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भगवान श्रीकृष्ण के माता-पिता वसुदेव व देवकी के कष्टों के कारण

धर्मपरायण वसुदेव जिनके पुत्र के रूप में साक्षात् भगवान विष्णु अवतरित हुए, वे कंस के कारागार में क्यों बन्द हुए? उन्होंने अपनी पत्नी देवकी के साथ ऐसा क्या अपराध किया था, जिससे कंस के द्वारा देवकी के छ: पुत्रों का वध कर दिया गया? वे छ: पुत्र कौन थे? वह कन्या कौन थी, जिसे कंस ने पत्थर पर पटक दिया था और वह हाथ से छूटकर आकाश में चली गयी और पुन: अष्टभुजा के रूप में प्रकट हुई?

श्रीमद्वल्लभाचार्यजी और प्रेम का पन्थ पुष्टिमार्ग

श्रीमद्वल्लभाचार्यजी का प्रादुर्भाव भारतभूमि पर उस समय हुआ जब भारतीय संस्कृति पर चारों ओर से यवनों के आक्रमण हो रहे थे। समाज में भगवान के प्रति अनास्था, संघर्ष व अशान्ति फैली हुई थी। लोगों के जीवन में आनन्द तो दूर रहा, कहीं भी न तो सुख था और न शान्ति। ऐसे समय में साक्षात् भगवदावतार श्रीमन्महाप्रभुजी श्रीमद्वल्लभाचार्यजी ने अवतरित होकर भारतवासियों के जीवन को रसमय और आनन्दमय बना दिया।

भगवान श्रीकृष्ण की सरस बाललीलाएं

जो गोपी अनेक जन्मों से अपने हृदय के जिन भावों को श्रीकृष्ण को अर्पण करने की प्रतीक्षा कर रही है, उसकी उपेक्षा वह कैसे करें? इन्हीं गोपियों की अभिलाषाओं को पूरा करने के लिए ही तो निर्गुण-निराकार परम-ब्रह्म ने सगुण-साकार लीलापुरुषोत्तमरूप धारण किया है। दिन भर के भूखे-प्यासे श्यामसुन्दर गोपी के साथ उसकी गौशाला में जाकर गोमय की टोकरियां उठवाने लगे। एक हाथ से अपनी खिसकती हुई काछनी को सम्हालते और दूसरे हाथ से गोमय की खाँच गोपी के सिर पर रखवाते। ऐसा करते हुए कन्हैया का कमल के समान कोमल मुख लाल हो गया। चार-पांच टोकरियां उठवाने के बाद कन्हैया बोले--गोपी, तेरा कोई भरोसा नहीं है। तू बाद में धोखा दे सकती है, इसलिए गिनती करती जा। और उस निष्ठुर गोपी ने कन्हैया के लाल-लाल मुख पर गोमय की हरी-पीली आड़ी रेखाएं बना दीं। अब तो गोपी अपनी सुध-बुध भूल गयी और कन्हैया के सारे मुख-मण्डल पर गोमय के प्रेम-भरे चित्र अंकित हो गये--’गोमय-मण्डित-भाल-कपोलम्।’

फल बेचने वाली सुखिया मालिन पर भगवान श्रीकृष्ण की कृपा

वैसे तो मालिन फल-सब्जी इत्यादि बेचकर मथुरा चली जाती किन्तु उसका मन गोकुल में नंदभवन में ही रह जाता। प्रात:काल उठते ही वह अपने ‘मन’ की खोज में फिर गोकुल आती और मनमोहन के साथ अपने मन को क्रीड़ा करते देखकर वह अपने-आप को भूल जाती। उसका मन कन्हैया को स्पर्श करने के लिए सदैव व्याकुल रहता। जब कन्हैया को ‘देखने-छूने’ की मालिन की चाह अपनी पराकाष्ठा को पहुँच गयी और अब उसे संसार में कन्हैया के सिवाय कुछ भी नहीं दिखने लगा, तब फिर कन्हैया के मिलन में क्या देर थी? अगर चाह असली हो तो कन्हैया तो चाहने वालों से दौड़कर लिपटने वाले हैं। अब मालिन की चाह में किसी प्रकार का आवरण नहीं रहा, उसकी चाह कृष्णमयी हो गयी थी।

श्रीकृष्ण एक, रूप अनेक

वे वसुदेव-देवकी और नन्द-यशोदा को सुख देने वाले पुत्र हैं; गोपबालकों व सुदामा जैसे दरिद्रों, उद्धव जैसे ज्ञानियों व अर्जुन जैसे वीरों के सखा है; गोपियों के प्राणनाथ हैं; राधा के लिए प्रेमी हैं; द्वारका की पटरानियों के प्रिय पति हैं, गौओं के अनन्य सेवक हैं; पशु-पक्षियों के बन्धु हैं; राक्षसों के काल हैं; ज्ञानियों के ब्रह्म हैं; योगियों के परमात्मा हैं; भक्तों के भगवान हैं; प्रेमियों के प्रेमी हैं; राजनीतिज्ञों में निपुण दूत हैं, शूरवीरों में महान पराक्रमी हैं, अशरण की शरण हैं और मुमुक्षुओं के लिए साक्षात् मोक्ष हैं।

गोपियों के मन, प्राण व नेत्र और श्रीकृष्णप्रेम

गोपी की बुद्धि, उसका मन, चित्त, अहंकार और उसकी सारी इन्द्रियां प्रियतम श्यामसुन्दर के सुख के साधन हैं। उनका जागना-सोना, खाना-पीना, चलना-फिरना, श्रृंगार करना, गीत गाना, बातचीत करना--सब श्रीकृष्ण को सुख पहुँचाने के लिए है। गोपियों का श्रृंगार करना भी भक्ति है। यदि परमात्मा को प्रसन्न करने के विचार से श्रृंगार किया जाए तो वह भी भक्ति है। मीराबाई सुन्दर श्रृंगार करके गोपालजी के सम्मुख कीर्तन करती थीं। उनका भाव था--’गोपालजी की नजर मुझ पर पड़ने वाली है। इसलिए मैं श्रृंगार करती हूँ।’

बालकृष्ण का कटि-परिवर्तन (करवट बदलने का) उत्सव

गोपियाँ बालकृष्ण के दर्शन में तन्मय हैं, तभी लाला ने करवट बदलना शुरु किया। इसे देखकर वे दौड़कर माता यशोदा के पास जाकर बोलीं कि बालकृष्ण ने आज करवट ली है । यशोदा माता को बहुत प्रसन्नता हुई कि लाला अभी तीन महीनों का है और करवट बदल रहा है। यशोदा माता ने कहा कि आज मैं लाला का कटि-परिवर्तन उत्सव करूंगी।

भगवान के नाम की महिमा और श्रीकृष्ण के प्रचलित नामों का...

स्कन्दपुराण में यमराज नाममहिमाके विषय में कहते हैं--’जो गोविन्द, माधव, मुकुन्द, हरे, मुरारे, शम्भो, शिव, ईशान, चन्द्रशेखर, शूलपाणि, दामोदर, अच्युत, जनार्दन, वासुदेव--इस प्रकार सदा उच्चारण करते हैं, उनको मेरे प्रिय दूतो ! तुम दूर से ही त्याग देना।’ यदि जगत् का मंगल करने वाला श्रीकृष्ण-नाम कण्ठ के सिंहासन को स्वीकार कर लेता है तो यमपुरी का स्वामी उस कृष्णभक्त के सामने क्या है? अथवा यमराज के दूतों की क्या हस्ती है?

व्रज एवं व्रजरज

श्रीराधामाधव एवं उनके सखा एवं गोपियों की नित्य लीलाओं को जहां आधार प्राप्त हुआ उस धाम को रसिकों, भक्तों ने व्रजधाम या व्रजमंडल कहा है। पाँच हजार वर्ष पूर्व भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीराधाजी, ललिता, विशाखा आदि अष्टसखियों, गोप-गोपियों, श्रीयमुनाजी, और पवित्र गौओं के साथ इस दिव्य भूमि में विचरण किया था। यही गोकुल, नन्दगांव व वृन्दावन है, जहां सर्वत्र कण-कण में श्रीकृष्ण के स्वरूप का दर्शन पाकर भाव-विभोर हुए ब्रह्माजी अपने नयनाश्रुओं से यहां के रजकणों (धूल) का अभिषेक करने के लिए बाध्य हुए थे।

व्यासनन्दन श्रीशुकदेवजी

शुकदेवजी की कथाएँ : श्रीशुकदेवजी के जन्म की कथा, परमहंस शुकदेवजी के स्वरूप का वर्णन एवं श्रीशुकदेवजी का अनुपम दान--श्रीमद्भागवत ।