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मृत्यु से भय क्यों ?

मृत्यु एक अपरिहार्य सत्य है, फिर भी हम सब उससे बचने की तमाम कोशिश करते हैं और हर पल मरते हैं । मृत्यु-भय को दूर करने के लिए क्या कहती है गीता ?

क्या भगवान को देखा जा सकता है ?

गीता के इस श्लोक में भगवान ने अनन्य भक्ति द्वारा सुलभ होने वाली तीन बातें कहीं हैं—१. भगवान को प्रत्यक्ष देखना, २. भगवान को जानना और ३. भगवान में प्रवेश करना अर्थात् उनमें एकाकार हो जाना । इन तीनों बातों के सुंदर उदाहरण हमें पुराणों में अनेक प्रसंगों में मिलते हैं ।

शरणागति

जानें, कैसी है भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराम की शरणागतवत्सलता ?

भगवान श्रीकृष्ण : ‘नक्षत्रों में मैं चंद्रमा हूँ’

भगवान की दिव्य विभूति वे वस्तुएं या प्राणी हैं, जिनमें भगवान के तेज, बल, विद्या, ऐश्वर्य, कांति और शक्ति आदि विशेष रूप से हों । संसार में जो भी ऐश्वर्ययुक्त, कांतियुक्त और शक्तियुक्त वस्तु है, वह सब भगवान के तेज का अंश होने से उनकी विभूति हैं ।

कर्मयोग के प्रथम श्रोता भगवान सूर्य देव

अर्जुन ने आश्चर्यचकित होकर भगवान से पूछा—‘सूर्य का जन्म तो आपके जन्म से बहुत पहले हुआ था; इसलिए यह कैसे माना जाए कि आपने यह विद्या सूर्य को दी थी ?’ भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—‘अर्जुन ! मेरे और तुम्हारे दोनों के अनेक जन्म हो चुके हैं । मैं उन सबको जानता हूँ; किंतु तुम नहीं जानते ।’

कुंती जी की विपत्ति में भक्ति

महारानी कुन्ती भगवान श्रीकृष्ण की बुआ थीं । उनका जीवन सदा विपत्ति में ही गुजरा । इस विपत्ति में भी उन्हें सुख था । उनका मानना था--’भगवान का विस्मरण होना ही विपत्ति है और उनका स्मरण बना रहे, यही सबसे बड़ी सम्पत्ति है ।’ उन्हें भगवान श्रीकृष्ण का कभी विस्मरण हुआ ही नहीं, अत: वे सदा सुख में ही रहीं । कुन्तीजी भगवान से प्रार्थना करती हैं--’हे जगद्गुरो ! हम पर सदा विपत्तियां ही आती रहें, क्योंकि आपके दर्शन विपत्ति में ही होते हैं और आपके दर्शन होने पर फिर इस संसार के दर्शन नहीं होते और मनुष्य आवागमन से रहित हो जाता है।’ (श्रीमद्भा. १।८।२५)

शुभ-अशुभ कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है

कर्मों की गति बड़ी गहन होती है । कर्म की गति जानने में देवता भी समर्थ नहीं हैं, मानव की तो बात ही क्या है ? काल के पाश में बंधे हुए समस्त जीवों को अपने द्वारा किये गये शुभ अथवा अशुभ कर्मों का फल निश्चित रूप से भोगना ही पड़ता है । मनुष्य कर्म-जंजाल में फंसकर मृत्यु को प्राप्त होता है और फिर कर्मफल के भोग के लिए पुनर्जन्म धारण करता है ।

अवधूत दत्तात्रेय जी के 24 गुरु और उनकी शिक्षाएं

अवधूत दत्तात्रेय जी ने अपने जीवन-यापन के क्रम में पंचभूतों और छोटे-छोटे जीवों की स्वाभाविक क्रियाओं को बहुत ध्यान से देखा और उनमें उन्हें जो कुछ भी अच्छा लगा, उसे उन्होंने गुरु मान कर अपने जीवन में उतार लिया । इस प्रसंग का वर्णन श्रीमद्भागवत के एकादश स्कन्ध में किया गया है ।

कुरुक्षेत्र को ‘धर्मक्षेत्र’ क्यों कहा जाता है ?

श्रीमद्भगवद्गीता का आरम्भ ही ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ इन शब्दों से होता है । कुरुक्षेत्र जहां कौरवों और पांडवों का महाभारत का युद्ध हुआ और जहां भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी दिव्य वाणी से गीता रूपी अमृत संसार को दिया, उसे धर्मक्षेत्र या पुण्यक्षेत्र क्यों कहा जाता है ? इसके कई कारण हैं ।

निरोगी कौन ?

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि यदि मनुष्य युक्त आहार, युक्त विहार और युक्त चेष्टा करे; अपनी प्रकृति के अनुकूल, समय पर, सीमित मात्रा में भोजन करे तो फिर न किसी डॉक्टर की जरुरत रहेगी, न ही शरीर में कोई रोग आएगा और न ही अकाल मौत होगी; साथ ही मन में सदा शांति बनी रहेगी । यही दीर्घ और निरोगी जीवन का रहस्य है ।