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जिस प्रकार परमात्मा श्रीकृष्ण का नाम-स्वरूप श्रीमद्भागवत है; उसी प्रकार रामायण और श्री रामचरितमानस प्रभु श्रीराम का वांग्मय-स्वरूप हैं । श्री रामचरितमानस में सात काण्ड हैं और प्रत्येक काण्ड प्रभु श्रीराम का एक-एक अंग है । जैसे—

१. बाल काण्ड श्रीराम का चरण है ।

२. अयोध्या काण्ड श्रीराम की जंघा हैं ।

३. अरण्य काण्ड श्रीराम का उदर है ।

४. किष्किंधा काण्ड श्रीराम का हृदय है ।

५. सुंदर काण्ड श्रीराम का कण्ठ है ।

६. लंका काण्ड श्रीराम का मुख है ।

७. उत्तर काण्ड श्रीराम का मस्तक है ।

श्री रामचरितमानस मनुष्य की सबसे बड़ी मार्गदर्शक है । इसके सात काण्ड मनुष्य को अनमोल शिक्षा देकर उसकी सभी प्रकार की उन्नति कराने वाले सोपान हैं । गोस्वामी तुलसीदास जी ने सात काण्डों को ‘सोपान’ कहा है; क्योंकि ये राम जी के चरणों तक पहुंचने की सीढ़ियां हैं ।

बाल काण्ड—श्री रामचरितमानस का प्रथम काण्ड ‘बाल काण्ड’ है । ‘बाल’ का अर्थ है बालक । मन, वाणी और क्रिया—तीनों जिसकी एक हैं, उसको बालक कहते हैं । बालक के मन में जो होता है, वह वही बोलता है, और जो वो बोलता है, वही करता भी है । कहा जाता है ‘बच्चे मन के सच्चे’ अर्थात् बच्चों के अंदर अभिमान, छल-कपट, वैर आदि नहीं होता है । वे निर्दोष, भोले-भाले होते हैं । जिस मनुष्य का हृदय बालक की तरह निर्दोष और निर्विकारी होता है, उसको ही श्रीराम मिलते हैं । वही मनुष्य प्रभु श्रीराम के वास्तविक स्वरूप को पहचान सकता है । जिसका मन बालक जैसा शुद्ध होता है, उसी का तन अयोध्या होता है अर्थात् उसी के हृदय में भगवान प्रकट होते हैं । यह निर्विकारिता संयम और ब्रह्मचर्य का पालन करने से आती है । इस प्रकार बाल काण्ड शिक्षा देता है कि प्रपंच, दंभ, वैर छोड़ कर बालक के समान बनिए ।

अयोध्या काण्ड—श्री रामचरितमानस का द्वितीय काण्ड ‘अयोध्या काण्ड’ है । अयोध्या का अर्थ है—अ + युद्ध अर्थात् जहां ईर्ष्या, वैर आदि किसी प्रकार का युद्ध नहीं है । रामचरितमानस के सात काण्डों में से छ: में युद्ध की कथा है; केवल अयोध्या काण्ड ही ऐसा है, जहां किसी युद्ध की कथा नहीं है । अयोध्या काण्ड में श्रीराम का भरत-प्रेम और सौतेली माता कैकेई के प्रति प्रेम देखने को मिलता है । 

जब कैकेई ने कहा कि उसने भरत को अयोध्या का राज्य और राम को चौदह वर्ष का वनवास दिया है तो श्रीराम कहते हैं—‘माता, यदि मेरा भाई इसी में सुख पा सकता है तो मुझे वनवास स्वीकार्य है । मेरी तो यही भावना है कि मेरा भाई सुखी रहे ।’  श्रीराम ने हंसते हुए वनगमन कर समाज के लिए अलौकिक आदर्श स्थापित किया । भरत का श्रीराम के लिए भातृ-प्रेम भी अति दिव्य है । मेरे बड़े भाई वन की धूल छानते हैं, कंद-मूल खाते हैं, गर्मी-सर्दी का कष्ट सहन करते हैं; इसलिए उन्होंने राज्य स्वीकार नहीं किया ।

आनंद रामायण में कहा गया है जो मनुष्य नित्य अयोध्या काण्ड का पाठ करता है, उसका घर अयोध्या बनता है अर्थात् उसके घर में लड़ाई-झगड़े, कलह-क्लेश नहीं होते हैं । संसार के एक भी प्राणी के प्रति मन में कुभाव आए तो द्वेष पनपता है । इससे भक्ति में विघ्न आता है ।  अयोध्या काण्ड मनुष्य को किसी से भी वैर न करना और सबसे प्रेम करना सिखाता है; जो अपने घर को अयोध्या बनाता है, वहां राम जी निवास करते हैं । इसलिए इस काण्ड का पाठ करना गृहस्थों के लिए बहुत लाभदायक है ।

अरण्य काण्ड—श्री रामचरितमानस का तृतीय काण्ड ‘अरण्य काण्ड’ है । गृहस्थ का घर भोग-भूमि है, जहां काम के परमाणु रहते हैं । घर में रह कर वासना का पूरी तरह विनाश करना कठिन है । घर में रहना चाहिए; किंतु मन में घर नहीं रहना चाहिए । यह बात सदैव याद रखें कि यह घर एक मुसाफिरखाना है जहां थोड़े समय रह कर हमें भगवान के चरणों में जाना है । 

प्रभु श्रीराम और सीताजी ने वन में रह कर तप किया, तभी वे राजा राम बने । अरण्य काण्ड की शिक्षा है कि वनवास के बिना जीवन में सुवास नहीं आती है । तप और संयम से ही जीवन में दिव्यता आती है । तप के बिना वासना नष्ट नहीं होती है । इसलिए थोड़े समय के लिए किसी तीर्थ में जाकर संयमपूर्ण जीवन बिताना चाहिए । संयमपूर्ण जीवन ही तप है । 

मनुष्य को सबसे पहले जीभ पर संयम रखना चाहिए । सात्विक आहार के बिना काम-वासना का नाश संभव नहीं है । प्रभु श्रीराम ने वन में अन्न का आहार न लेकर केवल कंद-मूल व फल का सेवन किया । श्रीफल से बने पात्र में ही जल का पान किया । इस तरह श्रीराम निर्विकारी रहे । अरण्यकाण्ड में सूपर्णखा और शबरी भी है । सूपर्णखा मोह का प्रतीक है । इससे भगवान ने शिक्षा दी कि मैं मोह (वासना) की ओर नहीं देखता हूँ । भक्ति की प्रतीक शबरी की ओर भगवान खिचे चले आते हैं । इसलिए मनुष्य को मोह का नाश करके शुद्ध भक्ति और सादा भोजन, सादा जीवन को जीवन में अपनाना चाहिए ।

किष्किंधा काण्ड—श्री रामचरितमानस का चतुर्थ काण्ड ‘किष्किंधा काण्ड’ है । किष्किंधा काण्ड में सुग्रीव (जीव) और श्रीराम (भगवान) की मैत्री का वर्णन है । सुग्रीव ने काम का त्याग किया तभी उसका परमात्मा से मिलन हो पाया । जीव और परमात्मा का मिलन तभी संभव है जब ब्रह्मचर्य और संयम (हनुमान जी) मध्यस्थता करें । हनुमान जी के कारण ही सुग्रीव को श्रीराम अपनाते हैं । इस काण्ड की शिक्षा है कि काम से मित्रता छोड़ने पर ही राम से मैत्री होगी ।

सुंदर काण्ड—श्री रामचरितमानस का पंचम काण्ड ‘सुंदर काण्ड’ है । श्रीमद्भागवत में जो स्थान दशम स्कन्ध का है, वही स्थान श्री रामचरितमानस में सुंदर काण्ड का है । इस काण्ड में हनुमान जी की कथा है । हनुमान जी का जीवन श्रीराम-भक्ति और सेवा के लिए है । 

सुंदर काण्ड की शिक्षा है कि जो जीवन परमात्मा की सेवा व स्मरण व परोपकार के लिए है, वही सुंदर है । जीवन को सुंदर बनाना है तो उसे भक्तिमय बनाओ । सुंदर काण्ड में हनुमानजी को सीताजी के दर्शन हुए है । सीताजी पराभक्ति हैं । संसार-समुद्र को पार करने वाले को ही सीताजी के दर्शन होते हैं । अकेले हनुमानजी ही ब्रह्मचर्य और राम-नाम की शक्ति के बल पर संसार-समुद्र को पार करते हैं । मार्ग में सुरसा बाधा डालने आ पहुंचती है । सुरसा का अर्थ है अच्छे-अच्छे रस । मनुष्य की जीभ ही सुरसा है जो उसे नए-नए रसों (सुस्वादु भोजन) में उलझाए रहती है । इसलिए जो मनुष्य इस संसार-समुद्र को पार कर पराभक्ति प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें अपनी जीभ को वश में करना होगा ।

लंका शब्द को उल्टा करने पर होता है ‘कालं’ । हनुमानजी ने ब्रह्मचर्य की शक्ति से समुद्र पार किया और  अशोक वाटिका में पराभक्ति के दर्शन किए । काल सभी को मारता है; परंतु हनुमान जी काल (लंका) को ही जला देते हैं ।

लंकाकाण्ड—श्री रामचरितमानस का छठा काण्ड ‘लंका काण्ड’ है । इसे ‘युद्ध काण्ड’ भी कहते हैं; क्योंकि इसमें राम और राक्षसराज रावण का युद्ध है । जो दूसरों को रुलाता है, वह राक्षस है । मनुष्य के जीवन में काम, क्रोध, लोभ राक्षस हैं जो मनुष्य को रुलाते हैं । जीवन में जब भक्ति प्रवेश कर जाती है; तो इन राक्षसों का स्वत: नाश हो जाता है । अत: इस काण्ड की यही शिक्षा है कि जीवन को भक्तिमय बनाओ तो काम, क्रोध, लोभ रूपी सभी रावणों और राक्षसों का नाश हो जाएगा ।

उत्तर काण्ड—श्री रामचरितमानस का सातवां काण्ड ‘उत्तर काण्ड’ है । इस काण्ड में सभी शास्त्रों का सार-तत्त्व है । जीवन के पूर्वार्ध (यौवनावस्था) में जो रावण को मारता है, उसका उत्तरार्ध (वृद्धावस्था) सुंदर बनता है; इसलिए जीवन को सुधारने का प्रयत्न युवावस्था से ही करना चाहिए । यही मुक्ति की सीढ़ी है ।

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