है नीको मेरो देवता कोसलपति राम।
सुभग सरोरुह लोचन, सुठि सुंदर स्याम।।
सिय-समेत सोहत सदा छबि अमित अनंग।
भुज बिसाल सर धनु धरे, कटि चारु निषंग।।
बलि-पूजा चाहत नहीं, चाहत एक प्रीति।
सुमिरत ही मानै भलो, पावन सब रीति।। (विनय-पत्रिका १०७)
सेतु-बंधन के लिए वानरदल द्वारा पर्वत-खण्डों का लाना
वाराहपुराण के अनुसार त्रेतायुग में भगवान श्रीराम ने समुद्र पार कर लंका जाने के लिए सेतु-बंधन (समुद्र पर पुल बनाने) की आज्ञा देते हुए वानरों से कहा–’तुम सभी पर्वतों से पर्वत-खण्ड लेकर आओ, जिससे समुद्र पर पुल बनाया जा सके।’ भगवान श्रीराम की आज्ञा पाकर सभी वानरदल विभिन्न पर्वतों से विशाल पर्वत-खण्डों को लाने लगे। विश्वकर्मा के औरस पुत्र नल-नील नामक वानर उत्तम शिल्पकार थे। अत: उनकी देखरेख में पुल बनाया जाने लगा।
राम मंत्र तें शिला तिरानी।
पाथर कहा तिरै कहुं पानी।। (सुन्दर-ग्रन्थावली)
हनुमानजी वानरदल में सबसे अधिक बलशाली थे। वे पर्वत-खण्ड की खोज में द्रोणाचल के पुत्र के रूप में स्थित श्रीगोवर्धन पर्वत पर पहुंचे और उसे उठाने लगे। अत्यधिक परिश्रम करने पर भी वे गोवर्धन पर्वत को उठा नहीं सके। हनुमानजी को निराश देखकर पर्वतराज गोवर्धन ने कहा–‘हनुमान! यदि आप प्रतिज्ञा करें कि भक्तवत्सल भगवान श्रीराम के दर्शन करा देंगे तो मैं आपके साथ चलने को तैयार हूँ।’
यह सुनकर हनुमानजी ने कहा–‘पर्वतराज गोवर्धन! मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आप मेरे साथ चलने पर श्रीराम के दर्शन कर सकेंगे।’ हनुमानजी द्वारा श्रीराम के दर्शनों का प्रलोभन देने पर पर्वतराज गोवर्धन उनके करकमलों में सुशोभित होकर चल दिए। जिस समय हनुमानजी पर्वतराज को लेकर व्रजभूमि के ऊपर से आ रहे थे, उस समय समुद्र पर सेतु बांधने का कार्य पूरा हो गया और देववाणी हुई–‘समुद्र पर सेतु बन गया है, वानर अब और पर्वत-खण्ड न लाएं, जो जहां पर है, वह वहीं पर पर्वत-खण्डों को रख दें और तुरन्त वापिस आ जाएं।।’
भगवान की आज्ञा मिलते ही सभी वानरों ने जहां-के-तहां पर्वत-खण्डों को रख दिया। भगवान की आज्ञा पालन करते हुए विवश होकर हनुमानजी ने भी पर्वतराज गोवर्धन को व्रजभूमि पर रख दिया।
हनुमानजी का पर्वतराज गोवर्धन को वचन देना
इससे हरिभक्त श्रीगोवर्धन अत्यन्त उदास हो गए। उन्होंने हनुमानजी से कहा–‘आपने तो विश्वास दिलाया था कि मुझे श्रीराम के दर्शन कराओगे, पर आप तो मुझे यहीं पर छोड़कर चले जाना चाहते हैं। अब मैं पतितपावन श्रीराम का दर्शन कैसे कर सकूंगा। आपने मुझे भगवान के चरणचिह्नों के दर्शन से वंचित किया है, अत: मैं आपको शाप दे दूंगा।’
हनुमानजी ने श्रीराम के संकेत पर पर्वतराज को दिलासा देते हुए कहा–’गिरिवर आप निराश न हों और मुझे क्षमा करें। द्वापरयुग के अंत में श्रीकृष्ण अवतार होगा, वे ही आपकी इच्छा पूर्ति करेंगे। जब इन्द्र की पूजा का खण्डन करके भगवान श्रीकृष्ण आपकी पूजा करवाएंगे तो इन्द्र कुपित होकर व्रज में उत्पात करने लगेगा। उस समय आप व्रजवासियों के रक्षक होंगे। मैं श्रीरामजी के पास जाकर विनती करुंगा। दीनबन्धु श्रीराम आपको दर्शन अवश्य देंगे।’
व्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप।
भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप।। (रा च मा १।२०५)
भक्त के वश में हैं भगवान
भक्त और भगवान सनातन प्रेमी हैं। भक्त भगवान के बिना नहीं रह सकता और भगवान भक्त के बिना नहीं रह सकते। भगवान तो भक्तों के वश में हैं। वे भक्तों के लिए अवतरित होते हैं और वैसी ही लीला करते हैं। प्रेम के अलावा किसी अन्य उपाय से भगवान को प्राप्त नहीं किया जा सकता–’प्रेम तें प्रगट होंहि मैं जाना।’
हनुमानजी के मन में पूर्ण विश्वास था कि उनके आराध्य श्रीराम अपने भक्त की प्रतिज्ञा अवश्य पूरी करेंगे। अत: वे वहां से चल दिए और रामदल में आकर श्रीरामजी से अपनी ‘प्रतिज्ञा’ और गिरिराजजी की ‘व्यथा’ निवेदन की।
भगवान ने भक्त के वचन को पूरा किया
‘भगत हेतु अवतरहिं गोसाईं’ (गोस्वामी तुलसीदासजी)
भगवान श्रीराम ने कहा–’हनुमान! आप अभी पर्वतराज से जाकर कहिए कि वे निराश न हों। द्वापरयुग में श्रीकृष्णरूप में उन्हें मेरा दर्शन होगा। सेतुबंध हेतु लाए गए ये सब पर्वत मेरे चरण-स्पर्श से मुक्त हो गए, परन्तु अगले अवतार (श्रीकृष्णावतार) में मैं गोवर्धनगिरिराज को अपने सिर-माथे पर धारण करुंगा और अपने सर्वांगस्पर्श से उन्हें पवित्र करुंगा। स्वयं उनकी पूजा कर उन्हें जगत में परम पूज्य पद प्रदान करुंगा। मैं वसुदेव के कुल में जन्म लेकर व्रज में विविध लीला करुंगा तथा गोवर्धन के ऊपर गौचारण, गोपियों के संग अद्भुत विलास से उसे हरिदासों में श्रेष्ठ बना दूंगा। व्रज में गोवर्धन मेरी लीलाओं के परम सहायक के रूप में प्रसिद्ध होगा।’
हनुमानजी तुरन्त ही पर्वतराज गोवर्धन के पास गए और उन्हें श्रीराम का संदेश सुनाया। उसे सुनकर वे प्रेम से गद्गद् हो गए।
भगत हेतु भगवान प्रभु राम धरेउ तनु भूप।
किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनुरूप।।
जथा अनेक वेष धरि नृत्य करइ नट कोइ।
सोइ सोइ भाव देखावइ आपुन होइ न सोइ।।
श्रीरामचरितमानस के (७।७२, ७।७३।१) में काकभुशुण्डिजी पक्षीराज गरुड़ से कहते हैं कि भगवान श्रीराम भक्तों के लिए नृप शरीर धारण किया और मनुष्यों की तरह अनेक चरित्र किए। जैसे कोइ नट अनेक वेष रच कर उसी के अनुकूल भाव दिखाता है। परन्तु वह स्वयं नट ही रहता है।
त्रेता में अवधबिहारी द्वापर भए श्रीकृष्णमुरारी
भगवान जब मानवता के अंदर प्रत्यक्ष रूप में उतर आते हैं और मनुष्य के ढांचे को पहन लेते हैं, तब वह अवतार कहलाता है। (श्रीअरविन्द)
द्वापर युग के अंत में धर्म की स्थापना, अधर्म का नाश, साधुओं की रक्षा एवं दुष्टों का दमन करने के लिंए भगवान श्रीकृष्ण ने व्रज में अवतार लिया। एक समय देवताओं के राजा इन्द्र ने व्रजवासियों द्वारा अपनी पूजा न किए जाने पर क्रोधातुर हो व्रज को समूल नष्ट करने का विचार किया। इन्द्र ने मेघों को आज्ञा दी कि ‘आप व्रज में जाकर समस्त व्रजभूमि को वर्षा द्वारा नष्ट कर दो।’ मेघ इन्द्र की आज्ञा मानकर व्रज पर मूसलाधार जल बरसाने लगे।
अतिवृष्टि से व्रज में हाहाकार मच गया। समस्त व्रजवासी इन्द्र के कोप से भयभीत होकर नन्दबाबा के घर की ओर दौड़े। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा–’व्रजवासियो! धैर्य धारण करो, इन्द्र का कोप तुम्हारा कुछ न कर सकेगा। भगवान श्रीकृष्ण गोप-गोपियों और गायों के साथ गोवर्धन की ओर चल दिए। भगवान श्रीकृष्ण ने पर्वतराज गोवर्धन को दर्शन देकर कनिष्ठा अंगुली पर गिरिगोवर्धन को धारण कर समस्त व्रजवासियों का भय हर लिया।
इस प्रकार भगवान ने अपने ‘वचन’ और अपने सेवक हनुमान की ‘प्रतिज्ञा’ पूरी की।
श्रीगोवर्धनगिरिराज ने जब श्रीकृष्ण-बलराम का दर्शन किया तो उनकी जन्म-जन्म की साधना सफल हो गयी। उन्होंने श्रीकृष्ण का दर्शन कर अपने को कृतार्थ माना और अपना सर्वस्व श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों में समर्पित कर दिया। उन्होंने सब प्रकार से श्रीकृष्णसेवा कर उनका मन हर लिया। व्रजगोपियों ने उन्हें ‘हरिदास-वर्य’ की पदवी प्रदान की।
सृष्टि के अभीष्ट फल देवे कूं तैसों तहां
इष्ट गिरजि सब देवन को टीकौ है।
राजै गिरि कन्दरा विराजै जहां श्यामाश्याम,
गोवरधन धाम परम धाम हूं सौ नीकौ है।।
श्रीगिरिराजजी की तलहटी और कन्दराओं में भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधाजी के विहारस्थल रहे हैं। अत: इस भूमि का विशेष महत्त्व है–
गिरिराज की जो है महामहिमा,
वह तो तुम श्री गिरिधारी से पूछो।
प्रेम के तत्त्व परतत्त्वन को नहिं,
कृष्णसों, राधिका प्यारी से पूछो।।
श्रीमद्भागवत (१०।२१।१८) में लिखा है–‘यह गिरिराज गोवर्धन तो भगवान के भक्तों में बहुत ही श्रेष्ठ है। धन्य है इनके भाग्य! हमारे प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण और नयनाभिराम बलराम के चरणकमलों का स्पर्श प्राप्त करके यह कितने आनन्दित रहते हैं। यह तो उन दोनों का तथा ग्वालबालों और गौओं का बड़ा ही सत्कार करते हैं। स्नान-पान के लिए झरनों का जल देते हैं, गौओं के लिए सुन्दर हरी-हरी घास, विश्राम के लिए कन्दराएं और खाने के लिए कन्द-मूल-फल देते हैं।’
नित गाय गुपाल गुवालन को, अपनी छवि सों हरषावते हैं,
सुख देके अनेकन भांतिन सों, सबको अपने में रमावते हैं।
अवनीस, मुनीस, गुनीस इन्हें, अवलोकि सदा सुख पावते हैं,
गिरिवर्य सदा सरसावते प्रेम, गुमानिन गर्व घटावते हैं।। (श्रीरामेश्वरदासजी रामायणी)
Main dhanya ho gaya hun, apke is lekh ko padhkar. Koti koti pranam ho.
मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुई कि आपको यह पोस्ट पसन्द आया।
धन्यवाद!
आपकी भक्ति धन्य है जय श्री कृष्ण की!