जयति श्रीराधिके सकल सुखसाधिके
तरुनि मनि नित्य नवतन किसोरी ।
कृष्णतनु लीन मन रूप की चातकी
कृष्णमुख हिमकिरन की चकोरी ।।
कृष्णदृग भंग विश्रामहित पद्मिनी
कृष्णदृग मृगज बंधन सुडोरी ।
कृष्णअनुराग मकरंद की मधुकरी
कृष्णगुणगान रससिंधु बोरी ।।
बिमुख परचित्त ते चित्त जाको सदा
करत निज नाहकी चित्त चोरी ।
प्रकृति यह गदाधर कहत कैसे बनैं
अमित महिमा इते बुद्धि थोरी ।। (श्रीगदाधर भट्ट)
श्रीराधारानी की स्तुति में श्रीगदाधर भट्ट द्वारा लिखा गया यह अत्यंत मधुर पद भक्तों में बहुत ही लोकप्रिय है । श्रीराधाकृष्ण की मधुर उपासना के रसिक भक्त श्रीगदाधर भट्ट श्रीचैतन्य महाप्रभु के समकालीन और उनके विशेष कृपापात्र थे ।
संतों की चाल सदैव उल्टी होती है । जहां सांसारिक लोगों को निंदा रस के बिना भोजन बेस्वाद लगता है, वहां ‘दोषों में गुण देखना’, ‘बुराई में अच्छाई देखना’ संतों का स्वभाव होता है । ‘संत हृदय नवनीत समाना’ अर्थात् संतों के हृदय में तो केवल मधुरा-भक्ति का नवनीत ही होता है जो कि उन्हें सदैव ही कोमल और करुणा से ओत-प्रोत रखता है ।
श्रीगदाधर भट्ट का संत हृदय भी ऐसा ही था—
भट्ट गदाधर साधु अति, विद्या भजन प्रबीन ।
सरस कथा, बानी मधुर, सुनि रुचि होत नबीन ।।
भट्टजी का कण्ठ बड़ा ही मधुर था; इसलिए वे बहुत सुन्दर भागवत-कथा कहते थे । उनकी कथा में श्रीराधाकृष्ण के भक्ति रस की ऐसी वर्षा होती थी कि कथा सुनते-सुनते लोगों की आंखों से प्रेमाश्रुओं की झड़ी लग जाती थी । वृन्दावनधाम तो सदा से भक्तजनों का प्रिय केन्द्र रहा है, अत: जो भी यात्री वृन्दावन आता, वह श्रीगदाधर भट्टजी की कथा सुनने अवश्य ही जाता था ।
एक दिन कहीं से एक वैष्णव महंत कथा में आए । भट्टजी ने बड़े आदरपूर्वक उन्हें आगे आसन पर बैठाया । महंतजी ने देखा कि कथा सुनते समय सभी के नेत्रों से अश्रुपात हो रहा है, केवल उनकी आंखों में अश्रु नहीं आए । इससे उन्हें बड़ी लज्जा मालूम हुई कि लोग कहेंगे, इसमें जरा भी भक्ति-भाव नहीं है ।
अपना दोष कोई नहीं देख पाता । अपना व्यवहार सभी को अच्छा मालूम होता है किन्तु जो मनुष्य सब हालत में अपने को छोटा समझता है और अपने दोष भी देख सकता है, वही महान संत है ।
दूसरे दिन महंतजी जब कथा सुनने गए तो अपने वस्त्रों में गुप्त रूप से एक छोटी-सी पोटली में थोड़ी-सी पिसी लाल मिर्च बांध कर ले गए । कथा में जब भी कोई रस का प्रसंग आता, तभी वह नेत्र और मुख पोंछने के बहाने उस पोटली को आंखों पर फेर लेते; इससे उसकी आंखों से अश्रु निकलने लगते ।
पास ही बैठे हुए एक व्यक्ति ने उन्हें यह सब करते हुए देख लिया । उसने सोचा कि ये महंतजी सबको अपने झूठे आंसू दिखाने के लिए ऐसा करते हैं ।
कथा समाप्त होने पर जब सब लोग चले गए, तब वह व्यक्ति भट्टजी के पास जाकर बोला—‘महाराज ! यह जो महंत आगे बैठा था, बड़ा ही पाखण्डी है । वह वस्त्र में मिर्च की पोटली रख कर लाया था और उसी को आंखों पर रगड़-रगड़ कर लोगों को दिखाने के लिए अश्रु बहा रहा था ।’
शिकायत करने वाले व्यक्ति ने सोचा—भट्टजी महंत की यह करतूत सुन कर उनसे घृणा करेंगे । परन्तु भट्टजी ने इस बात को दूसरे ही रूप में समझा ।
‘दोषों में गुण देखना’ संत का सहज स्वभाव होता है
साधारण व्यक्ति दूसरों के गुणों में भी दोष ढूंढ़ना चाहते हैं; किंतु महापुरुषों के मन में ही जब दोष और दम्भ नहीं, तब उन्हें दूसरों के दोष और दम्भ दीखें कहां से । उन्हें तो सब जगह गुण-ही-गुण दिखाई पड़ते हैं ।’
भट्टजी ने शिकायत करने वाले व्यक्ति से कहा—‘तब तो वे बहुत बड़े महात्मा हैं, मैं अभी उनके दर्शन के लिए जाता हूँ ।’
भट्टजी उसी समय महंतजी के घर पहुंचे और उनको दण्डवत् प्रणाम किया । भट्टजी को घर पर देख कर महंतजी सोचने लगे—‘हो-न-हो, इन्हें मेरी चाल मालूम हो गयी है, न मालूम अब ये क्या कहेंगे ? हे भगवन् ! आपने मेरा हृदय इतना कठोर क्यों बनाया जो वह श्रीराधाकृष्ण की इतनी रसमयी लीला सुन कर भी नहीं पिघलता है ?’
भट्टजी ने महंतजी से कहा—‘महंतजी ! आप सचमुच बहुत बड़े महात्मा हैं, मुझे तो आपके इतने उच्च भाव का आज पता चला । अब तक मैंने सुना ही था कि जो अंग भगवान की सेवा में न लगे, उनके प्रेम से द्रवित न हो, वह दण्डनीय है; पर मैंने आज आपको प्रत्यक्ष रूप से इस आदर्श पर चलते देखा । भक्त बिल्वमंगल ने स्त्री-दर्शन से दु:खी होकर करील के कांटों से अपनी आंखें फोड़ लीं थी; आपने तो आंखों को इसलिए दण्ड दिया कि वे भगवान के गुणानुवाद और लीलाओं को सुनकर भी आंसू नहीं बहाती हैं । धन्य है आपको और आपकी भक्ति को ! मैं तो आप जैसे महापुरुष के दर्शन कर कृतार्थ हो गया ।’
यह कह कर भट्टजी ने अपनी दोनों भुजाओं में महंतजी को भर कर हृदय से लगा लिया । भट्टजी की सरल और प्रेमपूर्ण वाणी सुन कर और उनके अंगस्पर्श से आज सचमुच महंतजी का हृदय पिघल गया और उनकी आंखों से अश्रुधारा बह निकली ।
दोष में गुण देखना—यही संत का सहज स्वभाव है ।
श्रीगदाधर भट्ट के सम्बंध में भक्तमाल के रचयिता श्रीनाभाजी ने लिखा है—
सज्जन सुहृद सुसील बचन आरज प्रतिपालय ।
निर्मत्सर निष्काम कृपा करुणा को आलै ।।
भट्टजी सभी सद्गुणों से पूर्ण और सभी को सुख देने वाले थे । स्वभाव से सज्जन, सबके मित्र, सदाचारी, और पूर्व के आचार्यों के वचनों का पालन करने वाले, ईर्ष्या, कामना आदि दुर्गुणों से रहित, कृपा और करुणा के निधान थे । सम्पूर्ण पृथ्वी ऐसे संतों को पाकर धन्य हो जाती है ।