‘मोतें संत अधिक करि लेखा’—श्री रामचरितमानस की इस पंक्ति का अर्थ है कि वास्तव में जो काम कई बार भगवान से नहीं हो पाता, वही काम संत की कृपा से हो जाता है । श्री रामचरितमानस के अरण्य काण्ड में भगवान श्रीराम ने शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश करते हुए कहा है—
सातवँ सम मोहि मय जग देखा ।
मोतें संत अधिक करि लेखा ॥
आठवँ जथालाभ संतोषा ।
सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा ॥
अर्थात् सातवीं भक्ति है—संसार को मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना । आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना ।
प्रश्न यह है कि क्या संत को भगवान से अधिक मानना चाहिए ? इसका उत्तर रामचरितमानस के सीता जी और जयंत के प्रसंग से स्पष्ट समझा जा सकता है—
वनवास के समय प्रभु श्रीराम, जानकी जी व लक्ष्मण जी सहित चित्रकूट में निवास कर रहे थे । एक दिन लक्ष्मण जी फूल चुन लाए । प्रभु श्रीराम ने स्वयं अपने हाथों से माला बना कर जानकी जी का श्रृंगार किया । यह देख कर देवराज इंद्र के पुत्र जयंत को भ्रम हो गया कि ये भगवान हैं या कोई राजकुमार ? श्रीराम की शक्ति की परीक्षा करने के लिए वह एक कौए का रूप धारण करके वहां आया और जानकी जी के चरण में जोर से चोंच मारी और भागने लगा । चोंच के प्रहार से जानकी जी के पैर से रक्त बहने लगा ।
सीता चरन चोंच हति भागा ।
मूढ़ मंदगति कारण कागा ।। (मानस, अरण्य काण्ड १।७)
प्रभु श्रीराम ने जमीन पर पड़े एक सींक को उठाया और उसे ब्रह्मास्त्र से अभिमंत्रित कर कौए के पीछे लगा दिया । जयंत भाग कर अपने पिता इंद्र के पास गया; परंतु इंद्र ने देखा कि प्रभु श्रीराम का बाण जयंत के पीछे लगा है । अत: उन्होंने मना कर दिया कि यहां तेरी रक्षा नहीं हो सकेगी ।
जयंत रक्षा के लिए ब्रह्मा, शंकर आदि सभी देवताओं के पास गया, किंतु—
काहुँ बैठन कहा न ओही
राखि कोसकइ राम कर द्रोही ।। (मानस, अरण्य काण्ड २-५)
भगवान से द्रोह रखने वाले को कौन शरण दे सकता है ? किसी ने भी उसकी सहायता नहीं की ।
वास्तव में जो काम कई बार भगवान से नहीं हो पाता, वही काम संत की कृपा से हो जाता है । नारद जी ने देखा कि जयंत व्याकुल होकर भाग रहा है । ‘संत हृदय नवनीत समाना’—संत का हृदय मक्खन की तरह कोमल होता है । नारद जी ने जयंत को रुकने को कहा ।
जयंत ने भागते हुए ही कहा—‘आप देख नहीं रहे हैं कि मृत्यु मेरे पीछे लगी है । यह बाण मेरे प्राण लेकर रहेगा; क्योंकि त्रिलोकी में मेरी रक्षा करने वाला कोई नहीं है । मेरे पिता ने भी सहायता करने से मना कर दिया है । अब मैं कहां जाऊं, क्या करुँ, मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा है ?’
जयंत भाग रहा था और उससे वार्तालाप तभी संभव था जब नारदजी भी उसके साथ भागते । सो नारद जी भी उसके संग दौड़ने लगे । यह थी संत के हृदय की करुणा !
नारद जी ने दौड़ते-दौड़ते जयंत से पूछा—‘जब यह बाण तेरे पीछे लगा था, तब यह कितनी दूर था ?’
जयंत बोला—‘लगभग तीन फीट दूर था ।’
नारद जी ने कहा—‘अब कितनी दूर है ?’
जयंत ने कहा—‘अब भी तीन फीट दूर है ।’
नारद जी ने कहा—‘यदि इस बाण को तुझे मारना होता, तो यह तुझे कब का मार चुका होता । तू अपने पिता के घर गया, ब्रह्मा जी के घर गया, शंकर जी के घर गया । सब जगह रुक कर तुमने सहायता मांगी, तो यह भी रुका रहा । फिर जब तू दोबारा भागा तो यह तेरे पीछे लग गया ।’
जयंत ने कहा—‘नारद जी आप सही कह रहे हैं; लेकिन जब इसे मुझे मारना ही नहीं है तो यह मेरे पीछे क्यों लगा है ?’
नारद जी ने जयंत को समझाते हुए कहा—‘तू प्रभु श्रीराम का शक्ति-परीक्षण करना चाहता था, उनका बल देखना चाहता था । उन्होंने तुझे अपनी शक्ति दिखा दी कि उनसे द्रोह करने वाले की त्रिलोकी में कोई सहायता नहीं कर सकता । यह बाण तब तक तेरा पीछा नहीं छोड़ेगा, जब तक तू लौट कर उनके चरणों में गिर कर क्षमा नहीं मांगेगा । यह उनकी कृपा का बाण है जो तुझे त्रिलोकी में घुमा कर उनके चरणों नें ले जाएगा ।’
जयंत ने कहा—‘अब मैं किस मुंह से उनके पास जाऊँ ? प्रभु माता जानकी के पास बैठे थे और मैंने उसमें व्यवधान डाल दिया । मैंने जानकी जी के चरण पर इतनी जोर से चोंच का प्रहार किया कि उससे रक्त बहने लगा । अब मैं वहां जाकर उनसे क्या कहूंगा ?’
नारद जी ने कहा—‘मैं तुझे एक उपाय बताता हूँ । तू जाकर उनके चरणों में साष्टांग प्रणाम करते हुए कहना—‘त्राहि माम ! त्राहि माम ! और जब वो तुझसे पूछें कि यहां क्या करने आए हो तो कह देना कि पहले मैं आपका प्रभाव (शक्ति) देखने आया था, वह मैंने देख ली, अब मैं आपका स्वभाव देखने आया हूँ ।’
नारद जी की बात गांठ बांध कर जयंत चित्रकूट पहुंचा । लेकिन वह इतना भयभीत था कि प्रभु के चरणोॉ में सीधा गिरने के बजाय उलटा गिर गया अर्थात् सिर होना चाहिए था श्रीराम के चरणों में जबकि वह पैर प्रभु की तरफ करके गिर गया ।
जिन मां जानकी का जयंत ने अपराध किया था उन्होंने ही जयंत को उठाकर श्रीराम के चरणों में सीधा किया; क्योंकि माता कुमाता नहीं होती, पुत्र भले ही कुपुत्र हो जाए ।
जयंत ने जानकी जी का अपराध किया था; इसलिए श्रीराम ने उसकी एक आंख फोड़ कर क्षमा कर दिया । जयंत ने भगवान का अपराध किया होता तो प्रभु उसे माफ कर देते । लेकिन अपने भक्तों का अपराध भगवान को सहन नहीं है; इसलिए भगवान ने आधा दंड दिया और आधा माफ कर दिया । जयंत को बचाने वाले भगवान नहीं, संत नारद जी थे ।
संसार में सच्चे संतों का स्थान सबसे ऊंचा है । भगवान के प्रेमी संतों की जिम्मेदारी भगवान पर होती है; इसलिए जिसने संत को अपना हाथ पकड़ा दिया और जिसे संत ने स्वीकार कर लिया, मानो उसके हाथ भगवान ने पकड़ लिए । सच्चे संत किसी का भार अपने ऊपर लेने पर छोड़ते नहीं, छुड़ाने पर भी नहीं छोड़ते । संत के रूप में भगवान बोलते हैं ।