bhagwan vitthal

भगवान किसी भी मनुष्य के न तो शारीरिक सौंदर्य पर रीझते हैं और न ही आर्थिक वैभव पर; क्योंकि उनके समान दिव्य सौन्दर्य, दिव्य गुण और ऐश्वर्य संसार में किसी के पास नहीं है । वे तो केवल मनुष्य के हृदय के प्रेम को देखते हैं और उसी प्रेमडोर से बंध कर खिंचे चले आते हैं । भगवान अपने प्रेमियों की भीड़ में हर एक से मिलने के लिए, हर प्रेमी की प्रेम-पीड़ा शान्त करने के लिए प्रकट होकर सबसे मिलने चल पड़ते है । यह सब वह अपनों को अपनाने और उनकी संभाल करने के लिए करते हैं ।

यदि आप भी उनको बुलाना चाहते हैं या उसकी शरण में आना चाहते हैं तो अपने हृदय व जिह्वा पर उनके नाम लिख लीजिये । बहुत सरल और एक शब्द के हैं उनके नाम, जैसे—राम, कृष्ण, हरि, शिव आदि । यही उनके पते हैं चाहें जिस नाम से पुकारो, वह पुकार उनके पते पर पहुंच जाएगी । इससे आप जब चाहें उसको बुला सकते हैं या स्वयं उनके पास जा सकते हैं । 

गीता (८।१४) में भगवान श्रीकृष्ण का कथन है—‘हे अर्जुन ! जो पुरुष मुझमें अनन्यचित्त होकर सदा ही निरन्तर मेरा स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें युक्त हुए योगी के लिए मैं सुलभ हूँ, अर्थात् उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ ।’

रामहिं केवल प्रेमु पियारा

भगवान ने मनुष्य की रचना इसलिए की है कि वह उनसे प्रेम करे और वे उससे प्रेम करें । संसार की समस्त योनियों में एक मनुष्य ही ऐसा है जो भगवान से प्रेम कर सकता है । भगवान पतितपावन और दीनबंधु होने के कारण दीन-हीन और पतित से भी उतना ही प्यार करते हैं । भगवान उसी जीव से प्रेम करते हैं, जो उन पर विश्वास करके यह मान लेता है कि ‘मैं उनका हूँ, वे मेरे हैं’ । बस, इसके अतिरिक्त भगवान और कुछ नहीं चाहते हैं; इसीलिए परमात्मा का दूसरा नाम ही प्रेम है ।

गीता (९।२९) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—‘मैं सभी प्राणियों में समान रूप से व्यापक हूँ, न कोई मेरा अप्रिय है और न ही प्रिय है; परन्तु जो भक्त मुझको प्रेम से भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हूँ ।’ 

इसी तथ्य को दर्शाती एक भक्ति कथा है : भगवान विट्ठल और भक्त कूर्मदास ।

कूर्मदास की पुकार पर खिंचे चले आये भगवान विट्ठल

संत नामदेव के समय में महाराष्ट्र के पैठण में कूर्मदास नाम के एक ब्राह्मण रहते थे । जन्म से ही उनके हाथ-पैर नहीं थे । जहां कभी भी पड़े रहते और जो कोई भी जो कुछ खाने को दे देता, उसी में निर्वाह कर लेते थे । एक दिन पैठण में कथा हो रही थी । कूर्मदास पेट के बल रेंगते हुए कथा में पहुंचे । वहां उन्होंने पण्ढरपुर की आषाढ़ी-कार्तिकी यात्रा का माहात्म्य सुना । आषाढ़ शुक्ल पक्ष की विष्णुशयनी एकादशी और कार्तिक शुक्ल पक्ष की प्रबोधिनी एकादशी को लाखों भक्त पण्ढरपुर में भगवान विट्ठल का दर्शन करने के लिए जाते हैं । भगवान विट्ठल श्रीकृष्ण का ही अलौकिक रूप हैं ।

कार्तिकी एकादशी में अभी चार महीने हैं—ऐसा सोचकर कूर्मदास ने पेट के बल रेंगते हुए चलकर पण्ढरपुर पहुंचने का निश्चय किया । यह है उनका अटूट भगवत्प्रेम ।

वे उसी क्षण पण्ढरपुर के लिए चल पड़े परन्तु वे एक दिन में एक कोस से ज्यादा रेंग नहीं सकते थे । रात को वे कहीं रुक जाते और ईश्वर की कृपा से कोई-न-कोई उन्हें भोजन दे ही देता था । इस तरह चार महीने में वे लहुल नामक गांव में पहुंचे, जहां से पण्ढरपुर सात कोस दूर था । 

कार्तिकी एकादशी कल ही है और कूर्मदास किसी भी हालत में कल तक पण्ढरपुर पहुंच नहीं सकते थे । आषाढ़ी-कार्तिकी यात्रा पर जाने वाले झुण्ड के झुण्ड यात्री चले जा रहे थे । ‘जय विट्ठल जय विट्ठल’ की ध्वनि से सारा वातावरण गूंज रहा था । पर कूर्मदास लाचार थे । अपनी लाचारी पर रोते हुए कूर्मदास ने मन-ही-मन कहा—

‘क्या इस अभागे को भगवान के कल दर्शन नहीं होंगे ? मैं तो कल तक वहां पहुंच नहीं सकता पर क्या भगवान यहां तक नहीं आ सकते ? वे तो जो चाहें कर सकते हैं ।’

कूर्मदास को पण्ढरपुर न पहुंच पाने का अथाह दर्द है परन्तु भगवान पर उनका हिमालय जैसा अडिग विश्वास है । इसी विश्वास के बल पर उन्होंने भगवान को एक चिट्ठी लिखी—‘हे भगवन् ! यह बिना हाथ-पैर का आपका दास यहां पड़ा है, यह कल तक आपके पास नहीं पहुंच सकता । इसलिए आप ही दया करके यहां आवें और मुझे दर्शन दें ।’

भक्त का प्रेम भगवान के लिए महापाश है

यह चिट्ठी कूर्मदास ने एक यात्री के हाथ भगवान विट्ठल के पास भेज दी । दूसरे दिन एकादशी को दर्शन करते समय वह चिट्ठी उस व्यक्ति ने भगवान के चरणों में रख दी ।

उधर लहुल में कार्तिकी एकादशी के दिन कूर्मदास बड़ी विकलता से भगवान विट्ठल की प्रतीक्षा कर रहे थे और उन्हें जोर-जोर से आर्त-स्वर में पुकार रहे थे—‘भगवन् ! कब दर्शन दोगे ? अभी तक क्यों नहीं आये ? मैं तो आपका हूँ न ?’

तभी भक्तों के प्रेम के अधीन परम दयालु भगवान विट्ठल अपने तीन परम भक्तों—ज्ञानदेव, नामदेव और सांवता माली के साथ कूर्मदास के सामने आकर खड़े हो गये । कूर्मदास धन्य हो गये और अपलक भगवान को निहारते रह गये । जब चेत हुआ तो उन्होंने भगवान विट्ठल के चरण पकड़ लिए । तब से भगवान विट्ठल जब तक कूर्मदास वहां थे, वहीं रहे । वहां भगवान विट्ठलनाथ का मन्दिर है जो कूर्मदास पर भगवान के अनुग्रह का प्रतीक है ।

भगवान भक्त का ‘प्रेम’ ही चाहते हैं, बस प्रेम से उन्हें पुकारने, उनका नित्य स्मरण करने और उनके वियोग में विकल रहने की आवश्यकता है, उन्हें रीझते देर नहीं लगती, कोई ऐसे पुकार करके तो देखे । यदि मनुष्य उनसे सच्चा प्रेम करें, तो वे अवश्य उसके हो जायेंगे फिर उसका जीवन ही धन्य हो जायेगा ।

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