व्रज में काछनी बेचन आई।
आन उतारी नंदगृह आंगन ओडी फलन सुहाई।।ले दौरे हरिफैट अंजुली शुभकर कुंवर कन्हाई।
डारत ही मुक्ताफल ह्वे गये यशुमति मन मुसकाई।।जे हरि चार पदारथ दाता फल वांछित न अघाई।
परमानंद याको भाग बड़ो है विधि सों कहा वस्याई।।
मथुरा की एक सुखिया नाम की मालिन गोकुल में साग-भाजी तथा फल-फूल बेचने के लिए आया करती थी। वह गोकुल में गोपियों के घर पुष्प-तुलसी इत्यादि देने जाती तो वहां गोपियों से कन्हैया की बातें सुनती थी। गोपियां मालिन को बतातीं कि–
नन्दरानी यशोदाजी श्यामसुन्दर को आँगन में नचा रहीं थीं और ताली बजा-बजाकर मधुर कोमल स्वर में गा रही थीं। कन्हैया के चरणों के नूपुर बज रहे थे तथा कमर में किंकिणी शब्द कर रही थी। नन्ही-नन्ही एड़ियों में इतनी लालिमा थी कि पका हुआ बिम्बफल भी उसकी समता नहीं कर पाता। कन्हैया जब यशोदाजी का गाना सुनते हैं तो वे स्वयं भी गाने लगते हैं और माता को ताली बजाते देखकर स्वयं भी ताली बजाने लगते हैं। नाचते समय कन्हैया के गले में पहना हुआ अत्यन्त सुन्दर बघनखा इस प्रकार झूल रहा था मानो बादलों के बीच द्वितीया का चांद प्रकाश फैला रहा हो। कन्हैया के माथे पर काली-काली घुँघराली लटें लटक रही थी और ललाट पर लटकन ऐसे लटक रहा था मानो चन्द्रमा के बीच तारे हों। गले में कठुला और मुख में सुन्दर दांत शोभा दे रहे थे। और दोनों आँखों के बीच नासिका तो ऐसे लग रही थी मानो दो खंजन पक्षियों के बीच तोता बैठा हो। यशोदाजी अपने पुत्र की सुन्दरता पर निहाल होकर उन्हें नचा रही थीं। गोपी कहती कन्हैया के उस समय की शोभा मेरे मन से हटती ही नहीं।
आँगन स्याम नचावहीं जसुमति नँदरानी।
तारी दै दै गावहीं मधुरी मृदु बानी।।पाइन नुपुर बाजहीं, कटि किंकिनि कूजै।
नान्ही एड़ियनि अरुनता फल बिंब न पूजै।।जसुमति गान सुनैं स्त्रवन, तब आपुन गावैं।
तारि बजावत देखहिं, पुनि आपु बजावैं।।केहरि नख उर पर रुरै सुठि सोभाकारी।
X XX XX X
जसुमति सुतै नचावहीं, छवि देखति जिय तैं।
सूरदास प्रभु स्याम कौ मुख टरत न हिय तैं।।
मालिन को कृष्ण-कथा सुनने का व्यसन-सा हो गया। जब तक वह गोपियों से कन्हैया की बातें न सुनती उसे अच्छा न लगता था। लाला ने आज ऐसा किया …….. लाला ने कल वैसा किया…..सुनते-सुनते उसके हृदय में कृष्ण-प्रेम अंकुरित होता गया और उसे कन्हैया के दर्शन की भावना होने लगी। ‘कृष्ण’ नाम में कुछ अद्भुत आकर्षण है। जिसके कान में यह समा जाता है, वह दूसरा कुछ सुनना ही नहीं चाहता। कृष्ण-नाम ने उस पर मोहिनी डाली और मालिन उस पर निछावर हो गयी।
गोपियों से कन्हैया की रूपमाधुरी सुनकर वह नन्हें से कन्हैया की साँवरी सलोनी सूरत पर आसक्त हो गयी थी। और उसी दिन से उसकी गति बदल गयी। श्यामसुन्दर की मनमोहिनी छवि सदैव उसके मन में बसी रहती और वह भावों के पुष्प चढ़ाकर ही उनकी पूजा-अर्चना करती रहती। मालिन नंदभवन के द्वार पर खड़ी रहती है। सोचती है कि कन्हैया बाहर निकलेगा तो मैं उसे देखूंगी। मालिन को कन्हैया के दर्शनों की तीव्र लालसा है पर उसके मन में अभी सांसारिक वासनाएं भी हैं। जब तक मनुष्य के मन में संसार रहता है तब तक वह भगवान के दर्शनों के योग्य नहीं होता है। मालिन जब-जब नंदभवन में कन्हैया के दर्शन करने आती, कन्हैया अन्दर ही बैठा रहता, वह बाहर निकलता ही नहीं। कई दिनों तक ऐसा ही होता रहा। मालिन कन्हैया की प्रतीक्षा करती रहती पर कन्हैया बाहर आता ही नहीं।
कन्हैया उसके मनोभाव जानते थे पर उसके अनुराग को और बढ़ाने के लिए उससे बोलते नहीं थे। जब भी वह आती कन्हैया खेलने के बहाने बाहर निकल जाते और वह बेचारी मन मसोस कर रह जाती। मालिन के मन से कभी मनमोहन श्यामसुन्दर दूर जाते ही नहीं थे परन्तु शरीर से वे सदा दूर ही रहते थे। मालिन घंटों नंदभवन के द्वार पर बैठी रहती लेकिन कन्हैया कभी भी सामने नहीं आता था।
प्रेम की रीति भी बड़ी विचित्र है। प्रेमी ज्यों-ज्यों अपनी ओर से उपेक्षा के भाव दिखाता है, उसके प्रति अनुराग उतना ही अधिक बढ़ने लगता है। ‘विकलता’ उस आनन्द को बढ़ाती है। और फलस्वरूप ‘वेदना’ ही मिलती है। पर अंत में ‘चाह’ ही उसे प्रेमी तक पहुँचाती है। मालिन का मन अब दूसरी जगह न जाकर नंदभवन के आँगन के ही चक्कर लगाने लगा। कन्हैया कैसे मिलेंगे, इस चिन्ता से उसका धैर्य लुप्त हो गया। वह मन-ही-मन कहती–
‘श्यामसुन्दर तुम इतने निष्ठुर क्यों हो? जो तुम्हें चाहते हैं, उनसे तुम दूर भागते हो और जो तुमसे वैर करते हैं उन्हें प्रसन्नता से पास बुला लेते हो। तुम्हारी इस वक्रता का असली रहस्य क्या है, इसे कौन जान सकता है।’
मालिन की श्रीकृष्ण दर्शनाभिलाषा की करूण पुकार का वर्णन श्रीललितकिसोरीजी के शब्दों मे–
तूँ छलिया छिप छिप बैठ्यो अँखियाँ मटकावै रे।
बाला मैं थारे बिनु दु:खी फिरूँ तूँ मौज उड़ावै रे।।दिन नहीं चैन रात नहीं निदियाँ, जरा कह दो साँवरिये से आया करे।
मोर मुकुट मकराकृत कुंडल पीताम्बर झलकाया करे।।
हृदय से निकली हुयी सच्ची प्रार्थना में अगाध शक्ति होती है फिर यहां तो मालिन ने जिनके प्रति प्रार्थना की है, वे मनुष्य के जन्म-जन्मान्तर के परम हितैषी, अनन्त करूणा, दया, क्षमा और कृपा से सम्पन्न परम पिता परमात्मा हैं। तब भला उन पर इस प्रार्थना का प्रभाव क्यों न पड़ता। वे तो ऐसी सच्ची प्रार्थना की राह ही देखते रहते हैं।
एक दिन मालिन ने गोपियों से कहा–अरी गोपियों ! तुम तो कहती हो कन्हैया प्रेममय है पर मुझे उनके दर्शन नहीं होते हैं। मुझे कन्हैया के दर्शन हों ऐसा कोई उपाय बतलाइए। गोपियों ने मालिन से कहा–मालिन, तुम्हें कोई नियम लेना पड़ेगा। मालिन ने कहा–मैं बहुत गरीब हूँ। ऐसा नियम बताइयेगा जो मैं रख सकूँ। गोपियों ने कहा–मालिन, तुम कन्हैया के दर्शन के लिए नंदबाबा के द्वार पर खड़ी रहती हो, इसकी बजाय तुम आज से नंदभवन की एक सौ आठ प्रदक्षिणा का नियम ले लो। प्रदक्षिणा करते-करते तुम कन्हैया से प्रार्थना करना कि मुझे आपके दर्शन करने हैं।
मालिन हर रोज नियम से नंदबाबा के महल की एक सौ आठ प्रदक्षिणा करती है। प्रदक्षिणा करते हुए कन्हैया को मनाती है–नंदकुमार ! बाहर आइए, मुझे दर्शन दीजिए। धीरे-धीरे उसका मन शुद्ध हो रहा है। श्रीकृष्ण दर्शन के लिए उसके प्राण तड़प रहे हैं।
वैसे तो मालिन फल-सब्जी इत्यादि बेचकर मथुरा चली जाती किन्तु उसका मन गोकुल में नंदभवन में ही रह जाता। प्रात:काल उठते ही वह अपने ‘मन’ की खोज में फिर गोकुल आती और मनमोहन के साथ अपने मन को क्रीड़ा करते देखकर वह अपने-आप को भूल जाती। उसका मन कन्हैया को स्पर्श करने के लिए सदैव व्याकुल रहता। जब कन्हैया को ‘देखने-छूने’ की मालिन की चाह अपनी पराकाष्ठा को पहुँच गयी और अब उसे संसार में कन्हैया के सिवाय कुछ भी नहीं दिखने लगा, तब फिर कन्हैया के मिलन में क्या देर थी? अगर चाह असली हो तो कन्हैया तो चाहने वालों से दौड़कर लिपटने वाले हैं। अब मालिन की चाह में किसी प्रकार का आवरण नहीं रहा, उसकी चाह कृष्णमयी हो गयी थी।
आज मालिन ने निश्चय किया कि कन्हैया के दर्शन के बिना वह पानी भी नहीं पीयेगी। सुन्दर-सरस फलों की टोकरी सिर पर रखकर कन्हैया की मोहनी छवि का ध्यान करती हुई गोकुल में आकर पुकार उठी–’फल ले लो री फल’ ! कन्हैया के कानों तक यह शब्द पहुँचे। कन्हैया ने सोचा–यह जीव दर्शन के योग्य तो नहीं है पर इसकी भक्ति दृढ़ करने के लिए आज मैं इसे दर्शन दूँगा। समस्त कर्म और उपासनाओं के फल देने वाले भगवान अच्युत फल खरीदने के लिए घर से बाहर दौड़े।
छोटे-से कन्हैया हैं, बहुत सुन्दर दिखायी दे रहे हैं। यशोदामाता ने पीताम्बर पहिनाया है। सुवर्ण की करधनी और बाजूबन्द पहिने हैं। कानों में मकराकृति कुण्डल हैं, नाक में मोती लटक रहा है। माथे पर गोरोचन का तिलक है व रेशम-सी काली अलकावली बिखरी हुई है। मोर-मुकुट धारण किए हैं, हाथ में छोटी-सी बाँसुरी है। आँखों में प्रेम भरा है। चरणों में सुवर्ण के नूपुर पहिने हैं और छम-छुम करके दौड़े आ रहे हैं।
अपने लाल-लाल हाथों की छोटी सी अंजलि में अनाज लेकर वे जल्दी-जल्दी हाँफते हुए मालिन की ओर दौड़ पड़े। उनकी कोमल अंजलि की सन्धियों में से काफी अनाज तो रास्ते में ही बिखर गया और जो थोड़ा-सा अंजलि में रह गया वह कन्हैया ने मालिन की टोकरी में डाल दिया। कन्हैया उस मालिन से फल लेने को अधीर थे। मालिन का मन भी कन्हैया को अपनी ओर आते देखकर कृष्णप्रेम से ओत-प्रोत हो रहा था। चिरकाल की साध पूरी होते देखकर मालिन अपने-आप को भूल गयी। मालिन के घर में आठ पुत्रियां थीं, एक भी पुत्र न था। कन्हैया को देखकर उसके मन में ऐसा भाव जागा कि मेरा भी ऐसा पुत्र हो तो कितना अच्छा हो ! यशोदामाता जब कन्हैया को गोद में लेती होंगी तो उन्हें कितना आनंद होता होगा? मुझे भी कभी ऐसा आनंद मिल सकेगा? मालिन के हृदय में प्रेम है कि कन्हैया मेरी गोद में आ जाए पर वह सोचती है कि मैं ऐसा कैसे कहूँ कि तुम मेरी गोद में आ जाओ। श्रीकृष्ण तो अन्तर्यामी हैं, वे मालिन के हृदय के भाव जान गए और सुखिया मालिन की गोद में जाकर बैठ गये। अब मालिन के मन में ऐसा पुत्रप्रेम जागा कि कन्हैया मुझे एकबार ‘माँ’ कहकर बुलाए। कन्हैया को मालिन पर दया आ गयी। कन्हैया ने सोचा कि जीव जैसा भाव रखता है, उसी भाव के अनुसार मैं उससे प्रेम करता हूँ। कन्हैया ने कहा–’माँ, मुझे फल दे। ‘माँ’ सुनकर मालिन को अतिशय आनंद हुआ। वह सोच रही है लाला को क्या दूँ? मालिन का मन कन्हैया पर न्यौछावर हो जाता है।
कन्हैया के परम दुर्लभ कोमल करकमलों के स्पर्श का सुख प्राप्त करने को अधीर फल बेचने वाली सुखिया मालिन ने उनके दोनों हाथ फल से भर दिए। कन्हैया के हाथों में फल आते ही वे दौड़कर घर के अन्दर चले गये। साथ ही मालिन का मन भी चोरी करके ले गये हैं। वह तो पागल सी हो गयी और बैठे-बैठे ही स्वप्न देखने लगी कि कन्हैया मेरी गोद में बैठा है।
उस समय मालिन के मन की दशा का वर्णन कौन कर सकता है? कन्हैया के लिए उसने अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया। अब मालिन की घर जाने की भी इच्छा नहीं है। पर घर तो उसे जाना ही होगा। उसने टोकरी सिर पर रख ली और कन्हैया का स्मरण करते-करते घर पहुँच गयी। घर जाकर देखा कि सम्पूर्ण अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण ने प्रेम के अमूल्य रत्नों–हीरे-मोतियों से उसकी खाली टोकरी भर दी।
फलविक्रयिणी तस्य च्युतधान्यकरद्वयम्।
फलैरपूरयद्रत्नै: फलभाण्डमपूरि च।।
मालिन की टोकरी कन्हैया ने रत्नों से भर दी और उसका प्रकाश चारों ओर फैल गया और उस प्रकाश में मालिन को कन्हैया ही दिखायी देते हैं। आगे श्रीकृष्ण, पीछे श्रीकृष्ण, दांये श्रीकृष्ण, बांये श्रीकृष्ण, भीतर श्रीकृष्ण, बाहर श्रीकृष्ण। श्रीकृष्ण के अलावा उसे और कुछ दिखायी नहीं देता।
मनुष्य की बुद्धि टोकरी जैसी है और भक्ति रत्न सदृश्य है। मनुष्य जब अपने सत्कर्म श्रीकृष्ण को अर्पण करता है तो उसकी टोकरी रूपी बुद्धि रत्न रूपी भक्ति से भर जाती है।
आज कन्हैया मालिन द्वारा दिये फल सब गोप-गोपियों को बांट रहा है फिर भी टोकरी खाली नहीं हो रही है। यशोदामाता सोच रही हैं कि आज कन्हैया को आशीर्वाद देने माँ अन्नपूर्णा मेरे घर आयीं हैं।
सुखिया मालिन का जीवन सफल हुआ; उसने साधारण लौकिक फल देकर फलों का भी फल श्रीकृष्ण का दिव्य-प्रेम प्राप्त किया। श्रीकृष्ण का ध्यान करते-करते वह उन्हीं की नित्यकिंकरी (गोलोक में सखी) हो गयी। श्रीकृष्ण ने उसे अपना लिया; उसी दिन से वह धन्य हो गयी।
कथा का सार
मनुष्य जब अपने सत्कर्म के फल को धर्म, सम्पत्ति, पुत्र, पौत्रादि के सुख तक सीमित मानता है तब तक वह बंधन का कारण रहता है, इसे फल का बेचना कहा गया है। अर्थात् जब हम कोई पुण्य के बदले भगवान से किसी कामना की पूर्ति चाहते हैं तो वह हमारे सत्कर्मों का विक्रय है। पर जब कर्म ‘श्रीकृष्णार्पण भाव’ से होता है तो वह मुक्ति प्रदान करने वाला होता है। भगवदर्पण-भाव से कर्म एवं कर्मफल प्रदान करने से समस्त कर्म शुद्ध हो जाते हैं। कर्म और कर्मफल उसे संलिप्त नहीं करते अत: फल की इच्छा का त्याग करके ही कर्म करना श्रेयस्कर है।
जो यज्ञ आदि कर्म सकाम होते हैं, उनसे स्वर्गादि लोकों की प्राप्ति होती है। किन्तु जो निष्काम कर्म करते हैं, उन्हें भगवान भक्ति रूपी रत्न प्रदान करते हैं। सकाम उपासक पुण्यफलों को बेचने वाले हैं, अत: कम महत्व के हैं, पर निष्काम उपासक पुण्यफलों का समर्पण करने वाले हैं; इसलिए अपेक्षाकृत वे सर्वश्रेष्ठ हैं। निष्काम-कर्म, कर्मफल का ब्रह्मार्पण तथा परहित-चिन्तन मनुष्य को भगवान की प्रियता प्रदान करते हैं। ऐसा मनुष्य दुर्लभ मुक्ति को सहज ही प्राप्त कर लेता है।
इस कथा का निष्कर्ष है कि हृदय में किसी (श्रीकृष्ण) की लगन लग जाय, दिल में कोई समा जाय, किसी की रूप-माधुरी आँखों में बस जाय और किसी के लिए उत्कट (अत्यधिक) अनुराग हो जाय, तब बेड़ा पार हो जाता है। जिन्होंने पूर्वजन्मों में अनेक पुण्यकर्म किये हों उन्हें ही कन्हैया के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त होता है। भाग्यहीन तो सुरसरिता (गंगा) के समीप रहता हुआ भी प्यासा मरता है, कल्पवृक्ष के नीचे भी भूखा रहता है और सुमेरू पर्वत पर बैठकर भी सम्पत्ति की इच्छा रखता है। भगवान जिन्हें अपना बनाकर बुद्धियोग देते हैं वे ही उनकी बाँकी छवि के अधिकारी बनते हैं वरना मूढ़ पुरुष तो उनके श्रीचरणों से दूर रहकर इसी संसार-चक्र में घूमते रहते हैं। वे बड़भागी हैं जिन्हें किसी भी सम्बन्ध से कन्हैया ने अपनाया है। कन्हैया को बात-बात पर नचाना, धमकाना और यहां तक कि बाँध देना यह भी एक गूढ़ स्नेह है। अत:
‘येन केन प्रकारेण मन: कृष्णे निवेशयेत्।’
–जैसे भी बने वैसे ही उन श्यामसुन्दर में मन लगे यही परम पुरुषार्थ है। यही अन्तिम साध्य और यही दुर्लभ मनुष्ययोनि का सर्वोत्तम फल है।
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Shree Krishna saranam mama
Doli…. Danda….palki….jai kahanya Lal kii…
shree radha rani ki jai ho…
Shri shri radhakrishnabhayam .namah.=Shri yugal charan kamlabhyo namah=Radhey_Radhey.
जय श्री कृष्ण
My mother used to tell about this when we were young.Her almost all grand children heard about phal bikrayini.It was wonderful to go through it once again.
Jai Jai Sree RADHEY