krishna

वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात्।
पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात्।
पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात्।
कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने।।

जिनके करकमल वंशी से विभूषित हैं, जिनकी नवीन मेघकी-सी आभा है, जिनके पीत वस्त्र हैं, अरुण बिम्बफल के समान अधरोष्ठ हैं, पूर्ण चन्द्र के सदृश्य सुन्दर मुख और कमल के से नयन हैं, ऐसे भगवान श्रीकृष्ण को छोड़कर अन्य किसी भी तत्व को मैं नहीं जानता।

अद्वैत सम्राट श्रीमधुसूदन सरस्वतीजी जैसे ज्ञान महारथी ने अपनी दशा का बड़ा मार्मिक वर्णन किया है–‘यह शठ गोपीबल्लभ हठपूर्वक अपना दास बना लेता है, फिर दूसरा कोई तत्त्व उन्हें सूझता ही नहीं।’ इसीलिए उन्होंने उपरोक्त श्लोक की रचना की। श्रीकृष्ण की मनमोहिनी छटा ने उनपर ऐसा प्रभाव डाला कि फिर वे सदा के लिए उनकी गुणावली पर रीझते ही चले गए। भगवान का स्वरूप ही ऐसा मधुर है कि जो सबको अपनी ओर खींच लेता है।

‘कृष्ण’ नाम का अर्थ ही है ‘आकर्षण करने वाला’

इसी प्रकार भक्त बिल्वमंगल शैव (शिव भक्त) थे। वह सदा ‘नम: शिवाय’ यह पंचाक्षर मन्त्र जपते थे। लेकिन प्रथम बार जब श्रीश्यामसुन्दर के मधुर मुस्कानयुक्त मुख की झाँकी हुई तो वे सदा के लिए अपने मन को श्रीकृष्ण के चरणों में लुटा बैठे।
उस साँवरे सलौने की छविमाधुरी में जादू ही ऐसा है–जिसने भी भूले भटके इस ओर निहार लिया, वही लुट गया। तभी तो लोगों ने कहा–

बटाऊ ! वा मग तैं मति जइयो

X X X X X

देखन कौं अति भोरो कोरो, जादूगर बहु सैयो।
हरत चित्तधन सरबस तुरतहिं, नहिं कोउ ताहि रुकैयो।।

‘अरे पथिको ! उस राह मत जाना, वह रास्ता बड़ा ही भयावना है। वहां अपनी कमर पर हाथ रखे जो तमाल सरीखा नीलश्याम नंगधड़ंग बालक खड़ा है, वह अपने समीप होकर जाने वाले किसी भी पथिक का चित्तरूपी धन लूटे बिना नहीं छोड़ता।’

ब्रज-रस-रसीले श्रीललितकिशोरीजी के शब्दों में–

देखो री ! यह नंद का छोरा बरछी मारे जाता है।
बरछी-सी तिरछी चितवन की पैनी छुरी चलाता है।।
हमको घायल देख बेदरदी मंद-मंद मुसकाता है।
‘ललितकिसोरी’ जख़म जिगर पर नौनपुरी बुरकाता है।।

संसार में कोई भी ऐसा प्राणी नहीं है जिसकी दृष्टि एकबार श्रीकृष्ण पर पड़ी हो और वह अपने को भूल न गया हो। बालकृष्ण के नामकरण संस्कार के समय श्रीगर्गाचार्यजी ने जब श्रीकृष्ण की अद्भुत दिव्य रूपमाधुरी को देखा तब वह विचित्र दशा को प्राप्त होकर अपने आप को ही भूल गए।

बूढ़े व्यास, भीष्म और नारदजी जैसे ऋषि मुनि भी उनके स्वरूप-सौन्दर्य को देखते ही अपना सर्वस्व लुटा बैठे। यथा–

जोगी, परम तपस्वी, ग्यानी, जिन निज निज मन मारयौ।
तनिक निरखि मुसक्यान मधुर तिन बरबस जीवन वारयौ।।

अखिल रसेश्वर श्रीकृष्ण का वर्णन करने के लिए भाषा में न शब्द हैं न शक्ति ही। इसको जिसने देखा वही जानता है। संन्यासिप्रवर श्रीशंकराचार्य ने जब अपनी माता की मुक्ति के लिए श्रीकृष्ण से प्रकट होकर दर्शन देने की प्रार्थना की तब भगवान श्रीकृष्ण आचार्य के समक्ष शंख, चक्र, कमल लिये प्रकट हो गये।

भगवान के रूप का वर्णन करते हुये श्रीशंकराचार्यजी ने लिखा– ‘भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्मा-विष्णु-महेश से पृथक विकाररहित और सर्वश्रेष्ठ एक सच्चिन्मयी नीलिमा हैं।’

स्वयं श्रीकृष्ण किसी मणि की दीवाल में अपना प्रतिबिम्ब देखकर आश्चर्य से कहते हैं–
”अहो ! इस माधुरी का तो इससे पहले मैंने कभी अनुभव किया ही नहीं। मेरी यह माधुर्यराशि कितनी चमत्कारजनक है, कितनी महान श्रेष्ठ है और कितनी मधुर है ! इसे देखकर तो मेरा चित्त लुब्ध हो गया है।” प्यारे कन्हैया, तुम्हारा रूप तो बड़ा ही अनोखा है। जब तुम्हारी रूपमाधुरी स्वयं तुम्हीं को पागल बनाये डालती है तब ऋषि, मुनि, ज्ञानी, ध्यानी और तुम्हारे प्रेमी भक्त उस पर लोक-परलोक न्यौछावर कर दें तो आश्चर्य ही क्या है?

महाप्रभु चैतन्य के द्वारा भी श्रीकृष्ण की मधुरता इन शब्दों में प्रकट की गयी है–

कृष्ण-अंग-लावण्य मधुर से भी समधुरतम।
उसमें श्रीमुख-चन्द्र परम सुषमामय अनुपम।

X X X X X X

श्रीमुख की मधु सुधामयी ज्योत्स्नामयि सुस्मिति।
इस ज्योत्स्ना-स्मिति मधुर का एक-एक कण अति मधुर।
होकर त्रिभुवन व्याप्त जो बना रहा सबको मधुर।।

हमारे श्रीकृष्ण तो ऐसे हैं कि उनकी ओर जिसकी भी दृष्टि गयी वही अपनी सुध-बुध भूलकर लट्टू हो गया। श्यामसुंदर को जिसने भी एकबार भर आँखें देख लिया, उसको फिर तृप्ति कहाँ? प्रतिक्षण प्यास बढ़ती ही जाती है और बार-बार मन में यही आता है कि श्यामसुंदर तुम्हारे बिना यह जीवन निस्सार है।

रहीम श्यामसुंदर की छवि को मन से हटा ही नहीं पाते। वे गाते हैं–

कमल-दल नैननि की उनमानि।
बिसरत नाहिं मदनमोहन की मंद-मंद मुसुकानि।।

नजीर लिखते हैं–

तारीफ करूँ मैं अब क्या-क्या उस मुरली-धुन के बजैया की।
नित सेवा-कुँज फिरैया की और वन-वन गऊ चरैया की।।

हज़रत नफीस खलीली ने तो कन्हैया की छवि पर अपना दिल ही उड़ा दिया–

कन्हैया की आँखें हिरन-सी नशीली।
कन्हैया की शोखी कली-सी रसीली।।

कन्हैया की छवि दिल उड़ा लेने वाली।
कन्हैया की सूरत लुभा लेने वाली।।

कन्हैया की हर बात में एक रस है।
कन्हैया का दीदार सीमी क़फ़ है।।

भगवान के माधुर्य का जब प्राकट्य होता है तो सारे जगत् में मधुरता भर जाती है। भगवान के रस का प्रादुर्भाव होता है तो जगत् सरस बन जाता है। जब भगवान प्रिय लगे तो उनका सब कुछ प्रिय हो जाता है। ऐसा ही कुछ वर्णन श्रीवल्लभाचार्यजी ने किया है–

अधरं मधुरं वदनं मधुरं नयनं मधुरं हसितं मधुरम्।
हृदयं मधुरं गमनं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्।।

वचनं मधुरं चरितं मधुरं वसनं मधुरं वलितं मधुरम्।
चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्।।

वेणुर्मधुरो रेणुर्मधुर: पाणिर्मधुर: पादौ मधुरौ।
नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्।।

गीतं मधुरं पीतं मधुरं भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरम्।
रूपं मधुरं तिलकं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्।।

करणं मधुरं तरणं मधुरं हरणं मधुरं स्मरणं मधुरम्।
वमितं मधुरं शमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्।।

गुज्जा मधुरा माला मधुरा यमुना मधुरा वीची मधुरा।
सलिलं मधुरं कमलं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्।।

गोपी मधुरा लीला मधुरा युक्तं मधुरं मुक्तं मधुरम्।
दृष्टं मधुरं शिष्टं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्।।

गोपा मधुरा गावो मधुरा यष्टिर्मधुरा सृष्टिर्मधुरा।
दलितं मधुरं फलितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्।।

अर्थात् श्रीमधुराधिपति श्रीकृष्ण का सभी कुछ मधुर है। उनके अधर, मुख, नेत्र, हास्य, हृदय, गति, वचन, चरित्र, वस्त्र, चाल, वेणु, चरण, उनका गान, पान, भोजन, शयन, रूप, तिलक, आदि सभी मधुर हैं। इसके अतिरिक्त उनसे जुड़े गोप, गोपी, गौएं, लकुटी, यमुना, यमुनाजल, उसकी तरंगें और कमल भी मधुर हैं।

श्रीकृष्ण की माधुर्य लीला ब्रज में ही रहती है, उनके साथ मथुरा और द्वारका नहीं जाती। श्रीकृष्ण का ऐश्वर्य तो सर्वत्र दिखायी देता है पर उनका माधुर्य बड़ा गोपनीय है, उसका प्रकाश उनकी कृपा के बिना नहीं हो सकता।

मोहन बसि गयौ मेरे मन में।
लोकलाज, कुलकानि छूटि गयी, वाकी नेह लगन में।।
जित देखूँ तित ही वह दीखै, घर बाहर, आँगन में।
अंग-अंग प्रति रोम-रोम में, छाय रहयौ तन-मन में।।
कुंडल झलक कपोलन सोहै, बाजूबंद भुजन में।
कंकन कलित, ललित बनमाला, नुपूर-धुनि चरनन में।।
चपल नैन, भ्रकुटि बर बाँकी, ठाढ़ौ सघन लतन में।
नारायन बिन मोल बिकी हूँ, याकी नैक हसन में।। (पद रत्नाकर)

वास्तव में भगवान श्रीकृष्ण सब प्रकार से पूर्ण हैं। वह अनन्त ऐश्वर्य, अनन्त बल, अनन्त यश, अनन्त श्री, अनन्त ज्ञान और अनन्त वैराग्य की जीवन्त मूर्ति हैं।

जाहि देखि चाहत नहीं कछु देखन मन मोर।
बसै सदा मोरे दृगनि सोई नन्दकिशोर।।

6 COMMENTS

  1. सुन्दरतम अभिव्यक्ति।
    श्री कृष्ण चरणानुरागी लेखनी को सादर अभिवादन।

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