जिनको मुनियों के मनन में नहिं आते देखा।
गोकुल में उन्हें गाय चराते देखा।
हद नहीं पाते हैं अनहद में भी योगी जिनकी।
तीर यमुना के उन्हें वंशी बजाते देखा।
जिनकी माया ने चराचर को नचा रखा है
गोपियों में उन्हें खुद नाचते गाते देखा।
जो रमा के हैं रमण, विश्व के पति ‘राधेश्याम’।
ब्रज में आके उन्हैं माखन को चुराते देखा।
श्रीकृष्ण चरित्र में अद्भुत विरोधाभास
भगवान श्रीकृष्ण के जीवन की प्रत्येक लीला में विलक्षणता दिखाई देती है। वह अजन्मा होकर पृथ्वी पर जन्म लेते हैं, सर्वशक्तिमान होने पर भी कंस के कारागार में जन्म लेते हैं। माता पिता हैं देवकी और वसुदेव; किन्तु नन्दबाबा और यशोदा द्वारा पालन किए जाने के कारण उनके पुत्र ‘नंदनन्दन’ और ‘यशोदानन्दन’ कहलाते हैं। राक्षसी पूतना ने अपने स्तनों में कालकूट विष लगाकर श्रीकृष्ण को मार डालने की इच्छा से स्तनपान कराया किन्तु दयामय कृष्ण ने मातावेष धारण करने वाली पूतना को माता के समान सद्गति दे दी। ऐसा अद्भुत और दयालु चरित्र किसी और देवता का नहीं है।
योगमाया के स्वामी होने से श्रीकृष्ण समस्त सृष्टि को बंधन में रखने की क्षमता रखते हैं, फिर भी स्वयं माता के द्वारा ऊखल से बांधे जाते हैं और ‘दामोदर’ कहलाते हैं। तीन पग भूमि मांग कर जिसने राजा बलि को छला वे नन्दभवन की चौखट नहीं लांघ पाते–
तीन पैंड़ भूमि मांगि बलि लियौ छलि,
चौखट न लांघी जाय रहयौ सो मचलि।
नन्दरायजी नौ लाख गायों के स्वामी और व्रजराज हैं, फिर भी श्रीकृष्ण स्वयं गाय चराने जाते हैं। श्रीकृष्ण माता यशोदा से कहते हैं–
मैया री! मैं गाय चरावन जैहों।
तूं कहि, महरि! नंदबाबा सौं, बड़ौ भयौ, न डरैहों।।
जो ‘सहस्त्राक्ष’ हैं, सारे संसार पर जिनकी नजर रहती है, उन श्रीकृष्ण को यशोदामाता डिठौना लगाकर नजर उतारती हैं। आसुरीमाया से श्रीकृष्ण की रक्षा के लिए रक्षामन्त्रों से जल अभिमन्त्रित कर उन्हें पिलाती हैं; इतना ही नहीं–
देखौ री जसुमति बौरानी,
घर-घर हाथ दिखावति डोलति,
गोद लियें गोपाल बिनानी।।
जगत के पालनहार व पोषणकर्ता होने पर भी श्रीकृष्ण व्रजगोपिकाओं के यहां दधि-माखन की चोरी करते हैं। स्वयं के घर में दूध, दही माखन का भंडार होने पर भी गोपियों से एक छोटा पात्र छाछ की याचना करते हैं और उसके लिए गोपिकाओं के सामने नाचने को तैयार हो जाते हैं–
ब्रज में नाचत आज कन्हैया मैया तनक दही के कारण।
तनक दही के कारण कान्हां नाचत नाच हजारन।।
नन्दराय की गौशाला में बंधी हैं गैया लाखन।
तुम्हें पराई मटुकी को ही लागत है प्रिय माखन।।
गोपी टेरत कृष्ण ललाकूँ इतै आओ मेरे लालन।
तनक नाच दे लाला मेरे, मैं तोय दऊँगी माखन।। (रसिया)
प्रेम की झिड़कियाँ भी मीठी होती हैं–मार भी मीठी लगती है। सलोना श्यामसुन्दर व्रजमण्डल के प्रेमसाम्राज्य में छाछ की ओट से इसी रस के पीछे अहीर की छोकरियों के इशारों पर तरह-तरह के नाच नाचता-फिरता है–‘ताहि अहीरकी छोहरियाँ, छछियाभरि छाछपै नाच नचावैं’ (रसखान) और श्रीकृष्ण एक होकर ही असंख्य गोपियों के साथ असंख्य रूपों में रासक्रीडा करते हैं।
परब्रह्म श्रीकृष्ण की लीला से दुर्वासा ऋषि भी हुए भ्रमित
दुर्वासा ऋषि गोकुल में परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण के दर्शनों की अभिलाषा से आते हैं, किन्तु उन्होंने परब्रह्म को किस रूप में देखा!–सारे अंग धूलधूसरित हो रहे हैं, केश बिखरे हुए, श्रीअंग पर कोई वस्त्र नहीं, दिगम्बर वेष है, और सखाओं के साथ दौड़े जा रहे हैं।
मुनि ने सोचा–’क्या ये ईश्वर हैं? अगर भगवान हैं तो फिर बालकों की भांति पृथ्वी पर क्यों लोट रहे हैं? दुर्वासा ऋषि भगवान की योगमाया से भ्रमित होकर कहने लगे–’नहीं, ये ईश्वर नहीं! ये तो नन्द का पुत्रमात्र है।’
प्रकृति की पाठशाला से पढ़ा जीवन का पाठ
यह एक विलक्षण बात थी कि राज-परिवार के स्नेह-सत्कार को छोड़कर गोपों के बीच जन्म से ही संघर्ष का पाठ पढ़ने के लिए भगवान कृष्ण मथुरा से गोकुल आ गए। जिस व्यक्ति को आगे चलकर राजनीति की दृढ़ स्थापना और एक उच्च जीवनदर्शन स्थापित करना था; उन्होंने अपना आरम्भिक जीवन बिताने के लिए गो-पालकों का नैसर्गिक जीवन और प्रकृति का सुन्दर वातावरण चुना क्योंकि उन्हें पहले पृथ्वी से सहज रस लेना था। अत: वन उनकी पहली पाठशाला थी और उनके शिक्षक मुक्त और निर्भीक गो-पालक थे। सांदीपनि ऋषि की पाठशाला में दाखिल होने से पहले ही वे जीवन की पाठशाला से स्नातक हो चुके थे।
वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्।
देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्।।
मुरली का माधुर्य और पांचजन्य-शंख का घोर निनाद
श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व में हृदय को विमुग्ध करने वाली बांसुरी और शौर्य के प्रतीक सुदर्शन चक्र का अद्भुत समन्वय हुआ है। कहां तो यमुनातट और निकुंज में मुरली के मधुरनाद से व्रजबालाओं को आकुल करना और कहां पांचजन्य-शंख के भीषण निनाद से युद्धक्षेत्र को प्रकम्पित करना। अपने मुरलीनाद से जहां उन्होंने धरती के सोये हुए भाव जगाये; वहीं पांचजन्य के शंखनाद से, कौमोदकी गदा के भीषण प्रहार से, शांर्गधनुष के बाणों के आघात से, धूमकेतु के समान कृपाण से और अनन्त शक्तिशाली सुदर्शन चक्र से भारतभूमि को अत्याचारी, अधर्मी व लोलुप राजाओं से विहीन कर दिया। अतुल नेतृत्व-शक्ति रखते हुए भी दूत और सारथि का काम किया और युधिष्ठिर के राजसूय-यज्ञ में अग्रपूजा के योग्य माने जाने पर भी जूठी पत्तलें उठाने का कार्य किया। चरित्र की ऐसी विलक्षणता और कहीं देखने को नहीं मिलती।
श्रीकृष्ण का अद्भुत अनासक्ति योग
श्रीकृष्ण की जीवन को तटस्थ (सम) भाव से देखने की प्रवृति की शुरुआत तो जन्मकाल से ही हो गयी थी। जन्म से ही माता-पिता की ममता छोड़ नन्द-यशोदा के घर रहे। सहज स्नेह रखने वाली गोपियों से नाता जोड़ा और उन्हें तड़पता छोड़ मथुरा चले गए। फिर मथुरा को छोड़ द्वारका चले आए परन्तु यदुकुल में कभी आसक्त नहीं रहे। कोई भी स्नेह उन्हें बांध न सका। पाण्डवों का साथ हुआ पर पाण्डवों को महाभारत का युद्ध जिताकर उन्हें छोड़कर चले गए। पृथ्वी का उद्धार किया और पृथ्वी पर प्रेमयोग व गीता द्वारा ज्ञानयोग की स्थापना की; पर पृथ्वी को भी चुपचाप, निर्मोही होकर छोड़कर चले गये। ममता के जितने भी प्रतीक हैं, उन सबको उन्होंने तोड़ा। गोरस (दूध, दही, माखन) की मटकी को फोड़ने से शुरु हुआ यह खेल, कौरवों की अठारह अक्षौहिणी सेना के विनाश से लेकर यदुकुल के सर्वनाश पर जाकर खत्म हुआ।
द्वारकालीला में सोलह हजार एक सौ आठ रानियां, उनके एक-एक के दस-दस बेटे, असंख्य पुत्र-पौत्र और यदुवंशियों का लीला में एक ही दिन में संहार करवा दिया, हंसते रहे और यह सोचकर संतोष की सांस ली कि पृथ्वी का बचा-खुचा भार भी उतर गया। क्या किसी ने ऐसा आज तक किया है? वही श्रीकृष्ण अपने प्रिय सखा उद्धवजी को व्रज में भेजते समय कहते हैं–’उद्धव! तुम व्रज में जाओ, मेरे विरह में गोपिकाएं मृतवत् पड़ी हुईं हैं, मेरी बात सुनाकर उन्हें सांन्त्वना दो।’
भगवान की सारी लीला में एक बात दिखती है कि उनकी कहीं पर भी आसक्ति नहीं है। इसीलिए महर्षि व्यास ने उन्हें प्रकृतिरूपी नटी को नचाने वाला सूत्रधार और ‘कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्’ कहा है।
यही कारण है कि प्रत्येक भारतीय माता अपनी गोद श्रीकृष्ण के बालरूप (गोपालजी) से ही भरना चाहती है और प्रत्येक स्त्री अपने प्रेम में उसी निर्मोही के मोहनरूप की कामना करती है।
रम रहे विश्व में, फिर भी
रहते हो न्यारे-न्यारे।
पर सुना प्रेम के पीछे
फिरते हो मारे-मारे।। (पं रामसेवक त्रिपाठी)
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