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भगवान श्रीकृष्ण के कुछ प्रचलित नाम व उनका अर्थ

भगवान श्रीकृष्ण का नाम चिन्तामणि, कल्पवृक्ष है–सब अभिलाषित फलों को देने वाला है। यह स्वयं श्रीकृष्ण है, पूर्णतम है, नित्य है, शुद्ध है, सनातन है । श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु ने अपने ग्रंथ ‘श्रीचैतन्य-चरितामृत’ में कहा है–

सांसारिक तथा आध्यात्मिक सब प्रकार के लाभ देने में श्रीकृष्ण का नाम स्वयं श्रीकृष्ण के समान है । नाम, विग्रह, स्वरूप–तीनों एक हैं; एक ही सत्ता की इन तीन दशाओं में कोई भेद नहीं है । तीनों चिदानन्दरूप हैं ।

भगवान श्रीकृष्ण के कुछ प्रचलित नाम व उनका अर्थ

भगवान के नाम अनन्त हैं, उनकी गणना कर पाना किसी के लिए भी सम्भव नहीं। यहां भगवान श्रीकृष्ण कुछ थोड़े से प्रचलित नामों का अर्थ दिया जा रहा है–

(१) कृष्ण–’कृष्ण’ शब्द की महाभारत में व्याख्या विलक्षण है। भगवान ने इस सम्बन्ध में स्वयं कहा है–’मैं काले लोहे की बड़ी कील बनकर पृथ्वी का कर्षण करता हूँ और मेरा वर्ण भी कृष्ण है–काला है, इसीलिए मैं ‘कृष्ण’ नाम से पुकारा जाता हूँ।

(२) परमात्मा–सृष्टि का जो मूल कारण है; जिसके संसर्ग के बिना प्रकृति में सृजन-क्रिया सम्भव नहीं, उस सर्वव्यापक चित् तत्त्व को परमात्मा कहते हैं।

(३) हरि–इस प्रसिद्ध नाम की व्युत्पत्ति दो प्रकार से दी गयी है–(१) जो यज्ञ में हवि के भाग को ग्रहण करते हैं वे प्रभु यज्ञभोक्ता होने से हरि कहलाए। (२) हरिन्मणि (नीलमणि) के समान उनका रूप अत्यन्त सुन्दर एवं रमणीय है।

(४) अच्युत–जिनके स्वरूप, शक्ति, सौन्दर्य, ऐश्वर्य, ज्ञानादि का कभी किसी काल में, किसी भी कारण से ह्रास नहीं होता, वे भगवान अच्युत कहे जाते हैं।

(५) भगवान–ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य–भगवान इन छहों ऐश्वर्यों से पूर्णतया युक्त हैं।

(६) माधव–मायापति अथवा लक्ष्मीपति होने से भगवान का नाम माधव है।

(७) गोविन्द–भगवान श्रीकृष्ण ने गिरिराज धारण कर इन्द्र के कोप से गोप-गोपी और गायों की रक्षा की। अभिमान-भंग होने पर इन्द्र और कामधेनु ने  उन्हें ‘गोविन्द’ नाम से विभूषित किया। गौओं ने अपने दूध से भगवान श्रीकृष्ण का अभिषेक कर उन्हें गोविन्द–गौओं का इन्द्र बनाया।

(८) गोपाल–गायों का पालन करने वाले।

(९) हृषीकेश–हृषीक कहते हैं इन्द्रियों को। जो मन सहित समस्त इन्द्रियों का स्वामी है, वह हृषीकेश है।

(१०) पृश्निगर्भ–पृश्निगर्भ के अर्थ हैं–अन्न, वेद, जल तथा अमृत। इनमें भगवान निवास करते हैं; अत: पृश्निगर्भ कहलाते हैं।

(११) वासुदेव–जिस प्रकार सूर्य अपनी किरणों से समस्त जगत् को आच्छादित करता है, उसी प्रकार इस विश्व को आच्छादित करने के कारण भगवान ‘वासुदेव’ कहलाते हैं।

(१२) केशव–केशव कहलाने के तीन कारण हैं–(१) अत्यन्त सुन्दर केशों से सम्पन्न होने से ‘केशव’ हैं। (२) केशी के वध के कारण ‘केशव’ हैं। (३) ब्रह्मा, विष्णु और शिव जिसके वश में रहकर अपने कार्यों का सम्पादन करते हैं, वह परमात्मा है केशव।

(१३) ईश्वर–उत्पत्ति, पालन, प्रलय में सब प्रकार से समर्थ होने के कारण ईश्वर कहलाते हैं।

(१४) पद्मनाभ–जिसकी नाभि में जगतकारणरूप पद्म स्थित है, वे पद्मनाभ कहे जाते हैं।

(१५) पद्मनेत्र–कमल के समान नेत्र वाले।

(१६) जनार्दन–जो प्रलयकाल में सबका नाश कर देते हैं अथवा जो अवतार लेकर दुष्टजनों का दमन करते हैं और भक्तलोग जिनकी प्रार्थना करते हैं; वे जनार्दन कहे जाते हैं।

(१७) नारायण–’नार’ कहते हैं–जल को, ज्ञान को और नर को। ज्ञान के द्वारा जिन्हें प्राप्त किया जाय, वे नारायण हैं। और नर के सखा हैं और जल में घर बनाकर (क्षीरसागर में) रहते हैं।

(१८) मुकुन्द–मुक्तिदाता होने से भगवान को मुकुन्द कहा जाता है

(१९) प्रभु–सर्वसमर्थ।

(२०) मधसूदन–प्रलय-समुद्र में मधु नामक दैत्य को मारने वाले।

(२१) मुरारी–मुर दैत्य के नाशक।

(२२) दयानिधि–दया के समुद्र।

(२३) कालकाल–काल के भी महाकाल।

(२४) नवनीतहर–माखन का हरण करने वाले।

(२५) बालवृन्दी–गोप-बालकों के समुदाय को साथ रखने वाले।

(२६) मर्कवृन्दी–वानरों के झुंड के साथ खेलने वाले।

(२७) यशोदातर्जित–यशोदा माता की डांट सहने वाले।

(२८) दामोदर–मैया द्वारा रस्सी से कमर में बांधे जाने वाले।

(२९) भक्तवत्सल–भक्तों से प्यार करने वाले।

(३०) श्रीधर–वक्ष:स्थल में लक्ष्मी को धारण करने वाले।

(३१) प्रजापति–सम्पूर्ण जीवों के पालक।

(३२) गोपीकरावलम्बी–गोपियों के हाथ को पकड़कर नाचने वाले।

(३३) बलानुयायी–बलरामजी का अनुकरण करने वाले।

(३४) श्रीदामप्रिय–श्रीदामा के प्रिय सखा।

(३५) अप्रमेयात्मा–जिसकी कोई माप नहीं ऐसे स्वरूप से युक्त।

(३६) गोपात्मा–गोपस्वरूप।

(३७) हेममाली–सुवर्णमालाधारी।

(३८) आजानुबाहु–घुटने तक लंबी भुजा वाले।

(३९) कोटिकन्दर्पलावण्य–करोड़ों कामदेवों के समान सौन्दर्यशाली।

(४०) क्रूर–दुष्टों को दण्ड देने के लिए कठोर।

(४१) व्रजानन्दी–अपने शुभागमन से सम्पूर्ण व्रज का आनन्द बढ़ाने वाले।

(४२) व्रजेश्वर–व्रज के स्वामी।

जीवन की जटिलताओं में फंसे, हारे-थके, आत्म-विस्मृत सम्पूर्ण प्राणियों के लिए आज के जीवन में भगवन्नाम ही एकमात्र तप है, एकमात्र साधन है, एकमात्र धर्म है। इस मनुष्य जीवन का कोई भरोसा नहीं है। इसके प्रत्येक श्वास का बड़ा मोल है। अत: उसका पूरा सदुपयोग करना चाहिए–

साँस-साँस पर कृष्ण भज, वृथा साँस मत खोय ।

ना जाने या साँस को आवन होय, न होय ।।

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