एक राजा के मन में यह काल्पनिक भय बैठ गया कि शत्रु उसके महल पर आक्रमण कर उसकी हत्या कर देगा और उसका राज्य छीन लेगा; इसलिए उसने अपने महल की खिड़कियों और रोशनदानों को बंद करवा दिया । महल के मुख्य द्वार को ईंटों से चुनवा दिया । नतीजा यह हुआ कि महल में अंधेरा छा गया । राजा अपनी सुरक्षा के लिए एक-से-एक मूर्खतापूर्ण उपाय करता जा रहा था । असुरक्षा और मृत्यु का काल्पनिक भय उसके मन के भीतर सदैव करवटें लेता रहता; इसलिए उसका मन सदैव अशांत रहता था । जो जितने ऊंचे पद पर होता है उसमें असुरक्षा की भावना भी उतनी अधिक होती है ।
राजा के नौकर-चाकर व मंत्रियों को लगता था कि यह कोई राजमहल न होकर श्मशान की एक कब्र है और हम इस कब्र में रहने वाली जिदा लाश की सेवा कर रहे हैं ।
एक दिन एक सिद्ध संन्यासी राजमहल में आए । राजमहल और राजा की दशा देख कर उन्होंने इसका कारण पूछा ।
राजा ने कहा—‘महाराज ! मुझे सदा मृत्यु का भय रहता है ।’
संन्यासी ने कहा—‘आपकी सोच नकारात्मक है । मृत्यु एक अपरिहार्य सत्य है, जन्म के साथ मृत्यु पहले से ही जुड़ी है । जो जन्मा है, वह मरेगा ही । मनुष्य चाहे अपने को कितना भी सुरक्षित कर ले; फिर भी मृत्यु अवश्यम्भावी है । सृष्टि की रचना करने वाले पितामह ब्रह्मा भी अपनी आयु समाप्त होने पर नहीं रहते; क्योंकि वे भगवान विष्णु के नाभिकमल से उत्पन्न हुए हैं । अत: महाप्रलय में वे भी भगवान विष्णु के शरीर में विलीन हो जाते हैं । अत: साहस को अपनाइए । वीर पुरुषों की मृत्यु तो जीवन में केवल एक बार ही होती है; परंतु कायर की मृत्यु तो हर क्षण होती है । आत्मा अमर है ।
गीता (२।१९) कहती है—‘जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते; क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी के द्वारा मारा जाता है ।’
आगे फिर गीता (२।२२) में भगवान श्रीकृष्ण कहते है—‘जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, उसी प्रकार जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है ।’
मृत्यु एक सरिता है, जिसमें श्रम से कातर जीव नहाकर ।
फिर नूतन धारण करता है कायारूपी वस्त्र बहाकर ।।
यह सुन कर राजा के मन में शांति आ गई और उसका मृत्यु-भय दूर हो गया ।
हम सभी जानते हैं कि मृत्यु एक अपरिहार्य सत्य है । जीवन में सब कुछ प्राप्त कर लेने के बाद भी मृत्यु के बाद
मनुष्य के साथ केवल सूखी लकड़ी ही साथ चलती है ।
कबीर कहते हैं—
प्रान राम जब निकसन लागे,
उलट गयी दोउ नैन पुतरिया ।
भीतर से जब बाहर लाये,
छूट गयी सब महल अटरिया ।।
चार जने मिलि खाट उठाइन,
रोवत ले चले डगर-डगरिया ।
कहहिं कबीर सुनो भाई साधो,
संग चली इक सूखी लकरिया ।।
लेकिन कबीर के मन में मृ्त्यु से भय नहीं आनंद है—
मरने से तो जग डरे मेरे मन आनंद ।
मरने पर ही पायेंगे पूरन परमानंद ।।
मृत्यु आत्मा और परमात्मा का मिलन है । मृत्यु मुक्ति का साधन है । मृत्यु हमें दु: ख से मुक्ति देती है । मनुष्य की मृत्यु तभी सुधरती है, जब उसका जीवन सुधरा हुआ हो । जीवन तब सुधरता है, जब प्रत्येक क्षण सुधरता है । समय उसी का सुधरता है, जो समय का मूल्य जान कर क्षण-क्षण और कण-कण का सदुपयोग करता है । कबीर ने कहा है—
खबर नहीं या जुग में पल की ।
सुकृत कर ले, नाम सुमर ले,
को जाने कल की ।
मृत्यु परमात्मा को बीते हुए जीवन का हिसाब देने का पवित्र दिन है । यह मानव जीवन की अंतिम परीक्षा है । मनुष्य को जीवन भर धीरे-धीरे अपनी मृत्यु की तैयारी करनी चाहिए; लेकिन मनुष्य अपने जीवन में सभी कार्यों—बच्चे के जन्म की, शिक्षा की, विवाह की तैयारी करता है, परन्तु मरने की तैयारी नहीं करता है । इसी कारण अंतकाल निकट जान कर वह घबड़ाता है कि भगवान पूछेंगे मैंने तुम्हें आंखें दी, वाणी दी, कान दिए, तन और मन दिया—तुमने उनका क्या उपयोग किया ? मृत्यु को सुधारना है तो प्रति क्षण अपनी आंख का, वाणी का, हाथ-पैरों का, धन का सदुपयोग करना चाहिए । इनका सदुपयोग कैसे किया जाए ?
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता (१२।८) में कहा है—‘मुझमें मन लगा दो, मुझमें ही बुद्धि लगा दो। ऐसा करने से मुझमें ही निवास करोगे अर्थात् मुझको ही प्राप्त होओगे, इसमें कुछ संशय नहीं है ।’
काम का नाश करके भक्ति और प्रेममय जीवन जो जीता है, वह काल पर भी विजय प्राप्त कर लेता है और उसका मृत्यु-भय छूट जाता है ।
मरते मरते जग मुआ मरनि न जाना कोय ।
ऐसी मरनी मर चलो बहुरि न मरना होय ।।