समीप कान्होपात्रा की मूर्ति खड़ी-खड़ी आज भी पतितों को पावन कर रही है ।
भक्त माधवदास जिनके सेवक बने भगवान जगन्नाथ
भगवान में प्रेम वह मादक मदिरा है, जिसने भी इसे चढ़ा लिया वह मस्त हो गया । उस मतवाले की बराबरी कोई नहीं कर सकता । संसार के शहंशाह भी उसके गुलाम हैं । त्रिलोकी का राज्य उसके लिए तिनके के समान है । वह तो सदा अपनी मस्ती में ही मस्त रहता है । भगवान के प्रेमी-भक्त को वे सारे पदार्थ और व्यक्ति बाधक लगने लगते हैं, जो भगवान से जुड़े नहीं हैं ।
श्रीमद्वल्लभाचार्यजी विरचित ‘कृष्णाश्रय’ स्तोत्र
कृष्णाश्रय का अर्थ है सदा-सर्वदा पति, पुत्र, धन, गृह--सब कुछ श्रीकृष्ण ही हैं-- इस भाव से व्रजेश्वर श्रीकृष्ण की सेवा करनी चाहिए, भक्तों का यही धर्म है । इसके अतिरिक्त किसी भी देश, किसी भी वर्ण, किसी भी आश्रम, किसी भी अवस्था में और किसी भी समय अन्य कोई धर्म नहीं है ।
राजा परीक्षित की किस गलती की वजह से कलियुग का आरम्भ...
जिस बालक को गर्भ में ही परमात्मा श्रीकृष्ण के दर्शन हो गए हों, वह कितना पवित्र होगा ! किन्तु कलियुग का प्रभाव ही ऐसा है, अच्छे-अच्छों को प्रभावित कर देता है । वैसे तो जिस दिन, जिस क्षण श्रीकृष्ण इस पृथ्वी को त्याग कर गोलोकधाम पधारे थे, उसी क्षण से अधर्म रूपी कलियुग का आरम्भ हो गया था ।
कलियुग के प्रत्यक्ष भगवान : वेंकटेश्वर बालाजी
भगवान ने उन्हें अपने आलिंगन में लेकर अपने दांये और बायें वक्ष:स्थल में रख लिया । भगवान श्रीहरि जगत के कल्याण के लिए भूलोक आए थे केवल दो स्त्रियों की रक्षा के लिए नहीं; इसलिए चुपचाप वे सात कदम पीछे चले । तभी एक भयंकर ध्वनि हुई और वे शिलाविग्रह में परिवर्तित हो गए । तभी आकाशवाणी हुई—‘अब से मैं कलियुग के अंत तक वेंकटेश्वर स्वामी के नाम से इसी रूप में रहूंगा । अपने भक्तजनों की मनोकामना पूरी करना ही मेरा व्रत है ।’
भगवान वेंकटेश्वर को नैवेद्य मिट्टी के पात्रों में क्यों निवेदित किया...
तभी एक विमान जिसमें साक्षात् भगवान विष्णु विराजमान थे, आकाश से उतरा । कुम्हार की पत्नी ने भगवान को मिट्टी से बने पीढ़े पर बैठाया, मिट्टी के पात्र में ही जल और रूखा-सूखा भोजन परोस दिया । भगवान के समक्ष हाथ जोड़ कर दोनों पति-पत्नी ने कहा—‘भगवन् ! हम अत्यन्त दरिद्र हैं, जो कुछ हमारे पास है, वही आपकी सेवा में निवेदित कर रहे हैं, इसे स्वीकार कीजिए ।
सबके प्यारे, सबसे न्यारे भगवान श्रीकृष्ण
भगवान श्रीकृष्ण ने संसार को उपदेश दिया कि कलियुग में मुख्यरूप से ब्रह्मचर्य और गृहस्थ दो ही आश्रम रहेंगे । इसलिए उन्होंने अर्जुन, उद्धव, अक्रूर और गोपियां आदि गृहस्थों को ही अपना दिव्य ज्ञान दिया । भगवान ने यह बतलाया कि गृहस्थाश्रम में रहकर संसार के समस्त व्यवहारों को करते हुए किस प्रकार भगवान की प्राप्ति हो सकती है ।
भक्ति हो तो भक्त सुधन्वा जैसी
सुधन्वा का कटा मस्तक ‘गोविन्द ! मुकुन्द ! हरि !’ पुकारता हुआ श्रीकृष्ण के चरणों पर जा गिरा । श्रीकृष्ण ने झट से उस सिर को दोनों हाथों में उठा लिया । उसी समय उस मुख से एक ज्योति निकली और सबके देखते श्रीकृष्ण के श्रीमुख में लीन हो गई ।
श्रीगिरिराज चालीसा
श्रीराधा ने श्रीकृष्ण से कहा–’प्रभो ! जहां वृन्दावन नहीं है, यमुना नदी नहीं हैं और गोवर्धन पर्वत भी नहीं है, वहां मेरे मन को सुख नहीं मिल सकता है ।’ भगवान श्रीकृष्ण ने अपने गोलोकधाम से चौरासी कोस भूमि, गोवर्धन पर्वत एवं यमुना नदी को भूतल पर भेजा ।