भारतीय संस्कृति में स्वयं को बड़ा नहीं माना जाता, बल्कि दूसरों को बड़ा और आदरणीय मानने की परम्परा रही है । अभिमान, घमण्ड, दर्प, दम्भ और अहंकार ही सभी दु:खों व बुराइयों का कारण है । जैसे ही मनुष्य के हृदय में जरा-सा भी अभिमान आता है, उसके अन्दर दुर्गुण आ जाते हैं और वह उद्दण्ड व अत्याचारी बन जाता है । लंकापति रावण चारों वेदों का ज्ञाता, अत्यन्त पराक्रमी और भगवान शिव का अनन्य भक्त होते हुए भी अभिमानी होने के कारण किष्किन्धा नरेश बाली से अपमानजनक पराजय को प्राप्त हुआ । परमात्मा भी विनम्र व्यक्ति से ही प्रसन्न होते हैं–
लघुता से प्रभुता मिलै, प्रभुता से प्रभु दूर ।
चींटी शक्कर लै चली हाथी के सिर धूर ।।
अहंकारी रावण का पतन
रामायण में एक प्रसंग है—एक बार जब बाली संध्यावंदन के लिए जा रहा था तो आकाशमार्ग से नारद मुनि जा रहे थे । बाली ने नारद मुनि का अभिवादन कर पूछा—‘मुनिवर कहां जा रहे हैं ?’
नारद मुनि ने बाली को बताया कि वह लंका जा रहे हैं । वहां लंकापति रावण ने देवराज इन्द्र को परास्त करने के उपलक्ष्य में भोज का आयोजन किया है ।’
सर्वज्ञाता नारद मुनि ने बाली से चुटकी लेते हुए कहा—‘अब तो पूरे ब्रह्माण्ड में केवल रावण का ही आधिपत्य है और सारे प्राणी, यहाँ तक कि देवतागण भी उसे ही शीश नवाते हैं ।’
बाली ने नारद मुनि से कहा—‘रावण ने अपने वरदान और अपनी सेना का इस्तेमाल उन लोगों को दबाने में किया है जो निर्बल हैं; लेकिन मैं उनमें से नहीं हूँ और आप यह बात रावण को स्पष्ट बता दें ।’
चंचल स्वभाव नारद मुनि ने यह बात रावण को जा कर बता दी, जिसे सुनकर रावण क्रोधित हो गया । अहंकारी व्यक्ति सदैव अपनी ही प्रशंसा करता है । दूसरे लोग चाहे कितने ही बड़े क्यों न हों, उसे अपने से बौने ही लगा करते हैं । इस तरह अहंकार व्यक्ति के अज्ञान और मूर्खता का परिचायक है ।
रावण ने अपनी सेना तैयार करने के आदेश दे डाले । नारद जी ने उससे भी चुटकी लेते हुये कहा—‘एक वानर के लिए यदि आप पूरी सेना लेकर जायेंगे तो आपके सम्मान के लिए यह उचित नहीं होगा ।’
घमंड में चूर रावण तुरन्त मान गया और अपने पुष्पक विमान में बैठकर किष्किन्धा में वहां पहुंच गया, जहां बाली संध्यावंदन कर रहा था । रावण के बार-बार ललकारने से बाली की पूजा में विघ्न उत्पन्न हो रहा था । बाली के पहरेदारों ने रावण को रोकने का बहुत प्रयास किया; लेकिन वह बाली के पूजा-कक्ष तक पहुंच गया । वहां बाली की स्वर्णमयी कांति देखकर रावण घबड़ा गया । उसने बाली पर पीछे से वार करने की चेष्टा की ।
शक्तिशाली बाली पूजा में तल्लीन था; लेकिन उसने राक्षसराज रावण को नन्हे से कीड़े की भांति अपनी पूँछ से पकड़कर और उसका सिर अपने बगल में दबा दिया । शक्तिशाली बाली ने रावण को अपनी बगल में छह महीने तक दबाए रखा । फिर बाली ने रावण को खिलौने की तरह खेलने के लिए अपने पुत्र अंगद को दे दिया । अंगद ने रावण के गले में रस्सी बाँधकर उसे नगर में घुमाना शुरु कर दिया । बाली-पुत्र अंगद ने ऐसा इसलिए किया कि संपूर्ण विश्व के प्राणी रावण को इस असहाय अवस्था में देखें और उनके मन से उसका भय निकल जाए ।
अधिक गर्व करने से देव, दानव, मनुष्य सभी का नाश होता है
संसार को जीतने वाले रावण की यह दशा देखकर नगर के लोग उस पर हंसते हुए कटाक्ष करने लगे—‘जरा देखो तो सही, यह विश्व-विजेता रावण आज राजकुमार अंगद द्वारा सड़कों पर घुमाया जा रहा है ।’
नगरवासियों की बातें सुनकर रावण शर्मिंदा होकर लम्बे-लम्बे सांस लेने लगा । बगल में दबे रहने से रावण का दम घुटने लगा । उसका घमण्ड चूर-चूर हो गया । उसने अपने नाना पुलस्त्य मुनि को याद किया । अपने दौहित्र की दीन पुकार सुनकर पुलस्त्य मुनि को अचम्भा हुआ कि रावण की ऐसी दशा क्यों हुई ?
इसके पश्चात् पुलस्त्य ऋषि के कहने पर रावण ने अपनी पराजय स्वीकार की और बाली की ओर मैत्री का हाथ बढ़ाया जिसे बाली ने स्वीकार कर लिया ।
बाली के अजेय होने का कारण
बाली देवराज इंद्र के अंश से उत्पन्न अत्यंत पराक्रमी किष्किन्धा के राजा थे । वे ब्राह्मण और गौओं के भक्त थे । प्रतिदिन संध्या, पूजन और देवाराधन करने का उनका नियम था । ऐसा कहा जाता है कि बाली को उनके पिता इन्द्र से एक स्वर्ण हार प्राप्त हुआ जिसको ब्रह्मा ने मंत्रयुक्त करके यह वरदान दिया था कि इसको पहनकर वह जब भी रणभूमि में अपने दुश्मन का सामना करेगा तो उसके दुश्मन की आधी शक्ति क्षीण हो जायेगी और बाली को प्राप्त हो जायेगी । इस कारण से बाली लगभग अजेय था ।
रामायण के किष्किन्धाकाण्ड में यह भी उल्लेख आता है कि बाली प्रतिदिन सूर्य को जल चढ़ाने पूर्व तट से पश्चिम तट और उत्तर से दक्षिण तटों में जाते थे । रास्ते में आई पहाड़ों की चोटियों को वह ऐसे ऊपर फेंकते थे और पुनः पकड़ लेता थे; मानो वह कोई गेंद हों । प्रतिदिन पूजन के बाद बाली चारों महासमंदरों की परिक्रमा करके सूर्य को अर्घ्य अर्पित करता था। उसने रावण को बगल में दबाकर ही समुंदरों की परिक्रमा पूरी की। इसके पश्चात् भी जब वह सूर्य वंदना करके लौटते थे तो उन्हें थकावट भी नहीं होती थी ।
भक्ति में अहंकार भक्ति को तामसी कर देता है । जो लोग यह हठ करते हैं कि हम ही सही हैं, ईश्वर उनको छोड़ देता है; क्योंकि भगवान को गर्व-अहंकार बिल्कुल भी नहीं सुहाता है ।
तब तक ही हरिवास है, जब तक दूर गरूर ।
आवत पास गरुर के, प्रभु हो जावें दूर ।।