shiv ji

जाने वो कैसे भक्त थे जिनको खुद भगवान मिला।
हमने तो जब-जब दर्शन मांगा साफ हमें इनकार मिला।।
किसको भक्ति कहते हैं प्रभो आके बता जाओ।
गीता वाला वायदा प्रभो तुम आके निभा जाओ।।

भक्त के वश में हैं भगवान

भगवान को अपने भक्त अत्यन्त प्रिय हैं। वे कहते हैं—‘मैं सर्वथा भक्तों के अधीन हूँ। मुझमें तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं है। मेरे सीधे-सादे सरल भक्तों ने मेरे हृदय को अपने हाथ में कर रखा है। भक्तजन मुझसे प्यार करते हैं और मैं उनसे।’

भगतिवंत अति नीचउ प्रानी।
मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी।।(श्रीरामचरितमानस)

विद्यापति के पदों को सुनने के लिए भोलेनाथ ने धरा सेवक ‘उगना’ का रूप

पन्द्रहवीं सदी में प्रसिद्ध मैथिल कवि पण्डित विद्यापतिमिश्र अद्भुत शिवभक्त थे। वे भोलेनाथ के समक्ष मधुर कण्ठ से कीर्तन करते और उनकी आंखों से झर-झर आंसू बहते रहते—

मन विद्यापति मोर भोलानाथ गति।
देहु अभय वर मोहि, हे भोलानाथ।।

वे सदैव अपने आराध्य भगवान शिव के इतने भावपूर्ण पद लिखते रहते कि भोलेशंकर उन्हें सुनने के लिए लालायित रहते थे। भक्ति जिसके प्रति होती है, उसे भी नित्य रस मिलता है और जिसको होती है, उसे भी रस मिलता है। इसी रस के लालच में भगवान भोलेशंकर अपने भक्त की चाकरी करने में भी नहीं हिचकिचाए।

एक दिन पण्डितजी ऐसे ही भावपूर्ण पद लिख रहे थे कि एक आदमी वहां आया। जितना वह सुन्दर था उसकी मीठी बोली उतनी ही मन्त्रमुग्ध करने वाली थी। उसने पण्डितजी से कोई काम देने का आग्रह किया। पण्डितजी ने कहा—‘मेरे यहां तो कोई काम नहीं है, मैं तो बस शिवाराधन करता हूँ।’

परन्तु आगन्तुक जिद पर अड़ा रहा कि मुझे तो अपनी सेवा में रख ही लीजिए। आपका काम पूरा कर मैं पण्डिताइनजी का भी हाथ बंटा दिया करुंगा। कुछ काम न हो तो मैं आपके यहां झाड़ू लगा दिया करुंगा। उसके आग्रह को देखकर पण्डितजी ‘ना’ न कह सके और बोले—‘तुम लोगे क्या?’

आगन्तुक ने कहा—‘कुछ नहीं। खाना-पीना और लंगोट।’ पण्डितजी ने पूछा—‘तुम्हारा नाम क्या है?’ उसने उत्तर दिया—‘उगना।’

(अलग-अलग पुस्तकों में तीन नाम मिलते हैं—उगना, उदना, उधना परन्तु उगना नाम ही ज्यादा प्रयोग हुआ है।)

अब घर में तीन प्राणी हो गए। पण्डितजी लिखते थे और उगना उनका बिस्तर साफ कर देता, स्याही भर देता। बचे समय में पण्डिताइन उगना से झाड़ू लगवा लेतीं।

एक दिन पण्डितजी को किसी कार्य से बाहर जाना पड़ा। गर्मी की भरी दुपहरी में पण्डितजी जंगल के रास्ते में पद गाते हुए चले जा रहे थे और सेवक पीछे पण्डितजी पर छतरी तान कर चल रहा था। तभी पण्डितजी को बहुत जोर से प्यास लगी। उन्होंने कहा—‘उगना! भैया! पानी पिला सकोगे? बड़ी प्यास लगी है।’

आस-पास कुंआ या तालाब कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। उगना से अपने स्वामी का कष्ट देखा नहीं गया और बोला—‘मैं अभी आता हूँ।’ ऐसा कहकर वह पानी लेने चला गया।

थोड़ी दूर जाकर वृक्षों की ओट में उगना ने अपने दांये पैर का अंगूठा पृथ्वी पर जोर से दबाया और गंगा की धार जमीन से फूटकर लोटे में समा गयी। उगना जल का लोटा लेकर पण्डितजी के पास आया और उन्हें जल पीने के लिए दिया। विद्यापति जल पीने लगे, साथ ही मन में सोचने लगे—‘जल का स्वाद भी कहीं इतना मधुर होता है! यह तो निश्चय ही भागीरथी का जल है।’

विद्यापति ने उगना से पूछा—‘यह जल तुम कहां से लाए?’ उगना ने कहा—‘पास के ही एक कुएं से लाया हूँ।’ विद्यापति एकटक अपने सेवक को देख रहे थे। वे गंगाजल और कुएं के जल का भेद न कर सकें, यह तो संभव नहीं। उन्हें उगना पर संदेह हो गया कि इस जंगल में गंगाजल जैसा पवित्र जल कहां से आया।

पण्डितजी उगना से कुएं के पास ले चलने की जिद करने लगे पर उगना टालमटोल करने लगा। पण्डितजी का सन्देह विश्वास में बदल गया। पण्डितजी ने डबडबायी आंखों से कहा—‘उगना तुम कौन हो?’

भगवान शिव ने विद्यापति को दिखाया अपना वास्तविक स्वरूप

भोलेशंकर झूठ कैसे बोलते, भगवान शिव को अपना स्वरूप प्रकट करना पड़ा। उनकी जटा से गंगा की धारा प्रवाहित होकर आकाश में विलीन होने लगी। जिसको स्वयं भगवान अपना प्रिय मानें, उसे भगवान सुलभ हो जाते हैं—

‘विद्यापति! मैं तुम्हारी सेवा में ‘उगना’ बना तुम्हारा आराध्य भोलेनाथ हूँ। मुझे तुम्हारे साथ रहने में बड़ा सुख मिलता है। तुम्हारा प्रेम और भक्ति में भीगा काव्य मुझे तुमसे दूर न रख सके, इसलिए मुझे इस रूप में तुम्हारे यहां आना पड़ा। तुम्हारा कल्याण हो।’

विद्यापति अवाक् रह गए। भोलेनाथ ने कहा—‘मैं जा रहा हूँ।’ विद्यापति ने आराध्य के चरण पकड़ लिए—‘मेरे भाग्य खुल गए फिर भी मैं समझ न पाया। मुझे धिक्कार है, मैंने आपसे सेवा करवायी। अब मैं आपको छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगा।’

अंत में भक्त और भगवान के बीच समझौता हुआ कि ‘मैं अब भी उगना बनकर तुम्हारी सेवा में रह सकता हूँ, लेकिन जिस दिन यह रहस्य खुल गया, मैं तुम्हें छोड़कर चला जाऊंगा।’  तुरन्त ही देवाधिदेव के स्थान पर हंसता हुआ उगना खड़ा था। प्रेमविह्वल सेवक और स्वामी घर लौट आए।

सेवक कौन और स्वामी कौन?

अब विद्यापति दूसरे थे। एक क्षण भी उन्हें उगना के बिना चैन नहीं पड़ता था। अपने आराध्य को अपने समीप देखकर विद्यापति का मन बहुत प्रसन्न रहने लगा; लेकिन आराध्य से सेवा करवाते देखकर उनका मन उन्हें कचोटता था और वे ध्यान रखते कि उगना से कोई ऐसा-वैसा काम न करवाया जाए।

‘उगना मेरे स्वामी की सेवा करता है या मेरे स्वामी उगना की ज्यादा मनुहार करते रहते हैं’—यह सोचकर पण्डिताइन हर समय नौकर से चिढ़ती रहती थी।

एक दिन बड़ा कौतुक हुआ। पण्डिताइन का बाजार से कुछ सामान लाने में उगना को थोड़ी देर हो गयी।

‘तबका गया तू अब आ रहा है, मैंने तुझे सामान लाने के लिए कबका बाजार भेजा था। बहुत सिर चढ़ गया है तू!’ नाराज पण्डिताइन एक मोटी-सी जलती हुई लकड़ी लेकर उगना पर टूट पड़ी। उगना चुपचाप अपना काम करता रहा; लेकिन विद्यापति से यह सहन नहीं हुआ कि उनके आराध्य को जलती लकड़ी से मारा जाए। वे पत्नी पर चीख पड़े—

‘ये क्या अनहोनी कर दी? ये मेरे आराध्य भगवान आशुतोष सदाशिव हैं। भक्ति के वशीभूत हम लोगों पर कृपा करने के लिए ये यहां इस रूप में रह रहे हैं। तुम तो साक्षात् शिव पर ही चोट करने जा रही हो।’ विद्यापति शिव के चरणों में लोटने लगे लेकिन शिव तो शिव ठहरे, वचन भंग होते ही वे अन्तर्धान हो गए।

मेरा उगना कहां गया?

तभी से विद्यापति पागलों की तरह हर समय ‘उगना-उगना’ की रट लगाये रहते और अपने आराध्य के विरह में अनेक छन्द लिखकर गाते और उगना को ढ़ूंढ़ते रहते। उनकी कविता की कुछ पंक्तियां व उसका अर्थ इस प्रकार है—

उगना रे मोर कतय गेला।
कतय गेला शिव ! कि तुहुँ मेला।।
भाँग नहि बटुआ रुसि बैसलाह।
x   x   x   x   x
विद्यापति मन उगना सों काज।
नहि हितकर मोर त्रिभुवन राज।।

कविता में ‘हाय! मेरा उगना कहां गया?’ यह कहकर वे बहुत विलाप करते हैं। फिर उगना जो सेवा करता था, उसका स्मरण करते हैं। विद्यापति कहते हैं कि यदि कोई उसका पता बता दे तो मैं उसे पुरस्कार में हाथ का कंगन दे दूँ। उगना के प्रति उनका इतना प्रगाढ़ भाव था कि उसके बिना त्रिभुवन का राज्य भी इनके लिए तुच्छ था। लेकिन उगना को नहीं आना था, वह नहीं आया।

इनके चितास्थल पर एक शिवलिंग स्थापित किया गया जो ‘विद्यापति महादेव मन्दिर’ के नाम से जाना जाता है। भगवान शिव की स्तुति में लिखे पदों (नचारियों) को बिहार विशेषकर मिथिला में बड़े प्रेम से गाया जाता है।

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