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भगवान श्रीकृष्ण द्वारा रुक्मिणीजी का गर्व-हरण

भगवान का स्वभाव है कि वे भक्त में अभिमान नहीं रहने देते; क्योंकि अभिमान जन्म-मरण रूप संसार का मूल है और अनेक प्रकार के क्लेशों और शोक को देने वाला है । भगवान अहंकार को शीघ्र ही मिटाकर भक्त का हृदय निर्मल कर देते हैं । उस समय थोड़ा कष्ट महसूस होता है; लेकिन बाद में उसमें भगवान की करुणा ही दिखाई देती है ।

जो कुछ होता है भगवान की इच्छा से होता है

यह विराट् विश्व परमात्मा की लीला का रंगमंच है । विश्व रंगमंच पर हम सब कठपुतली की तरह अपना पात्र अदा कर रहे हैं । भगवान की इस लीला में कुछ भी अनहोनी बात नहीं होती । जो कुछ होता है, वही होता है जो होना है और वह सब भगवान की शक्ति ही करती है । और जो होता है मनुष्य के लिए वही मंगलकारी है ।

भगवान विट्ठल और संत सांवता माली

पण्ढरपुर के पास अरणभेंडी नामक ग्राम में सांवता नाम के भक्त हुए । वे माली का काम करते थे और वनमाली श्रीविट्ठल को भजते थे । सांवता सब जगह सब पदार्थों में भगवान को ही देखा करते थे । भगवान विट्ठल और भक्त सांवता के अद्भुत प्रेम की कथा ।

साग विदुर घर खायो

विदुरजी बड़ी सावधानी से भगवान को केले का गूदा खिलाने लगे तो भगवान ने कहा—‘आपने केले तो मुझे बड़े प्यार से खिलाए, पर न मालूम क्यों इनमें छिलके जैसा स्वाद नहीं आया ।’ इसी से कहा गया है—‘सबसे ऊंची प्रेम सगाई ।’

वैराग्य के अवतार : भक्त राँका और बाँका

उस दिन भगवान ने भक्तों की वैराग्य लीला से प्रसन्न होकर राँका-बाँका के लिए जंगल में सारी सूखी लकड़ियां एकत्र कर गट्ठर बांध कर रख दीं । पति-पत्नी ने देखा कि आज तो जंगल में कहीं भी लकड़ियां दिखाई नहीं देती हैं । लकड़ी के गट्ठरों को उन्होंने किसी दूसरे का समझा । दूसरे की वस्तु की ओर आंख उठाना भी पाप है—यह सोच कर दोनों खाली हाथ घर लौट आए ।

‘दोषों में गुण देखना’ यही है संत का स्वभाव

यह कह कर भट्टजी ने अपनी दोनों भुजाओं में महंतजी को भर कर हृदय से लगा लिया । भट्टजी की सरल और प्रेमपूर्ण वाणी सुन कर और उनके अंगस्पर्श से आज सचमुच महंतजी का हृदय पिघल गया और उनकी आंखों से अश्रुधारा बह निकली । दोष में गुण देखना—यही संत का सहज स्वभाव है ।

भगवान विट्ठल और भक्त कान्होपात्रा

यह कहते-कहते कान्होपात्रा की देह अचेतन हो गई । उसमें से एक ज्योति निकली और वह भगवान की ज्योति में मिल गई । कान्हूपात्रा की अचेतन देह भगवान पण्ढरीनाथ के चरणों पर आ गिरी । कान्होपात्रा की अस्थियां मंदिर के दक्षिण द्वार पर गाड़ी गईं । मंदिर के समीप कान्होपात्रा की मूर्ति खड़ी-खड़ी आज भी पतितों को पावन कर रही है ।

श्रीराम जिन पर शत्रु की स्त्रियां भी करती हैं नाज

महारानी मन्दोदरी के ज्ञान-चक्षु खुल गए । उन्हें समझ आ गया कि उनके प्रियतम पति लंकाधिपति रावण में चरित्र-बल नहीं था, इसी कारण वे अपने भाई, पुत्र तथा पौत्रों सहित मारे गए ।

भक्ति हो तो भक्त सुधन्वा जैसी

सुधन्वा का कटा मस्तक ‘गोविन्द ! मुकुन्द ! हरि !’ पुकारता हुआ श्रीकृष्ण के चरणों पर जा गिरा । श्रीकृष्ण ने झट से उस सिर को दोनों हाथों में उठा लिया । उसी समय उस मुख से एक ज्योति निकली और सबके देखते श्रीकृष्ण के श्रीमुख में लीन हो गई ।

संत एकनाथ के घर श्राद्ध में पितरों का आगमन

नि:स्वार्थ सेवा करने का कोई फल नहीं है बल्कि मनुष्य स्वयं फलदाता हो जाता है । सच्चे वैष्णव के आगे तो देवता भी हाथ जोड़कर खड़े रहते हैं । आवाहन करने पर पितर भी स्थूल शरीर में प्रकट होकर भोजन ग्रहण कर लेते हैं ।