भारतवर्ष में दो वाल्मीकि जी हुए हैं—एक तो वे जिन्होंने ‘रामायण’ की रचना की और दूसरे द्वापरयुग में श्वपच भक्त वाल्मीकि । ‘श्वपच’ का अर्थ होता है चाण्डाल जाति का । गीता में भगवान ने कहा है कि सभी मनुष्यों को अपने वर्णाश्रम और कुल के अनुसार धर्म का आचरण करना चाहिए । इसलिए यदि कोई व्यक्ति अपने वर्णाश्रम के अनुसार निम्न श्रेणी का कार्य करके भी भगवान की भक्ति करता है तो वह भी उनको अत्यंत प्रिय है; क्योंकि भगवान की दृष्टि में कोई भी कार्य छोटा या बड़ा नहीं होता है ।
भगवान न तो किसी भक्त की जाति देखते हैं और न ही कुल, रूप, धन या ज्ञान; वे तो उसी जीव से प्रेम करते हैं, जो उन पर विश्वास करके यह मान लेता है कि ‘मैं उनका हूँ, वे मेरे हैं’ । भगवान पतितपावन और दीनबंधु होने के कारण दीन-हीन और पतित से भी उतना ही प्यार करते हैं । इस बात से संसार को अवगत कराने के लिए ही भगवान श्रीकृष्ण ने राजा युधिष्ठिर के यज्ञ में एक लीला की, जिसका वर्णन इस ब्लॉग में किया जा रहा है—
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अपने प्रिय ‘श्वपच भक्त वाल्मीकि’ की महिमा से संसार को परिचित कराना
एक बार राजा युधिष्ठिर ने यज्ञ किया, जिसमें चारों दिशाओं से ऋषि-मुनि पधारे । भगवान श्रीकृष्ण ने एक शंख स्थापित करते हुए कहा कि यज्ञ के विधिवत् पूर्ण हो जाने पर यह शंख बिना बजाये ही बजेगा । यदि नहीं बजे तो समझिये कि यज्ञ में अभी कोई त्रुटि है और यज्ञ पूरा नहीं हुआ है । पूर्णाहुति, तर्पण, ब्राह्मणभोज, दान-दक्षिणा—सभी कार्य संपन्न हो गए, परंतु शंख नहीं बजा । सभी लोग चिंतित होकर शंख न बजने का कारण जानने के लिए भगवान श्रीकृष्ण के पास आए ।
भगवान श्रीकृष्ण ने शंख न बजने का कारण बताते हुए कहा—‘यद्यपि सभी ऋषियों ने भरपेट भोजन किया है; परंतु किसी रसिक वैष्णव संत ने भोजन नहीं किया है । मैं सर्वश्रेष्ठ रसिक वैष्णव भक्त उसे मानता हूँ जिसे अपनी जाति, विद्या, ज्ञान आदि का बिल्कुल भी अहंकार न हो, जो अपने को दासों का दास मानता हो । यदि आप लोगों की यज्ञ को पूरा करने की इच्छा है तो ऐसे भक्त को लाकर भोजन कराइये ।’
भगवान की बात सुन कर युधिष्ऱ्ठिर बोले—‘ऐसा भगवद्भक्त तो हमारे नगर के आस-पास कहीं दिखाई नहीं देता है । ऐसा भक्त तो किसी दूसरे लोक में भले ही मिले ।’
भगवान ने कहा—‘नहीं, वह तुम्हारे नगर में ही रहता है, तुम्हारे यहां आता-जाता भी है, पर उसे कोई नहीं जानता; क्योंकि वह अपने को प्रकट नहीं करता और अपनी भक्ति को गुप्त रखता है ।’
यह सुन कर वहां उपस्थित सभी लोग आश्चर्यचकित हो गए और श्रीकृष्ण से उसका नाम बताने की जिद करने लगे ।
भगवान ने कहा—‘श्वपच भक्त वाल्मीकि के घर चले जाओ । वे सच्चे साधु हैं और अपनी भक्ति को गुप्त रखते हैं । पर सावधान रहना, भक्तों की भक्ति का भाव अत्यंत गंभीर होता है । उनको देख कर तुम्हारे मन में कोई विकार न आने पाये ।’
अर्जुन और भीमसेन ने श्वपच भक्त वाल्मीकि के घर पहुंच कर उन्हें दूसरे दिन भोजन पर आने का निमंत्रण दिया । भगवान श्रीकृष्ण ने द्रौपदी को अच्छी प्रकार से सिखाया कि तुम सभी प्रकार के षट् रस व्यंजन बनाओ । तुम्हारे हाथों की सफलता इसी में है कि एक भक्त के लिए तुम सुंदर रसोई तैयार करो ।
दूसरे दिन रसोई तैयार होने पर राजा युधिष्ठिर श्वपच भक्त वाल्मीकि को लिवा लाए । भक्त वाल्मीकि ने कहा—‘हमें बाहर ही बैठा कर भोजन करा दो ।’
भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा—‘इन्हें पाकशाला में बिठाकर ही भोजन कराओ ।’
द्रौपदी ने श्वपच भक्त वाल्मीकि के सामने षट् रस व्यंजन परोसे । वाल्मीकि जी ने सभी व्यंजनों को मिला कर एक कर लिया और भोजन करने लगे । जैसे ही प्रसाद का एक कौर लिया, शंख बज उठा; परंतु थोड़ी देर बज कर फिर बंद हो गया ।
तब भगवान ने शंख को एक छड़ी लगाते हुए पूछा—‘तुम कण-कण के भोजन करने पर ठीक से क्यों नहीं बज रहे हो ?’
शंख घबरा कर बोला—‘इसमें मेरा कोई दोष नहीं है, आप द्रौपदी के पास जाकर ही पूछिए ।’
भगवान ने जब द्रौपदी से पूछा तो उन्होंने खिसियाते हुए कहा—‘भक्त जी खट्ठे-मीठे सभी रसों के व्यंजनों को एक में मिला कर खा रहे हैं, इससे मेरी रसोई बनाने की कला धूल में मिल गई । अपनी पाक विद्या का इस प्रकार अनादर देख कर मेरे मन में भाव आया कि आखिर हैं तो ये श्वपच जाति के, ये व्यंजनों का स्वाद लेना क्या जानें ?’
भगवान श्रीकृष्ण ने श्वपच जी से सभी व्यंजनों को एक में मिला कर खाने का कारण पूछा ।
वाल्मीकि जी ने कहा—‘इन व्यंजनों का भोग तो आप पहले ही लगा चुके हैं, अत: ये अब व्यंजन न होकर मेरे लिए भगवान का प्रसाद हो गया है । अब इनको व्यंजन मान कर इनका अलग-अलग स्वाद कैसे लूं ? यदि इन्हें व्यंजन की दृष्टि से ग्रहण करुँ तो कोई पदार्थ स्वादिष्ट लगता है और कोई अरुचिकर; फिर इसमें प्रसाद-बुद्धि कहां रहेगी ? मैं तो प्रसाद का सेवन कर रहा हूँ, व्यंजनों को खा नहीं रहा हूँ ।’
यह सुनकर शंख जोर-जोर से बजने लगा और सभी लोग श्वपच भक्त वाल्मीकि की जय-जयकार करने लगे । राजा युधिष्ठिर का यज्ञ भी पूर्ण हो गया ।