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श्रीकृष्ण कृपाकटाक्ष स्तोत्र
भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ब्रह्माजी से कहते हैं--जो कृष्ण ! कृष्ण !! कृष्ण !!!--यों कहकर मेरा प्रतिदिन स्मरण करता है, उसे जिस प्रकार कमल जल को भेद कर ऊपर निकल जाता है, उसी प्रकार मैं नरक से उबार लेता हूँ। श्रीकृष्ण कृपाकटाक्ष स्तोत्र (कृष्णाष्टक) भगवान श्रीशंकराचार्य द्वारा रचित बहुत सुन्दर स्तुति है। बिना जप, बिना सेवा एवं बिना पूजा के भी केवल इस स्तोत्र मात्र के नित्य पाठ से ही श्रीकृष्ण कृपा और भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों की भक्ति प्राप्त होती है।
जन्म-मृत्यु के चक्र को मिटाने वाला श्रीहरि नाममाला स्तोत्र
हे ईश्वर ! आपकी नाममाला का उच्चारण करने की अभिलाषा करने मात्र से सम्पूर्ण पाप कांपने लग जाते हैं। प्राणियों के पाप-पुण्य के लेखक व यमराज के प्रधानमन्त्री श्रीचित्रगुप्त अपनी कलम को उठाते हुए आशंका करते हैं कि मैंने इस प्राणी का नाम तो पापियों की श्रेणी में लिख दिया है, परन्तु अब तो इसने नाममाला का आश्रय लिया है; अत: अब मुझे इसका नाम पापियों की श्रेणी से काट देना चाहिए; नहीं तो यमराजजी ही मुझ पर ही कहीं कुपित न हो जाएं क्योंकि यह मनुष्य तो अब अवश्य ही हरिधाम को जाएगा। श्रीहरिनाम माला का माहात्म्य इससे अधिक और क्या कहा जाए।
श्रीगणेश साक्षात् श्रीकृष्ण का ही स्वरूप
पार्वतीजी सोचने लगीं--‘मैंने यह कैसी मूर्खता की, पुत्र के लिए एक वर्ष तक पुण्यक व्रत करने में इतना कष्ट भोगा पर फल क्या मिला? पुत्र तो मिला ही नहीं, पति को भी खो बैठी। अब पति के बिना पुत्र कैसे होगा?’
इसी बीच सभी देवताओं व पार्वतीजी ने आकाश से उतरते हुए एक तेज:पुंज को देखा। उस तेज:पुंज को देखकर सभी की आंखें मुंद गयीं। किन्तु पार्वतीजी ने उस तेज:पुंज में पीताम्बरधारी भगवान श्रीकृष्ण को देखा।
प्रभु श्रीनाथजी के अनन्य सखा श्रीगोविन्दस्वामी
कलियुग में सच्चिदानन्द भगवान श्रीकृष्ण ही गिरिगोवर्धन पर ‘देवदमन श्रीनाथजी’ रूप में प्रकट हुए हैं। गोविन्दस्वामी को भगवान श्रीकृष्ण के सखा श्रीदामा का अवतार माना जाता है। श्रीनाथजी उनके साथ हंसते-खेलते थे। देखने वालों को प्रत्यक्ष आंखों से कुछ नहीं दिखलायी पड़ता था पर उनकी भगवान के साथ मित्रता के गवाह थे--गुंसाईं श्रीविट्ठलनाथजी। गोविन्दस्वामी अपने गुरु गुंसाईंजी से अपने और श्रीनाथजी के प्रेम में झगड़ने और सुलह-सफाई के किस्से बिना किसी संकोच के कह दिया करते थे।
भगवान श्रीकृष्ण का व्रजप्रेम
कई दिन बीत गए पर मथुराधीश श्रीकृष्ण ने भोजन नहीं किया। संध्या होते ही महल की अटारी (झरोखों) पर बैठकर गोकुल का स्मरण करते हैं। वृन्दावन की ओर टकटकी लगाकर प्रेमाश्रु बहा रहे हैं। कन्हैया के प्रिय सखा उद्धवजी से रहा नहीं गया। उन्होंने कन्हैया से कहा--’मैंने आपको मथुरा में कभी आनन्दित होते नहीं देखा। आप दु:खी व उदास रहते हैं। आपका यह दु:ख मुझसे देखा नहीं जाता।’
श्रीकृष्ण को पतिरूप में प्राप्त करने के लिए गोपिकाओं का कात्यायनी...
कात्यायनीदेवी श्रीकृष्ण मन्त्राधिष्ठात्री देवी हैं। गोपियों ने श्रीकृष्ण को पति रूप में पाने के लिए केवल हविष्यान्न खाकर एक मास तक मां की आराधना की। श्रीकृष्ण पतिरूप में मिलें इसका अर्थ है मुझे परमात्मा से मिलना है, परमात्मा के साथ एकाकार होना है। मां कात्यायनी ब्रह्मविद्या का स्वरूप हैं जो परमात्मा से मिलन कराती हैं। गोपियां मूंगे की माला से उनके मन्त्र का एक सहस्त्र जप करतीं।
सूर्य अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र : युधिष्ठिर को अक्षयपात्र की प्राप्ति
भुवन-भास्कर भगवान सूर्य परमात्मा नारायण के साक्षात् प्रतीक हैं, इसलिए वे सूर्यनारायण कहलाते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए कहा है--‘ज्योतिषां रविरंशुमान्’ अर्थात् मैं (परमब्रह्म परमात्मा) तेजोमय सूर्यरूप में हूं। सूर्य प्रत्यक्ष देव हैं, इस ब्रह्माण्ड के केन्द्र हैं--आकाश में देखे जाने वाले नक्षत्र, ग्रह और राशिमण्डल इन्हीं की आकर्षण शक्ति से टिके हुए हैं।
श्रीगोविन्द दामोदर स्तोत्र एवं भक्त बिल्वमंगल
भगवान का नाम कितना पावन है, उसमें कितनी शान्ति, कैसी शक्ति और कितनी कामप्रदता है, यह कोई नहीं बतला सकता। अथाह की थाह कौन ले सकता है? जिसके माहात्म्य का आरम्भ बुद्धि से परे पहुंचने पर होता है, उसका वाणी से कैसे वर्णन हो सकता है?
श्रीकृष्ण द्वारा गिरिगोवर्धन-पूजन महोत्सव
देवराज इन्द्र परब्रह्म परमात्मा को ‘मनुष्य’, उनके चिन्मय तत्वों को ‘जड’ और भगवान के लीला सहचरों को ‘सामान्य’ मान बैठे थे। इन्द्र की भोगवादी संस्कृति ने ग्वालों को भीरु बना दिया, तब श्रीकृष्ण ने उनमें आत्मचेतना का दिव्यमन्त्र फूंक कर उन्हें स्वयं पर भरोसा करने वाला आत्मविश्वासी बनाया। गोपालक व लोक संस्कृति का पुनर्जागरण कर गिरिराज गोवर्धन की पूजा का विधान बताया।
कार्तिकमास में भगवान विष्णु और वेदों का जल में निवास
कार्तिक-स्नान से सत्यभामाजी को श्रीकृष्ण की पति रूप में प्राप्ति, कार्तिकमास में भगवान विष्णु व वेदों का जल में निवास, व्रज में कार्तिक-स्नान-व्रत