श्रीकृष्ण की बालहठ लीला

मैया मेरी, चन्द्र खिलौना लैहौं,
धौरी को पय पान न करिहौ, बेनी सिर न गुथेहौं।
मोतिन माल न धरिहौं उर पर, झंगुली कंठ न लैहौं।।

जैहों लोट अबहिं धरती पर, तेरी गो न ऐहौ।
लाल कहैहौं नंद बाबा को, तेरो सुत न कहैहौं।।

कान लाय कछु कहत जसोदा, दाउहिं नाहिं सुनैहौं।
चंदा ते अति सुंदर तोहि, नवल दुलहिया ब्यैहौं।।

तेरी सौं मेरी सुन मैया, अबहीं ब्याहन जैहौं।
सूरदास सब सखा बराती, नूतन मंगल गैहौं।।

श्रीकृष्ण की बालसुलभ लीलाओं का दर्शन करना ही गोपियों के जीवन की प्रमुख दिनचर्या थी। एक बार आश्विन पूर्णिमा (कोजागरी) की रात्रि में जागरण करने के लिये सभी गोपियाँ नन्द भवन में एकत्रित हुयीं। बालकृष्ण को भी आज निद्रा नहीं आ रही थी। आज वह अपनी एक नयी बाल्य-चेष्टा से सभी गोपियों को आनन्द निमग्न करना चाहते थे। सभी गोपियाँ बालकृष्ण से हंसी ठिठोली कर रही थीं और बालकृष्ण भी ‘थेई थेई थेई तत थेई’ करते हुये नृत्य करने लग जाते हैं। नन्दभवन का विशाल प्रांगण बालकृष्ण के नुपूर की ध्वनि से झंकृत हो उठा।

अचानक ही बालकृष्ण नृत्य बंद कर देते हैं और पास ही रखी दही मथने की गगरी (मटकी)  में झांकने लगते हैं। उस मटकी में उन्हें आकाश स्थित चन्द्र का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। बालकृष्ण माँ यशोदा से पूछते हैं, ‘यह सुंदर प्रतिबिम्ब किसका है।’ यशोदाजी हँसकर कहती हैं, ‘मेरे लाला, यह चन्द्र प्रतिबिम्ब है।’ बालकृष्ण आँखें फैलाकर आश्चर्य से कहते हैं, ‘माँ, यह चन्द्र है? फिर तो तू इसे गगरी से निकालकर मेरे हाथों पर रख दे।’

माँ यशोदा और गोपियाँ हँस-हँसकर लोटपोट हो जाती हैं। बालकृष्ण हठ करते हैं कि माँ इस चन्द्र को गगरी से निकालकर मेरे हाथों पर रख दे। माँ यशोदा उन्हें अन्य प्रलोभन देकर मनाने की कोशिश करती हैं पर बालकृष्ण रोना शुरू कर देते हैं। तभी उपनन्दजी की पत्नी प्रभावती को एक तरकीब सूझती है। वह छुपकर भंडारगृह में जाती है और वहां से माखन का एक बड़ा टुकड़ा अपने हाथ में छुपाकर ले आती है और चुपके से उसे उसी गगरी में रख देती है। फिर बालकृष्ण को बहलाते हुये कहती है, ‘ अच्छा चल, मैं तेरे हाथ पर चन्द्र रख देती हूँ।’ और उस माखन के टुकड़े को निकालकर बालकृष्ण के हाथों पर रख देती हैं। नवनीतपिण्ड लेकर कृष्ण आँगन में दौड़ते हैं। उनके पीछे माता यशोदा व गोपिकाएं भी दौड़ती हैं। दौड़ते-दौड़ते वह फिर उस दही मथने की गगरी के पास आ जाते हैं और पुन: उन्हें उस गगरी में चन्द्र का प्रतिबिम्ब दीख जाता है। वह समझ जाते हैं कि माँ ने उनको बहलाया है। चन्द्र तो अभी तक इस गगरी में है। वह भूमि पर लोट जाते हैं और हाथ-पैर पटक-पटक कर रोना शुरू कर देते हैं।

माता यशोदा उन्हें वक्ष से लगा लेती हैं और कहती हैं, ‘मेरे लाल, चन्द्र तो गगन में है, गगरी में नहीं।’  बालकृष्ण कभी आकाश में देखते हैं और कभी गगरी के चन्द्र को देखते हैं। माँ यशोदा बालकृष्ण को समझाती हैं, ‘मेरे प्राणधन! देख, चन्द्र तो तेरा मुख देखने आता है, जब तू गगरी की ओर देखता है, तब चन्द्र गगरी में आ जाता है और जब तू आकाश की ओर देखता है तब चन्द्र आकाश में चला जाता है।’ बालकृष्ण समझ जाते हैं कि
चन्द्र तो एक ही है परन्तु वे चन्द्र को हाथों में लेने की जिद नहीं छोड़ते। और मां को तरह-तरह की धमकियां भी देते हैं जैसे–
वह गाय का दूध नहीं पियेंगे, न ही चोटी बनवायेंगे, गले में मोतियों की माला नहीं धारण करेंगे। यहां तक कि अब वह केवल नंदबाबा के पुत्र कहलायेंगे, माता यशोदा के नहीं। माता यशोदा समझाती हैं–

लाल हो, ऐसी आरि न कीजै।
मधु-मेवा-पकवान-मिठाई, जोहि भावै सोहि लीजै।।

सद माखन घृत दह्यौ सजायौ, अरु मीठौ पय पीजै।
पालागौं हठ अधिक करौ जनि, अति रिस तैं तन छीजै।।

यहां तक कि माता उनकी जल्दी से शादी कराने का प्रलोभन भी देती हैं। पर बालकृष्ण पहले से भी अधिक हठ करने लगते हैं। अब गोपियों को एक तरकीब सूझती है। वे एक पात्र में जल भर देती हैं। माता यशोदा उस जल पात्र में चन्द्र का आवाहन करती हैं। कुछ देर इसी तरह चन्द्र को जल पात्र में आने के लिये कहती हैं और फिर उस जल पात्र को जमीन पर रख देती हैं और बालकृष्ण से कहती हैं–

लै लै मोहन चंदा लै।
कमल नैन बलि जाउँ सुचित ह्वै, नीचैं नैकु चितै।।

जा कारन तैं सुनि सुत सुंदर, कीन्हीं इती अरै।
सोइ सुधाकर देखि कन्हैया, भाजन माहिं परै।।

नभ तैं निकट आनि राख्यौ है, जल-पुट जतन जुगै।
लै अपने कर काढ़ि चँद कौं जो भावै सो कै।।

बालकृष्ण को जल पात्र में चन्द्र के स्पष्ट दर्शन हो रहे हैं। वे आनन्द से भर जाते हैं और माँ यशोदा की गोद से उतरकर जल पात्र में दोनों हाथ डालकर चन्द्र पकड़ने की कोशिश करते हैं। परन्तु झलमल-झलमल करती हुयी चन्द्र परछाई विलीन हो जाती है। योगमाया के प्रभाव से आकाश में भी बादलों का एक टुकड़ा चन्द्रमा को ढँक लेता है। बालकृष्ण आकाश की ओर देखते हैं वहां भी चन्द्र नहीं है। माता से पूछते हैं, ‘माँ मेरा चन्द्र कहाँ चला गया?’ माता उत्तर देती है, मेरे लाल, तू उसे हाथों से पकड़ना चाहता था, वह तुझसे डरकर पाताल में चला गया।’ बालकृष्ण पूछते हैं, ‘माँ पाताल क्या है? माँ कहती हैं चल तुझे पाताल की कहानी सुनाती हूँ। और वह बालकृष्ण को शयनकक्ष में ले जाती हैं। इस तरह बालकृष्ण चन्द्र को खिलौना बनाने की अपनी हठ को भूलते हैं। गोपियाँ भी बालकृष्ण की इस लीला को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हो रही हैं। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण की विभिन्न लीलाओं का उद्देश्य अपने भक्तों को आनन्द देना है।

भगवान श्रीकृष्ण लीला पुरुषोत्तम हैं। भगवान की कौन-सी लीला क्यों होती है, इस बात को हम लोग नहीं समझ सकते। भगवान की लीला रहस्यमयी हैं। उनका तत्व जानने की चेष्टा न करके उनका गायन, श्रवण और ध्यान करें, यही हमारा कर्तव्य है।

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