किसी गांव में एक दरिद्र ब्राह्मण बड़े प्रेम और श्रद्धा से अपने लड्डूगोपाल की सेवा करते थे । उनके पास धन नहीं था । घर में जो रूखा-सूखा भात का भोजन बनता, वही अपने ठाकुर जी को भोग लगा कर वे स्वयं ग्रहण कर लेते थे ।
एक दिन एक महात्मा जी उस गांव में आए और उस ब्राह्मण के घर पर ठहरे । महात्मा जी ने ब्राह्मण को ठाकुर जी को केवल भात का भोग लगाते देखकर उससे कहा—‘भई ! तुम यह ठीक नहीं करते हो ।’
ब्राह्मण बोला—‘तो हम क्या करें ?
महात्मा बोले—‘भगवान के लिए कुछ अच्छी चीज बननी चाहिए, तब भगवान को भोग लगाना चाहिए । तुम भगवान के सामने रूखा-सूखा भात रख देते हो, न साथ में कोई साग है न भाजी; न घी है और न ही कुछ मीठा ।’
ब्राह्मण बोला—‘हमारे पास तो यह सब है नहीं ।’
महात्मा जी ने कहा—‘नहीं है तो पैसे कमाओ । ठाकुर जी को लाकर झोंपड़ी में बिठा दिया और उन्हें खिलाने के लिए रूखा-सूखा भात रख दिया, यह भी कोई सेवा है । ठाकुर जी की सेवा करनी है तो उनके योग्य सामान भी होना चाहिए ।’
ब्राह्मण बोला—‘ठाकुर जी में हमारा प्रेम है; इसलिए झोंपड़ी में विराजमान किया है । घर में जो भोजन बनता है उसी से पहिले ठाकुर जी को भोग लगा देते हैं, वह ‘महाप्रसाद’ बन जाता है । घर में अपने पीने के लिए जो जल है, उसी से ठाकुर जी के पीने के लिए झारी भर देते हैं । अपने शरीर को ढकने के लिए जो वस्त्र लाते हैं, उसी से उनका पीताम्बर बना देते हैं । हमने सुना है कि केवल तुलसीदल, मोरमुकुट और गुंजामाला से भी ठाकुर जी प्रसन्न हो जाते हैं । इससे ज्यादा हम कहां से लाएं ?’
महात्मा जी बड़े आडम्बर से अपने ठाकुर जी की ‘राजसी सेवा’ करते थे । उन्होंने ब्राह्मण से कहा—‘ठाकुर जी की सेवा में बढ़िया से बढ़िया चीज अर्पण करनी चाहिए, कंजूसी नहीं करनी चाहिए । जो कंजूसी करता है, वह पाप करता है ।’
महात्मा जी की बात सुन कर ब्राह्मण डर गया और बोला—‘महात्मा जी मैं अपने ठाकुर को तुम्हें दे देता हूँ । तुम अपने यहां उनकी अच्छे से पूजा करोगे ।’
महात्मा बोले—‘ठीक है, तुम ठाकुर को हमें दे दो ।’
ब्राह्मण ने बड़े दु:खी मन से अपने ठाकुर जी को महात्मा को देते हुए कहा—‘देखो ठाकुर ! हमारे पास तुम्हें खिलाने के लिए बढ़िया भोजन नहीं है, तुम्हें स्वादिष्ट भोजन अरोगना है तो तुम महात्मा जी के साथ जाओ ।’
महात्मा जी ब्राह्मण के ठाकुर जी को लेकर अपने आश्रम पर आ गए ।
ठाकुर जी के जाने के बाद ब्राह्मण की स्थिति जल बिन मछली जैसी हो गई । वह अपने ठाकुर जी की याद में तड़पने लगा । उसके घर पर भोजन का भोग नहीं लगा, तो उसने स्वयं भी उस रात भोजन ग्रहण नहीं किया ।
ऐसे भक्त जिनमें भगवान को पाने के लिए लगातार विरह-अग्नि जलती रहती है, खाना पीना तक नहीं सुहाता, नींद उड़ जाती है और दिन-रात प्रेमाश्रु बहते रहते हैं, उन विरहाकुल निष्कपट भक्तों के लिए भगवान भला कैसे निष्ठुर हो सकते हैं ?
रात में महात्मा जी को स्वप्न में ब्राह्मण के ठाकुर जी ने कहा—‘तुम हमें अभी ब्राह्मण के घर पहुंचाओ, नहीं तो प्रात:काल ही तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी ।’
सुबह-सवेरे महात्मा जी ठाकुर जी को लेकर भागते हुए ब्राह्मण के घर पहुंचे और बोले—‘रखो अपने ठाकुर को अपने पास । इन्हें तुम्हारे यहां का रूखा-सूखा भात ही पसंद है, मेरे यहां के पकवान नहीं । भगवान ने स्वयं आदेश किया है कि वे तुम्हारे पास ही रहेंगे ।’
अपने ठाकुर जी को वापिस आया देख कर ब्राह्मण की खुशी का पारावार नहीं रहा और वह उन्हें सिर पर बिठा कर नाचने लगा ।
भगवान श्रीकृष्ण ने दुर्योधन का निमंत्रण अस्वीकार कर भाव शुद्ध होने के कारण विदुर और उनकी पत्नी सुलभा के घर जाकर साग का भोजन किया—‘दुर्योधन की मेवा त्यागी, साग विदुर घर खायो ।’
परमात्मा का दूसरा नाम प्रेम है और वे प्रेमाधीन हैं । वे प्रेम के अतिरिक्त अन्य किसी साधनों से नहीं रीझते हैं । प्रेम से निवेदित किए गए भोजन में वस्तुओं का कोई महत्व नहीं है । बाहरी चीजों जैसे थाली कैसी है, कटोरी कैसी है, गिलास कैसा है, चौकी है कि नहीं, भोजन देखने में सुंदर है की नहीं, भोजन में घी कितना है ?—ये सब चीजें नगण्य हैं; क्योंकि एक साधारण सा भोजन, जो भक्त के प्रेम से सना रहता है, वही वास्तव में भगवान का ‘नैवेद्य’ कहलाने योग्य है ।
भगवान कभी यह नहीं कहते कि तुम मेरे लिए कहीं से जुगाड़ करके लाओ । घर में जो कुछ है उसी को अच्छे भाव से मुझे अर्पण करो । वे तो केवल भाव के भूखे हैं और साधक के मन के भाव ही देखते हैं ।
भाव का भूखा हूँ मैं और भाव ही एक सार है ।
भाव से मुझको भजे तो भव से बेड़ा पार है ।।
भाव बिन सब कुछ भी दे डालो तो मैं लेता नहीं ।
भाव से एक फूल भी दे तो मुझे स्वीकार है ।।
भाव जिस जन में नहीं उसकी मुझे चिन्ता नहीं ।
भाव पूर्ण टेर ही करती मुझे लाचार है ।।
भगवान के पूजन में विधि, मंत्र और सामग्री उतनी महत्वपूर्ण नहीं है, जितना की भाव । भक्त को जो कुछ भी सरलता से प्राप्त हो जाए, वही भक्तिपूर्वक सच्चे हृदय से अर्पण कर देने से भगवान संतुष्ट हो जाते हैं । चाहे कितनी भी उत्तम-से-उत्तम वस्तु भगवान को अर्पण की जाए, भाव बिना वे उसे स्वीकार नहीं करते हैं ।
करमाबाई अपने गोपाल को खिचड़ी का भोग लगाती थी । एक दिन करमाबाई परमात्मा के आनन्दमय धाम में चली गयीं । उस दिन भगवान श्रीजगन्नाथ जी के श्रीविग्रह के नयनों से अविरल अश्रुप्रवाह होने लगा । रात्रि में राजा के स्वप्न में प्रभु बोले–’आज माँ इस लोक से विदा हो गई । अब मुझे कौन खिचड़ी खिलाएगा ?’ उसके गोलोक जाने के बाद अब परमात्मा रो-रोकर उससे खिचड़ी मांगता है ।
शायद इस प्रसंग पर विश्वास करना मुश्किल हो पर इसके द्वारा भगवान अपने भक्तों को यही बताना चाहते हैं कि उस सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान प्रेममय प्रभु को तो प्रेम की भाषा ही समझ में आती है तथा वह प्रेम से ही रीझता है। प्रेम में पागल बने बिना वे मिल नहीं सकते। जिन भक्तों के रोम-रोम में भगवान का प्रेम बहता है, उन्हीं की वात्सल्यमयी गोद में आकर प्रभु बैठते हैं ।
गीता (९।२६) में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है—
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो में भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ।।
अर्थात्—जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्प आदि मैं साकार रूप से प्रकट होकर प्रेमपूर्वक खाता हूँ । इस श्लोक द्वारा भगवान श्रीकृष्ण संसारी प्राणी को शिक्षा देते हैं—‘मैं प्रेम का भूखा हूँ, वस्तुओं का नहीं ।’