भगवान की प्रत्येक लीला मनुष्य पर कृपा करने के लिए ही होती हैं । ऐसा ही एक प्रसंग है श्रीराधा रानी की ‘कोप लीला’ ।
श्रीकृष्ण व राधारानी के श्रीअंग से प्रकट हुई गंगा उनका अंश व उन्हीं का स्वरूप है । ब्रह्मवैवर्तपुराण (प्रकृतिखण्ड) के अनुसार श्रीराधाकृष्ण का जलरूप है गंगा ।
एक बार गोलोक में श्रीकृष्ण कार्तिक पूर्णिमा के दिन रासमहोत्सव मना रहे थे । रासमण्डल में श्रीकृष्ण श्रीराधा की पूजा कर विराजमान थे । उसी समय श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिए देवी सरस्वती प्रकट हुईं और उन्होंने अपनी मधुर स्वरलहरी में गीत गाकर और दिव्य वीणा के वादन से सारा वातावरण झंकृत कर दिया ।
उसी समय भगवान शंकर भी श्रीकृष्ण सम्बन्धी सरस पद गाने लगे । उसे सुनकर सभी देवगण मूर्छित हो गए । जब उनकी चेतना लौटी, तब वहां श्रीराधाकृष्ण के स्थान पर सारे रासमण्डल में जल-ही-जल फैला हुआ था । सभी गोप-गोपी और देवगण भगवान श्रीराधाकृष्ण को न पाकर विलाप करते हुए उनसे पुन: प्रकट होने की प्रार्थना करने लगे ।
तब भगवान श्रीकृष्ण ने आकाशवाणी द्वारा कहा—‘मैं सर्वात्मा श्रीकृष्ण और मेरी स्वरूपाशक्ति श्रीराधा—हम दोनों ने ही भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए यह जलमय विग्रह (नीराकार स्वरूप) धारण कर लिया है ।’
वे ही पूर्णब्रह्म श्रीकृष्ण और राधा जलरूप होकर गंगा बन गए और वह दिव्य जलराशि ही ‘देवनदी’ गंगा के नाम से प्रसिद्ध हुई । गोलोक से प्रकट होने वाली गंगा का यही रहस्य है ।
गंगा का एक नाम ‘ब्रह्माम्बु’ है । अम्बु जल को कहते हैं, इसलिए ब्रह्म + अम्बु अर्थात् जलरूप ब्रह्म ।
भगवान की प्रत्येक लीला के पीछे लोककल्याण ही छिपा होता है । भगवान के जलमय रूप होने के पीछे भी कलियुग में मानव का कल्याण ही छिपा है । यदि गंगा का धरती पर अवतरण न हुआ होता तो कलियुग में मनुष्यों के पापों का मल कैसे धुलता ?
श्रीराधा रानी की कोप लीला
एक बार गोलोक में गंगा श्रीकृष्ण के बगल में बैठ कर उनकी रूपसुधा का पान कर रही थीं । तभी श्रीराधा अपनी सखियों के साथ वहां आईं ।
गंगा को वहां देख कर वे क्रोधित हो गईं और श्रीकृष्ण से पूछने लगीं—‘हे प्राथनाथ ! आपके कमल समान मुख को निहारने वाली ये देवी कौन है ? मैंने अनेक बार आपको अनेकों से प्रेम करते हुए देखा है । बार-बार क्षमा करना अब मेरा स्वभाव बन गया है । एक बार आपने विरजा से प्रेम किया । मेरे देख लेने पर वह देह-त्याग कर महान नदी के रूप में परिणित हो गई । शोभा से प्रेम किया तो वह भी देत्याग कर चंद्रमण्डल में चली गई । प्रभा से प्रेम किया तो वह शरीर त्याग कर सूर्यमण्डल में चली गई । रासमण्डल में एक बार आपको शांति नामक गोपी के साथ देखा तो वह देहत्याग कर भुजा में लीन हो गई । जब क्षमा को आपसे प्रेम करते देखा तो वह देहत्याग कर पृथ्वी पर चली गई ।’
श्रीराधा जब ऐसा कह रही थीं, तब गंगा भी उनके अभिप्राय को जान कर श्रीकृष्ण-चरणों में विलीन हो गईं । तब सबने मिल कर गंगा को बहुत ढूंढ़ा पर वे कहीं न मिलीं । सभी जगह जल का अभाव हो गया ।
ब्रह्मा आदि देवता गोलोक में जाकर भगवान से मिले ।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—‘मैं जानता हूँ कि आप सब लोग गंगा को ले जाने के लिए आए हैं । कुपित राधा उसका पान कर जाना चाहती थीं, किंतु इस समय वह मेरी शरण में है । यदि आप गंगा की पूर्ण रक्षा कर सकें तब ही मैं उसे दे सकूंगा ।’
समस्त ब्रह्मादि देवों ने श्रीराधा की स्तुति करते हुए कहा—‘गंगा आपके और श्रीकृष्ण के श्रीअंग से उत्पन्न हुई है; इसलिए वह आपकी प्रिय पुत्री के समान है ।’
ब्रह्माजी की स्तुति से श्रीराधा प्रसन्न हो गईं और उन्होंने गंगा को निर्भय कर दिया ।
तब गंगा श्रीकृष्ण के चरण के अंगूठे के नाखून के अग्र भाग से प्रकट हो गईं और ‘विष्णुपदी’ कहलाईं ।
गंगा भगवान के चरणों से उत्पन्न हुई है, विष्णुपदी है, उसका महत्व केवल इतना ही नहीं है; अपितु गंगा साक्षात् परमात्मा की विभूति है । भगवान श्रीकृष्ण ने गीता (१०।३१) में गंगा को अपना स्वरूप बतलाते हुए कहा है—‘स्तोत्रसामस्मि जाह्नवी ।’
ब्रह्मा जी ने वह जल अपने कमण्डलु में रख लिया । लेकिन जब से गंगा ने श्रीकृष्ण चरणों को छोड़ा, तब से आज तक उनका बहना बंद नहीं हुआ, अर्थात् उनके जीवन में विश्राम नहीं आया ।
भगवान से विमुख होने पर कभी किसी को सुख नहीं मिला—इस पर तुलसीदास जी का बहुत सुंदर पद है—
सुनु मन मूढ़ सिखावन मेरो ।
हरि-पद-बिमुख लह्यो न काहु सुख, सठ ! यह समुझ सबेरो ।।
अर्थात्—मूढ़ मन मेरी सीख मान ले । भगवान से विमुख होने पर आज तक कभी किसी को सुख नहीं मिला । सूर्य-चंद्र भगवान के नेत्रों से प्रकट हुए किंतु ये भी भगवान के नेत्रों से बिछुड़े, तो उन्हें भी आज तक विश्राम नहीं मिला है, तब से दिन-रात चल ही रहे हैं और समय-समय पर राहु द्वारा ग्रसित भी हो जाते हैं । इसी प्रकार एक बार भगवान के चरणों से बिछुड़ जाने पर गंगा को भी आज तक घूमना पड़ रहा है ।