गोधन गजधन बाजिधन और रतन धन खानि ।
जब आवै संतोषधन सब धन धूरि समान ।।
संसार की सभी धन-संपतियों में सबसे बड़ी संपत्ति संतोष है; क्योंकि जिसके पास संतोष है, वही सबसे बड़ा बादशाह है, बाकी तो सब फकीर हैं । लेकिन यह संतोष रूपी धन आता कहां से है और रहता किससे पास है । इसका उत्तर है—यह धन उसी के पास आता और रहता है जिसको इससे भी बड़ा धन ‘भगवान से प्रेम’ की प्राप्ति हो गई है । पारस से तो केवल सोना ही मिलता है; किन्तु ‘भगवान से प्रेम’ तो वह कल्पवृक्ष है; जिससे आप जो चाहेंगे, वह प्राप्त होगा । ऐसा कोई कार्य नहीं जो भगवत्प्रेम का आश्रय लेने पर न हो । मुक्ति चाहोगे, मुक्ति मिलेगी; परमानन्द चाहोगे, परमानन्द मिलेगा; व्रजरस चाहोगे व्रजरस मिलेगा और यदि केवल भगवान को चाहा तो वे भी प्रत्यक्ष प्रकट हो जाएंगे । संत नानकदेव ने भी यही कहा है कि जो उस परमात्मा से प्रेम करता है, वही उसे पा सकता है—‘जिन प्रेम कियो तिनहि हरि पायौ ।’
श्रीसनातन गोस्वामी के पास पारस था फिर भी उन्होंने इसे अपने पास नहीं रखा; बल्कि यह कहा कि अगर यह छू भी जाए तो उन्हें स्नान करना पड़ता है । लोगों ने सोचा अवश्य ही उनके पास पारस से भी अधिक कोई मूल्यवान वस्तु है ।’ श्रीसनातन गोस्वामी ने कहा—‘हां, पारस से भी बढ़कर श्रीकृष्णनाम रूपी कल्पवृक्ष मेरे पास है ।’
वैराग्य के अवतार : भक्त-दम्पत्ति श्रीराँकाजी और बाँकाजी
तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में ऐसे ही एक भक्त-दम्पत्ति हुए हैं; जिनके लिए धन धूलि (मिट्टी) के समान था ।
पण्ढरपुर में लक्ष्मीदत्त नाम के एक ब्राह्मण थे जो संतों की बड़ी सेवा किया करते थे । एक बार भगवान नारायण इनके घर संत रूप में पधारे और इनकी संत-सेवा से प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया कि ‘तुम्हारे यहां मेरे अंश से एक परम विरक्त भक्त पुत्र होगा ।’
भगवान के आशीर्वाद से संवत् १३४७ में लक्ष्मीदत्त के यहां राँकाजी पैदा हुए । पण्ढरपुर में ही हरिदेव ब्राह्मण के यहां संवत् १३५१ में एक कन्या का जन्म हुआ जिसका नाम बाँका रखा गया । बड़े होने पर राँकाजी और बाँकाजी का विवाह हो गया ।
राँका और बाँका नाम पड़ने का कारण
राँकाजी का ‘राँका’ नाम उनकी अत्यंत रंकता (कंगाली) व अत्यंत वैराग्य के कारण पड़ा और बाँकाजी का ‘बाँका’ नाम उनका पति से भी बढ़कर वैराग्य के कारण पड़ा ।
अशिक्षित व कंगाल होने के कारण संसार की दृष्टि में वे तुच्छ समझे जाते थे । इस कंगाली को पति-पत्नी भगवान की कृपा मानते थे; क्योंकि वे जानते थे कि भगवान अपने प्यारे भक्तों को सभी अनर्थों की जड धन से दूर रखते हैं । दोनों पति-पत्नी जंगल से सूखी लकड़ियां बीन कर लाते और उन्हें बेच कर जो भी पैसे मिलते, उसी से भगवान को प्रसाद लगा कर अपना जीवन-निर्वाह करते थे । वे कभी भी किसी का दिया हुआ नहीं लेते थे ।
मर जाऊं मांगू नहीं, अपने तन के काज ।
परमारथ के कारणे, मोहिं न आवे लाज ।।
‘राँकाजी और बाँकाजी जैसा भक्त होकर भी इतना दरिद्रता का कष्ट भोगे’—यह बात नामदेवजी को बहुत बुरी लगती थी । नामदेवजी ने भगवान विट्ठल से राँकाजी और बाँकाजी की दरिद्रता दूर करने की प्रार्थना की । भगवान ने कहा—‘राँका तो मेरा हृदय है, वह धन की तनिक की इच्छा करे तो उसे कोई अभाव नहीं रह सकता; परन्तु देने पर वह लेगा नहीं । यह बात तुम देखना चाहो तो कल सुबह वन के रास्ते में छिप कर देख लेना ।’
दूसरे दिन भगवान ने सोने की मुहरों से भरी थैली जंगल के उस रास्ते में बिखेर दीं जहां से राँकाजी अपनी पत्नी के साथ जंगल को जाया करते थे । भक्त-चरित देखने के लिए भगवान छिप कर खड़े हो गए ।
प्रात:काल का समय है, राँकाजी रोज की तरह कीर्तन करते हुए भगवत्प्रेम की मस्ती में चले जा रहे थे । उनकी पत्नी कुछ पीछे थीं । सहसा उनके पैर में ठोकर लगी । रुक कर देखा तो पाया कि मुहरों से भरी थैली रास्ते में पड़ी है । कुछ सोच कर वह उस पर हाथों से धूल डालने लगे । इतने में वहां उनकी पत्नी भी आ गईं और पूछने लगीं—‘आप ये क्या धूल से ढक रहे हैं ?’
राँकाजी ने कहा—‘यहां सोने की मुहरों की थैली पड़ी थी । मैंने सोचा कि तुम पीछे आ रही हो, कहीं सोना देखकर तुम्हारे मन में लोभ न आ जाए; इसलिए इसे धूल से ढक देता हूँ । धन का लोभ मन में आ जाए तो फिर भगवान का भजन नहीं होता है ।’
यह सुनकर परम वैराग्यवती बाँकाजी हंसती हुई बोलीं—‘सोना भी तो मिट्टी ही है, आप धूल से धूल को ढक रहे हैं ।’
राँकाजी ने प्रसन्न होकर कहा—‘तुम धन्य हो ! तुम्हारा ही वैराग्य बाँका है । मेरी बुद्धि में तो फिर भी सोने और मिट्टी में भेद था; परन्तु तुम मुझसे बहुत आगे बढ़ गई हो ।’ इस बांके वैराग्य के कारण ही उनका नाम ‘बाँका’ पड़ा ।
राँका-बाँका का वैराग्य देखकर नामदेवजी अपने-आप को तुच्छ मानने लगे और भगवान से बोले—‘जिस पर आपकी कृपा-दृष्टि होती है, उसे आपके सिवाय त्रिलोकी का राज्य भी नहीं सुहाता । जिसको अमृत का स्वाद मिल गया वह सड़े गुड़ की ओर क्यों ताकने लगा ? ये पति-पत्नी धन्य हैं ।’
जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु ।
बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु ।। (राचमा, अयोध्याकाण्ड, १३१)
अर्थात्—जिसका आपके प्रति स्वाभाविक प्रेम है, उसे और कुछ नहीं चाहिए । उनका हृदय ही आपका घर है, हे नाथ ! आप उसमें निवास कीजिए ।
उस दिन भगवान ने भक्तों की वैराग्य लीला से प्रसन्न होकर राँका-बाँका के लिए जंगल में सारी सूखी लकड़ियां एकत्र कर गट्ठर बांध कर रख दीं । पति-पत्नी ने देखा कि आज तो जंगल में कहीं भी लकड़ियां दिखाई नहीं देती हैं । लकड़ी के गट्ठरों को उन्होंने किसी दूसरे का समझा । दूसरे की वस्तु की ओर आंख उठाना भी पाप है—यह सोच कर दोनों खाली हाथ घर लौट आए ।
राँकाजी ने पत्नी से कहा—‘देखो, सोने को देखने का ही यह फल है कि आज उपवास करना पड़ा । यदि उसे छू लेते तो पता नहीं, कितना कष्ट उठाना पड़ता ।’
अपने भक्तों का ऐसा वैराग्य देखकर भगवान विट्ठल को दया आ गई और वह अपना देव-दुर्लभ रूप लेकर साक्षात् प्रकट हो गए ।
ऐसे ही भक्तों को दर्शन देने और उन पर कृपा करने के लिए भगवान पृथ्वी पर आते हैं । भगवान को आकर्षित करने वाला स्वभाव व्यक्ति को स्वयं अर्जित करना पड़ता है । इसके लिए उसे अपना सारा जीवन-क्रम ही बदल देना होता है । भगवान ने हमारा त्याग नहीं किया है बल्कि हम ही उनसे विमुख होकर संसार में भटक रहे हैं । यदि हम उनको अपना मानकर कुछ-एक गुणों को भी जीवन में उतार लें तो हम उनके प्रिय पात्र बन सकते हैं ।
चैतन्य महाप्रभु ने कहा है कि मनुष्य को भगवान से केवल शुद्ध भक्ति की ही याचना करनी चाहिए—
धन जन नाहिं माँगो कविता सुन्दरी ।
शुद्ध भक्ति देह मोरे कृष्ण कृपा करि ।।
अति दैन्य पुन: माँगो दास्य भक्ति दाना ।
आपनाके करे संसारी जीवन अभिमाने ।। (श्रीश्रीचैतन्य चरितामृत)