भगवान शंकर और श्रीराम जी में अनन्य प्रेम है । जब-जब भगवान पृथ्वी पर अवतरित होते हैं, तब-तब भोले-भण्डारी भी अपने आराध्य की मनमोहिनी लीला के दर्शन के लिए पृथ्वी पर उपस्थित हो जाते हैं । भगवान शंकर एक अंश से अपने आराध्य की लीला में सहयोग करते हैं और दूसरे रूप में उनकी लीलाओं को देख कर मन-ही-मन प्रसन्न होते हैं ।
श्रीरामावतार में भगवान शंकर अपने आराध्य के बालरूप के दर्शन के लिए श्रीकाकभुशुण्डि के साथ वृद्ध ज्योतिषी के रूप में अयोध्या पधारे थे । श्रीकृष्णावतार में भोलेबाबा बालकृष्ण के दर्शन के लिए जोगी वेष में गोकुल पधारे । आदिशक्ति सीता जी ने जब जनकनन्दनी के रूप में सुनयना जी के अंक में जन्म लिया तो मिथिला के जन-जन में उत्साह छा गया । मिथिलापुरी में नित नूतन महोत्सव होने लगे । उस समय भी शंकर जी तांत्रिकाचार्य बन कर जनकलली के दर्शन के लिए मिथिला आए थे ।
जनकलली (जानकी जी) की रुदन लीला के दर्शन के लिए भगवान शंकर के मिथिला आगमन का बहुत सुंदर वर्णन ‘‘जानकी चरितामृतम्’ में किया गया है ।
जनकलली की रुदन लीला
आज मिथिला में राजा जनक के महल में बड़ी बैचेनी छाई हुई है । आज जनकलली का रोना ही बंद नहीं हो रहा है । कभी वे आंखें बंद कर लेती हैं तो कभी आधी खोलती हैं और कभी बेसुध-सी पड़ जाती हैं, कभी हाथ-पैर पटकने लगती हैं । मां सुनयना जी बार-बार उन्हें छाती से लगा कर दूध पिलाने का प्रयास करती हैं; किंतु जनकलली की पीड़ा तो मानो शांत होने का नाम ही नहीं ले रही है ।
कोई कहता है कि बिटिया को कोई असाध्य रोग ने घेर लिया है तो कोई कहता कि यह कोई क्रूर ग्रह-बाधा है । किसी ने कहा कि जनकलली को ‘नजरदोष’ हो गया है; अत: किसी अच्छे तांत्रिक को रोग-शांति के लिए बुलाया जाना चाहिए । सभी के मन में तरह-तरह की आशंकाएं बलवती हो रही हैं । रनिवास की सभी स्त्रियां सुनयना जी को धीरज बंधा रही हैं ।
मिथिला में यह खबर आग की तरह फैल गई कि जनकलली की तबियत आज खराब है । यह सुन कर जो जैसा था, उसी हाल में जनकमहल की ओर दौड़ पड़ा । कोई स्त्री अपने बच्चे को पालने में अकेला छोड़ कर दौड़ी चली आ रही है तो कोई दही मथ रही थी, सो दही से सने हाथों से ही जनकलली को देखने दौड़ पड़ी । कोई नंगे पैर दौड़ा तो कोई जो आंख में काजल लगा रहा था, वह एक आंख में काजल लगाए बगैर ही चल दिया । हर कोई उदास और बैचेन जनकलली को देखने के लिए शीघ्रता से जनकमहल की ओर चला जा रहा है ।
जनकलली की रुदन लीला के दर्शन के लिए भगवान शंकर का मिथिला आगमन
मिथिला की यह खबर जब जनकपुरवासियों के आराध्य भगवान शंकर के कानों में पड़ी तो वे भी एक सिद्ध तांत्रिक का वेष धारण कर जनकलली के दर्शन के लिए मिथिला में प्रकट हो गए । गुदड़ी लपेटे, कांपता हुआ शरीर लिए एक सिद्ध तांत्रिक मिथिला की गलियों में आवाज लगाता हुआ घूम रहा था—
‘मिथिलापुरीवासियो ! सुनो, मैं जगह-जगह घूमता हुआ तुम्हारे नगर में आया हूँ । लोगों के रोग दूर करने का मैंने व्रत लिया है । मैं किसी भी नगर में एक रात से ज्यादा रुकता नहीं हूँ । रोगी को ठीक किए बिना मैं अन्न-जल भी ग्रहण नहीं करता हूँ । किसी को यदि कष्ट हो तो आए और स्वास्थ्य-लाभ करे ।’
जनकमहल में जब नगर में एक सिद्ध तांत्रिक के आने की खबर पहुंची तो महाराज जनक ने दक्षिका नाम की दासी को तांत्रिकाचार्य को बुला लाने के लिए भेजा । दासी ने तांत्रिक से कहा—‘आप शिशुओं के कष्ट दूर करने में समर्थ हैं तो चल कर महाराज की पुत्री का कष्ट दूर करें ।’
मन-ही-मन प्रसन्न होते हुए तांत्रिक (शंकर जी) दासी के साथ मिथिला के अंत:पुर में जा पहुंचे । महाराज जनक और सुनयना जी ने उनका आदरपूर्वक स्वागत किया और उन्हें जनकलली के पास ले गए । बीमार जनकलली को देख कर भगवान शंकर भावावेश में मूर्च्छित हो गए । सुनयना जी की तो मानो ‘काटो तो खून नहीं’ वाली स्थिति हो गई ।
वे विलाप करते हुए कहने लगीं—‘‘हे भगवान ! यह कौन-सी बीमारी लग गई कि बच्ची का रोग दूर होना तो दूर चिकित्सा के लिए आए हुए तांत्रिक भी मूर्च्छित हो गए ।’
सुनयना जी का विलाप सुन कर शंकर जी की भाव-समाधि भंग हो गई और वे ‘हरि ! हरि !’ कह कर उठ बैठे ।
सुनयना जी की व्याकुलता देख कर तांत्रिक ने कहा—‘मेरी चिंता मत करो मइया । गुरुदेव की कृपा और तंत्र-मंत्र में निपुणता से मुझे कोई भी व्याधि छू भी नहीं सकती है । मैं तो अपने गुरुदेव का ध्यान कर बच्ची की व्याधि का पता लगा रहा था । आप देखती रहें, मैं कुछ ही पलों में इसका रोग दूर कर दूंगा ।’
यह कह कर तांत्रिक ने जनकलली की तीन बार परिक्रमा की और अपना सिर उनके चरणों में रख दिया । यह देख कर सुनयना जी ने चकित होकर कहा—
‘योगीराज ! आप ऐसा करके हमें क्यों नरक मे ढकेल रहे हैं । आप वृद्ध हैं, ब्राह्मण हैं, तंत्रज्ञ हैं, योगी हैं । इस कन्या को आशीर्वाद दें । इसके चरणों में आपका सिर-स्पर्श कराना हमारी कुल की मर्यादा के विरुद्ध है ।’
यह सुन कर तांत्रिकाचार्य ने सुनयना जी को डांटते हुए कहा—‘अरी मइया ! यह तांत्रिक का उपचार करने का तरीका है । इसमें तुम टोकाटाकी मत करो, चुपचाप देखती रहो । आपकी कन्या कुछ ही पलों में स्वस्थ हो जाएगी और मुसकरा कर दुग्धपान करेगी ।’
इसके बाद तांत्रिकाचार्य (शंकर जी) मन-ही-मन जनकलली की स्तुति करने लगे—
जय जय शिशुरूपे तप्त चामी कराभे
विमल कमल नेत्रे पूर्ण शीतांशु वक्त्रे ।
निखिल भुवन जीवानन्दनि:श्रेयसे
श्रीजनकनृपति गेहे क्रीडमाने प्रसीद ।। (जानकीचरितामृतम् ३९।४५)
अर्थात्—हे शिशुरूप धारण करने वाली, तपाये हुए सोने के समान निर्मल कांति वाली तथा उज्ज्वल कमल के समान नेत्रों वाली और पूर्णचंद्र के समान मुख वाली किशोरी ! आपकी जय हो ! जय हो ! समस्त संसार के जीवों को आनंद और मंगल प्रदान करने वाली जनक जी के महल में खेलती हुई आप प्रसन्न होवें ।’
तांत्रिकाचार्य शंकर जी की भावपूर्ण प्रार्थना सुन कर जनकलली ने आराम से आंखें खोल दीं और प्रेमपूर्वक दुग्ध पीने लगीं ।
जनकमहल में खुशी की लहर दौड़ गई । महाराज जनक और सुनयना जी तांत्रिकाचार्य पर सोने, चांदी, राजकोष आदि न्यौछावर करने लगे; लेकिन शंकर जी उन्हें अस्वीकार करते हुए कहा—
‘यह सब तो मेरे पर गुरुकृपा का प्रभाव है । मुझे सोना-चांदी राज और कोष आदि से क्या लेना-देना ? यदि आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो इस कन्या का पहना हुआ कोई वस्त्र दे दीजिए । जब तक वह वस्त्र मेरे पास रहेगा, तब तक आपकी पुत्री के पास कोई बीमारी नहीं फटकेगी ।’
सुनयना जी ने जनकलली का वस्त्र देकर तांत्रिकाचार्य के चरणों में मस्तक नवाया । तांत्रिकाचार्य जनकलली को आशीर्वाद देकर पुन: उनकी तीन परिक्रमा करते हैं और उनके चरणों से अपना सिर स्पर्श करा कर महल से चले जाते हैं ।
जनक सुता जगजननि जानकी ।
अतिसय प्रिय करुनानिधान की ।।
ताके जुग पद कमल मनावहूँ ।
जासु कृपा निरमल मति पावहूँ ।। (राचमा १।१८।४)