वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्।
देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्।।
माता-पिता अपने पुत्र का जगत् में प्रकाश करते हैं, इसी से वे पुत्र के प्रकाशक कहे जाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण के माता-पिता श्रीभगवान को जगत् में प्रकट करते हैं, अत: वे भी भगवान के प्रकाशक हैं। लेकिन भगवान स्वयं प्रकाशक हैं, उनकी ज्योति (अंग-छटा) से ही सम्पूर्ण विश्व प्रकाशित है। अतएव वसुदेव-देवकीरूप भगवान के माता-पिता भी भगवान की सच्चिदानन्दमयी स्वप्रकाशिका शक्ति ही हैं।
वसुदेव-देवकी : परिचय
यदुवंश में शूरसेन नाम के एक पराक्रमी क्षत्रिय हुए। उनकी पत्नी का नाम मारिषा था। उनके दस पुत्र हुए। वसुदेवजी उनके सबसे श्रेष्ठ पुत्र थे। इनका विवाह देवक की सात कन्याओं से हुआ। वसुदेवजी की पौरवी, रोहिणी, भद्रा, मदिरा, रोचना, इला और देवकी ये सात पत्नियां थीं।
महाराज उग्रसेन के एक भाई थे, उनका नाम देवक था। देवकीजी उन्हीं की पुत्री थीं देवकीजी के आठ पुत्र हुए–कीर्तिमान्, सुषेण, भद्रसेन, ऋृजु, सम्मर्दन, भद्र, संकर्षण तथा आठवें स्वयं भगवान। वसुदेव-देवकीजी की सुभद्रा नाम की एक कन्या भी थी। कंस देवकीजी का चचेरा भाई था। ये कंस से छोटी थीं, अत: वह इन्हें बहुत प्यार करता था।
देवकीजी को श्रीमद्भागवत में ‘देवरूपिणी’ कहा गया है। इसका भाव यह है कि वह दिव्य स्वरूप हैं, उनकी देह हमारी तरह प्राकृत नहीं है, शुद्ध सच्चिदानन्द है। तभी उनके सामने उनके पुत्र रूप में स्वप्रकाश भगवान का आविर्भाव हुआ है।
वसुदेव शुद्ध सत्त्वगुण का स्वरूप हैं। विशुद्ध चित्त ही वसुदेव हैं। देवकी निष्काम बुद्धि हैं। इन दोनों के मिलन होने पर ही भगवान का जन्म होता है। कंस अभिमान है। वह जीवमात्र को बंद किए रहता है। वसुदेव-देवकीजी कारावास में भी जाग्रत थे। संसार में जो जागता है वही भगवान को पा सकता है।
‘जो जागत है सो पावत है, जो सोवत है सो खोवत है’
देवकीजी के छ: पुत्रों को जन्म होते ही क्रूर कंस ने एक-एक करके मार दिया। भगवान के आदेश से देवकीजी के सप्तम गर्भ को महामाया ने वसुदेवजी की दूसरी पत्नी रोहिणीजी के गर्भ में स्थापित कर दिया। इसलिए इनका नाम ‘संकर्षण’ पड़ा। तदनन्तर भगवान वसुदेवजी के मन में आकर उनके मन से देवकीजी के मन में आ गए। वे प्राकृत जीवों की भांति गर्भस्थ नहीं हुए। यद्यपि देवकीजी को लीला से गर्भस्थिति सी प्रतीत हुई। एक दिन देवताओं ने कंस के कारागार में आकर स्तुति की जो ‘गर्भस्तुति’ के नाम से विख्यात है।
सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं
सत्यस्य योनिं निहितं च सत्ये।
सत्यस्य सत्यमृतसत्यनेत्रं
सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्ना:।। (श्रीमद्भागवत)
‘प्रभो ! आप सत्यसंकल्प हैं। सत्य ही आपकी प्राप्ति का श्रेष्ठ साधन है। सृष्टि के पूर्व, प्रलय के पश्चात् और संसार की स्थिति के समय भी आप सत्य हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश–इन पाँच सत्यों के आप ही कारण हैं और उनमें अन्तर्यामी रूप से विराजमान भी हैं। आप इस दृश्यमान जगत् के परमार्थस्वरूप हैं। आप ही मधुर वाणी और समदर्शन के प्रवर्तक हैं। आप तो बस सत्यस्वरूप ही हैं। हम सब आपकी शरण में आये हैं।’
वसुदेव-देवकीजी के सामने भगवान शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी चतुर्भुज अद्भुत बालक के रूप में आविर्भूत हुए। इसके रोम-रोम में ब्रह्माण्ड है। यह बालक होने पर भी साक्षात् ब्रह्म है। कोई भी बालक जब पैदा होता है तो उसकी आँखें बन्द होती हैं, लेकिन इसके नेत्र खिले हुए कमल के समान हैं। इसकी चार भुजाएं हैं मानो चारों पुरुषार्थ अपने हाथ में लेकर जीवों को बांटने आये हैं। शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी हैं। वर्षा के मेघ के समान सुन्दर कान्ति और पीताम्बरधारी है। वक्ष:स्थल पर श्रीवत्स का चिह्न और गले में कौस्तुभ मणि है जिसमें न कोई छेद है न ही कोई रस्सी क्योंकि भगवान को न तो छिद्र पसन्द हैं न ही कोई बन्धन। वसुदेवजी यह सब देखकर चकित रह गये। फिर उनको ऐसा आनन्द आया कि उन्होंने तुरन्त दस हजार गोदान का संकल्प कर दिया।
भगवान के इस ऐश्वर्यमय रूप को देखकर उन्होंने समझा कि भगवान नारायण हमारे पुत्ररूप में प्रकट हुए हैं अत: उन्होंने हाथ जोड़कर उनकी स्तुति की और भगवान ने भी पूर्वजन्मों की याद दिलाकर अपने साक्षात् भगवान होने का परिचय दिया। फिर वात्सल्यभाव का उदय होने पर कंस के भय से उन्होंने भगवान से बार-बार चतुर्भुजरूप को छिपाकर द्विभुज साधारण शिशु बनने के लिए अनुरोध किया।
जे वसुदेव किये पुरण तप सो फल फलित श्री वल्लभदेह।
जे गोपाल हुते गोकुल में ते अब आन बसे करगेह।।
जे वे गोप वधू ही ब्रज में सो अब वेद ऋचा भई जेह।
छीतस्वामी गिरिधर विट्ठल तेई एई एई तेई कछु न संदेह।।
इससे सिद्ध होता है कि वसुदेव-देवकीजी का आराध्य भगवान का चतुर्भुजरूप ही था और वे उसे ही पुत्र रूप में प्राप्त करना चाहते थे क्योंकि प्रसिद्ध है कि भगवान उसी रूप में भक्तों के सामने प्रकट होते हैं, जो रूप भक्त के मन में होता है। श्रीमद्भागवत में ब्रह्माजी कहते हैं–
यद् यद् धिया त उरुगाय विभावयन्ति।
तद् तद् वपु: प्रणयसे सदनुग्रहाय।।
अर्थात् भगवन् ! आपके भक्त जिस स्वरूप की निरन्तर भावना करते हैं, आप उसी रूप में प्रकट होकर भक्तों की कामना पूर्ण करते हैं।
इस प्रकार श्रीदेवकीजी और श्रीवसुदेवजी का वात्सल्य-प्रेम ऐश्वर्य-ज्ञान मिश्रित था। इससे समय-समय पर उन्हें अपने पुत्र में भगवान का बोध भी हुआ करता था। इसी से वे लालन-पालन के साथ ही उनकी स्तुति-प्रार्थना भी करते थे।
भगवान ब्रज में ही बड़े हुए। वसुदेव-देवकीजी अपने हृदय के टुकड़े को देखने के लिए तरसते रहे। कंस को मारकर जब भगवान देवकीजी और वसुदेवजी के पास आए तो उन्होंने अत्यन्त स्नेह प्रदर्शित करते हुए कहा–
‘हम ही बड़े मंदभागी हैं जो हमने बालकपन में आपके घर में सुख नहीं पाया। माता-पिता के समीप बालक को कितनी प्रसन्नता होती है, कितना सुख मिलता है। सो हमलोग कंस से डरे हुए दूर-ही-दूर रहे। आप हमारे लिए तड़फड़ाते रहे और हम आपके लिए छटपटाते रहे। उस दुष्ट के द्वारा सताये हुए आपकी बिना सेवा किए, आपको बिना सुख पहुँचाए, हमारे ये दिन व्यर्थ ही गए। हे माता-पिता हमारे इस विवशताजनित अपराध को क्षमा करें।’ (श्रीमद्भागवत)
भगवान जब मथुरा छोड़कर द्वारका पधारे तो देवकीजी द्वारका में ही भगवान के पास रहतीं और पुत्र की तरह ही उनको स्नेह करती थीं। पर भगवान तो उन्हें असली ज्ञान कराना चाहते थे, अत: उनके मन में एक प्रेरणा दी। देवकीजी ने जब सुना कि उनके पुत्र ने गुरुदक्षिणा में गुरु के मृत पुत्र को ला दिया तो उन्होंने भी प्रार्थना की कि मेरे भी जो पुत्र कंस के द्वारा मारे गए हैं, उन्हें ला दो। माता की प्रार्थना सुनकर श्रीकृष्ण बलदेवजी के साथ पाताललोक में गये और वहां से उन पुत्रों को ले आए। अब माता को ज्ञान हुआ कि ये मेरे साधारण पुत्र नहीं हैं, ये तो चराचर जगत् के स्वामी हैं। विश्व के एकमात्र अधीश्वर हैं। माता की ममता दूर हो गयी और वह भगवान के ध्यान में मग्न हो गयीं।
भगवान् ने कुरुक्षेत्र में ऋषियों द्वारा वसुदेवजी को तत्त्वबोध कराया। भगवान ने स्वयं कहा–
‘हे पिता ! हे यदुश्रेष्ठ ! मैं, आप सब, बलदेवजी, समस्त द्वारकावासी, यहां तक कि सम्पूर्ण जगत्–ये सब एक ही हैं ऐसा जानो। आत्मा एक है, स्वयंज्योति है, नित्य है, अनन्य तथा निर्गुण है, किन्तु नाना शरीरों में वह नाना रूपों में भासता है।’
अन्त में जब प्रभासक्षेत्र की महायात्रा हुई और उसमें सब यदुवंशियों का नाश हो गया तब भगवान भी अपने लोक को चले गए। तब दारुक ने यह समाचार वसुदेव-देवकीजी को सुनाया। वे दौड़े-दौड़े प्रभासक्षेत्र में आए। वहां आनन्दकंद कृष्ण और बलराम को न देखकर उनके विरह में वसुदेव-देवकीजी ने इस पंचभौतिक शरीर को उसी क्षण त्याग दिया और श्रीकृष्ण के नित्य निवास को चले गए।
वसुदेव-देवकी के तीन जन्मों की कथा
श्रीभगवान जब कारागार में वसुदेव-देवकीजी के सामने चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए तो उन्होंने कहा–देवि स्वायम्भुव मन्वन्तर में आपका नाम पृश्नि था वसुदेवजी सुतपा नाम के प्रजापति थे। तुम दोनों ने देवताओं के बारह हजार वर्षों तक कठिन तप करके मुझे प्रसन्न किया। क्योंकि तुम दोनों ने तपस्या, श्रद्धा और प्रेममयी भक्ति से अपने हृदय में निरन्तर मेरी भावना की थी, इसलिए मैं तुम्हें वर देने के लिए प्रकट हुआ। मैंने कहा कि ‘तुम्हारी जो इच्छा हो सो मुझसे माँग लो’, तब तुम दोनों ने मेरे जैसा पुत्र माँगा। उस समय मैं ‘पृश्निगर्भ’ के नाम से तुम दोनों का पुत्र हुआ।
भगवान श्रीकृष्ण ने विचार किया कि मैंने इनको वर तो यह दे दिया कि मेरे सदृश पुत्र होगा, परन्तु इसको मैं पूरा नहीं कर सकता। क्योंकि वैसा कोई है ही नहीं। किसी को कोई वस्तु देने की प्रतिज्ञा करके पूरी न कर सके तो उसके समान तिगुनी वस्तु देनी चाहिए। मेरे सदृश्य पदार्थ के समान मैं ही हूँ। अतएव मैं अपने को तीन बार इनका पुत्र बनाऊँगा।
फिर दूसरे जन्म में तुम हुईं अदिति और वसुदेव हुए कश्यप। उस समय भी मैं तुम्हारा पुत्र हुआ। मेरा नाम था ‘उपेन्द्र’। शरीर छोटा होने के कारण लोग मुझे ‘वामन’ भी कहते थे। तुम्हारे इस तीसरे जन्म में भी मैं उसी रूप में फिर तुम्हारा पुत्र हुआ हूँ। मैंने तुम्हें अपना यह रूप इसलिए दिखला दिया है कि तुम्हें मेरे पूर्व अवतारों का स्मरण हो जाय। अन्यथा मेरे जन्म का ज्ञान किसी को नहीं होता। तुम दोनों मेरे प्रति पुत्रभाव से स्नेह करना तथा निरन्तर ब्रह्मभाव से चिन्तन करना।
इस प्रकार अनेक बातें बताकर उन्हें समझाया और माता देवकी के कहने से भगवान ने बालरूप धारण कर लिया।
वसुदेव-देवकीजी के बराबर कौन भाग्यवान् हो सकता है, जिन्हें वे अखिलब्रह्माण्डनायक सदा माता-पिता कहकर पुकारा करते थे।
bahut achchha. Jnanawardhak.sadhuvad
Very nice article.
जय श्री कृष्ण।
Apke is adhytmic pravh ki aaj ke samay me prag avshykata hai .Hamari aane vali agali pidhi tak. yah gyan phucha sakte hai.Apki is yatra me ham.apke satha hai
Pranam apko Ashutosh dixit khadagda Dist Dungarpur M.N.9983830088
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