भक्त और भगवान में प्रेम का अटूट बंधन
भक्त और भगवान में अटूट प्रेम होता है। दोनों के प्रेम में अंतर यह है कि भक्त के प्रति भगवान का प्रेम आशीर्वाद के रूप में होता है जबकि भक्त का प्रेम भगवान में श्रद्धा-भक्ति के रूप में होता है। भगवान ने मनुष्य की रचना इसलिए की है कि वह मेरे से प्रेम करे और मैं उससे प्रेम करुँ। अर्थात् भगवान ने मनुष्य को अपना दास नहीं वरन् अपने समान सखा बनाया है।
नररूप अर्जुन और नारायणरूप श्रीकृष्ण के ऐसे ही प्रेम के दर्शन गीता (१८।६४) में होते हैं, जहां श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं—‘अर्जुन! तू मुझे बहुत अधिक प्रिय है। मैं तुझे गोपनीय-से-गोपनीय बात बता रहा हूँ। तेरे हित की बात में तुझसे कहूंगा।’
खाण्डववन का दाह कर चुकने के बाद इन्द्र ने जब अर्जुन से वर मांगने के लिए कहा तब अर्जुन ने उनसे अनेक शस्त्र मांग लिए। इन्द्र ने भगवान श्रीकृष्ण से भी कुछ मांगने के लिए कहा तब भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि—‘मेरा अर्जुन के साथ निरन्तर प्रेम बना रहे।’
श्रीकृष्ण और अर्जुन : एक ही आत्मा के दो रूप
महाभारत के उद्योगपर्व में पितामह भीष्म कहते हैं—‘श्रीकृष्ण नारायण हैं और अर्जुन नर हैं। एक ही आत्मा दो रूपों में प्रकट हुए हैं।’
पाण्डवों के राजसूययज्ञ में श्रीकृष्ण और अर्जुन की मित्रता के सम्बन्ध में दुर्योधन ने अपने पिता धृतराष्ट्र से कहा—‘श्रीकृष्ण अर्जुन की आत्मा हैं और अर्जुन श्रीकृष्ण की आत्मा हैं। अर्जुन श्रीकृष्ण को जो कुछ करने को कहते हैं, श्रीकृष्ण निस्संदेह वही सब करते हैं। श्रीकृष्ण अर्जुन के लिए दिव्यलोक का त्याग कर सकते हैं और अर्जुन भी श्रीकृष्ण के लिए प्राणत्याग कर सकते हैं।’
भगवान श्रीकृष्ण महाभारतरूपी नाटक के सूत्रधार, पाण्डवों के सखा और पथप्रदर्शक थे। अर्जुन के जीवन में कई बार कठिनाइयां आयीं और श्रीकृष्ण ने हर बार सहायता करके ‘आपत्सु मित्रं जानीयात्’—‘आपत्ति में ही मित्र की पहचान होती है’—इस वाक्य को सही सिद्ध किया। श्रीकृष्ण हर तरह से अर्जुन को बचाने और जिताने के लिए सचेत रहे। श्रीकृष्ण ने अर्जुन के बहाने संसार को यह उपदेश दिया कि मनुष्य परमात्मा को अपने जीवन का सेनापति बनाये और अपने को एक साधारण सिपाही मानकर जो कुछ भी कर्म करे, उसे उसी की आज्ञा पालन समझे। यही परम शान्ति और सुख देने वाला है।
भक्त की चोट भी सहते हैं भगवान
भगवान को केवल भक्त का प्रेम प्यारा है; महाभारत के द्रोणपर्व की एक सुन्दर कथा है—
अर्जुन के बाणों से घायल होकर प्राग्ज्योतिषपुर के राजा भगदत्त ने वैष्णवास्त्र नामक अभेद्य अस्त्र अर्जुन की छाती को लक्ष्य करके छोड़ दिया। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ओट करके स्वयं ही वह अस्त्र अपनी छाती पर सह लिया। भगवान श्रीकृष्ण की छाती पर आकर वह अस्त्र वैजयन्तीमाला के रूप में परिवर्तित हो गया। वैजयन्तीमाला में कमलपुष्प के साथ सभी ऋतुओं के पुष्प गुंथे हुए थे और यह सूर्य और चन्द्रमा के समान ज्योतिष्मान थी। शत्रुओं को भय प्रदान करने वाले पार्थसारथि श्रीकृष्ण उस वैजयन्तीमाला को धारण करके और भी अधिक सुन्दर लगने लगे मानो सूर्यरश्मियों का हार उनके कण्ठ की शोभा बढ़ा रहा हो।
अर्जुन को यह देखकर बहुत दु:ख हुआ कि श्रीकृष्ण ने वैष्णवास्त्र की चोट मेरी जगह अपनी छाती पर सहन कर ली। पार्थ ने श्रीकृष्ण से कहा—‘कमलनयन! आपने तो प्रतिज्ञा की थी कि मैं युद्ध न करके केवल अश्वों को काबू में करुंगा, केवल सारथि का काम करुंगा; किन्तु आप अपनी प्रतिज्ञा का पालन नहीं कर रहे। जब मैं युद्ध कर रहा हूँ तब आपको ऐसा नहीं करना चाहिए।’
भगवान श्रीकृष्ण के हैं चार स्वरूप
भगवान श्रीकृष्ण ने तब अर्जुन को गोपनीय रहस्य बताते हुए कहा—‘हे अर्जुन! समस्त सृष्टि का आदिकारण मैं ही हूँ। संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं जो मुझसे रहित हो। जगत में जहां-जहां वैभव, तेज, लक्ष्मी दीखती है, वह सब मेरी विभूति का अंश समझो। समस्त ब्रह्माण्ड को मेरे एक अंश ने घेर रखा है (गीता १०। ३९-४१-४२)।’
‘मैं चार स्वरूप धारण करके सदैव समस्त लोकों की रक्षा करता रहता हूँ—
—मेरी एक मूर्ति इस भूमण्डल पर बदरिकाश्रम में नर-नारायणरूप में तपस्या में लीन रहती है।
—दूसरी परमात्मारूप मूर्ति अच्छे-बुरे कर्म करने वाले जगत को साक्षीरूप में देखती रहती है।
—तीसरी मूर्ति मनुष्यलोक में अवतरित होकर नाना प्रकार के कर्म करती है।
—चौथी मूर्ति (विष्णु) सहस्त्रों युगों तक एकार्णव (क्षीरसागर) के जल में शयन करती है। जब मेरा चौथा स्वरूप योगनिद्रा से उठता है, तब भक्तों को अनेक प्रकार के वर प्रदान करता है।
भगवान विष्णु ने दिया नरकासुर को वैष्णवास्त्र
एक बार भूदेवी ने भगवान से वर मांगा कि मेरे पुत्र नरकासुर को वैष्णवास्त्र प्रदान कीजिए जिससे सुर-असुर दोनों ही उसे न मार सकें। भगवान ने नरकासुर को अपना अमोघ अस्त्र प्रदान कर दिया। नरकासुर ने यह अस्त्र भगदत्त को दे दिया। यह अस्त्र इन्द्र और रुद्र तक का वध कर सकता था। यह वही अस्त्र था जिसे भगदत्त ने अर्जुन पर फेंका था।
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा—‘मैंने तुम्हारी रक्षा के लिए ही इस अस्त्र को वैजयन्तीमाला में परिवर्तित कर दिया। तीनों लोकों में कोई भी ऐसा वीर नहीं है जो इस अस्त्र को काट सके।’ अत: भगवान ने इसे स्वयं ग्रहणकर व्यर्थ कर दिया।
सच्चे प्रेम का यही स्वरूप है कि उसके निमित्त कष्ट सहने में भी परम आनन्द का अनुभव होता है।
दोनों ओर प्रेम पलता है,
सखि, पतंगा तो जलता ही है,
दीपक भी जलता है।। (श्रीमैथिलीशरणजी गुप्त)
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