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भगवान श्रीकृष्ण के व्रजसखा (गोपकुमार) एवं गोपियाँ

भक्ति की प्रवर्तिका गोपियां ही हैं। श्रीकृष्णदर्शन की लालसा ही गोपी है। गोपी कोई स्त्री नहीं है, गोपी कोई पुरुष नहीं है। श्रीमद्भागवत में ‘गोपी’ शब्द का अर्थ परमात्मा को प्राप्त करने की तीव्र इच्छा बताया गया है।

भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमल

भगवान के चरण-चिह्नों का परिचय एवं पुष्टिमार्ग के आराध्य श्रीनाथजी के चरण-कमल भगवान के चरण-कमल बड़े ही दुर्लभ हैं और सेवा के लिए उनकी प्राप्ति होना और भी कठिन है। लक्ष्मीजी भगवान के चरण-कमलों को ही भजती हैं अत: नवधा भक्ति में ‘पाद सेवन’ भक्ति लक्ष्मीजी को सिद्ध है।

भगवान श्रीकृष्ण द्वारा पूतना को सद्गति प्रदान करना

पूतना के पूर्वजन्म की कथा, एवं पूतना-वध की कथा | आखिर पूतना के आते ही भगवान ने अपने नेत्र बंद क्यों किए? पूतना जन्म से राक्षसी थी, कर्म था शिशुओं की हत्या करना और आहार था बालकों का रक्त। वह श्रीकृष्ण के पास कपटवेश बनाकर मारने गयी थी; किन्तु कैसे भी गई; किसी भी भाव से गई; नन्हें बालकृष्ण के मुख में उसने अपना स्तन दिया इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण ने उसे माता की गति दी। उसका कपटी राक्षसी शरीर दिव्य गंध से पूर्ण हो गया। श्रीकृष्ण जिसे छू लेते हैं उसका लौकिक शरीर फिर अलौकिक, दिव्य, चिन्मय बन जाता है। श्रीकृष्ण की मार में भी प्यार है।

माता यशोदा का श्रीकृष्ण-प्रेम

माता यशोदा के सौभाग्य का वर्णन कौन कर सकता है, जिनके स्तनों को साक्षात् ब्रह्माण्डनायक ने पान किया है। भगवान ने अपने भक्तों की इच्छा के अनुरूप अनेक रूप धारण किए हैं, परन्तु उनको ऊखल से बांधने का या छड़ी लेकर ताड़ना देने का सौभाग्य केवल महाभाग्यशाली माता यशोदा को ही प्राप्त हुआ है। ऐसा सुख, ऐसा वात्सल्य-आनन्द संसार में किसी को प्राप्त न हुआ है, न होगा। श्रीशुकदेवजी तो श्रीयशोदाजी को वात्सल्य-साम्राज्य के सिंहासन पर बिठाकर उनको दण्डवत् करते हुए कहते हैं--’देवी ! तुम्हारे जैसा कोई नहीं है। तुम्हारी गोद में तो सम्पूर्ण फलों-का-फल नन्हा-सा शिशु बनकर बैठा है।’

श्रीकृष्ण की रूपमाधुरी : अवर्णनीय

श्रीकृष्ण का बालरूप सौंदर्य और उनकी उपमाएं

भगवान श्रीकृष्ण का जन्म-महोत्सव और गोकुल में परमानंद

परमात्मा श्रीकृष्ण परमानंद के स्वरूप हैं। श्रीकृष्ण में आनन्द के सिवा कुछ नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण के श्रीअंग में और उनके नाम में आनन्द ही है। वे नंदबाबा के घर प्रकट हुए हैं। ‘नंद’ शब्द का अर्थ है--जो दूसरों को आनन्द देता है। मधुर वाणी, विनय, सरल स्वभाव, उदारता आदि सद्गुणों से सभी को जो आनन्द देते हैं, उन्हें नंद कहते हैं। जो सबको आनन्द देता है उसे सबका आशीर्वाद मिलता है।

वसुदेव-देवकी : उनके पूर्वजन्म

माता-पिता अपने पुत्र का जगत् में प्रकाश करते हैं, इसी से वे पुत्र के प्रकाशक कहे जाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण के माता-पिता श्रीभगवान को जगत् में प्रकट करते हैं, अत: वे भी भगवान के प्रकाशक हैं। लेकिन भगवान स्वयं प्रकाशक हैं, उनकी ज्योति (अंग-छटा) से ही सम्पूर्ण विश्व प्रकाशित है। अतएव वसुदेव-देवकीरूप भगवान के माता-पिता भी भगवान की सच्चिदानन्दमयी स्वप्रकाशिका शक्ति ही हैं।

भगवान श्रीकृष्ण को बारम्बार प्रणाम

कृष्ण ! इस ढाई अक्षर के नाम में कितना जादू है। कितना सुन्दर ! कितना प्यारा है यह शब्द ! घोर अंधकार को चीरकर जैसे शरद्चन्द्र सारे आकाश में महान प्रकाश व चांदनी रूपी अमृत को बिखेर देता है, उसी तरह श्रीकृष्ण के आविर्भाव ने सारे संसार के सद्पुरुषों के हृदयों को दिव्य आनन्द रूपी अमृत से भर दिया।

भगवान श्रीकृष्ण के प्राकट्य पर प्रकृति का उल्लासपूर्ण स्वागत

भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ही काल, दिशा और देश के नियन्ता हैं, इसलिए आज ‘काल’ की ही भांति ‘दिशा’ और ‘देश’ भी समस्त सद्गुणों से सुशोभित हो रहे हैं। दसों दिशाएँ प्रसन्न हो गयीं। सभी दिक्पाल (दिशाओं के अधिपति) आनन्दपूर्ण हृदय से अपने स्वामी के शुभागमन का अभिनन्दन करने के लिए दिग्वधुओं (अपनी पत्नियों) के साथ हाथों में अर्घ्यपात्र लेकर उनकी प्रतीक्षा करने लगे। गगन में तारे इस प्रकार जगमगा रहे थे मानों अनन्त पात्रों में हीरों के पुष्प भरकर अपने स्वामी को अर्पण करने की इच्छा से खड़े हों। भगवान श्रीकृष्ण के मंगल आगमन से सभी देश आनन्द-मंगल से भर गए।

भगवान श्रीकृष्ण का प्राकट्य (अवतार)

भगवान का अवतार कब और क्यों होता है? प्रकृति में जब अधोगुण बढ़ जाते हैं, मानव आसुरी और राक्षसी भावों से आक्रान्त हो जाता है, उसमें अहंता-ममता, कामना-वासना, स्पृहा-आसक्ति बुरी तरह बढ़ने लगती है, चोरी, डकैती, लूट, हिंसा छल, ठगी--किसी भी उपाय से वह भोग (अर्थ, अधिकार, पद, मान, शरीर का आराम) प्राप्त करने में तत्पर हो जाता है, राजाओं और शासकों के रूप में घोर अनीतिपरायण, स्वेच्छाचारी, नीच-स्वार्थरस से पूर्ण असुरों का आधिपत्य हो जाता है, पवित्र प्रेम की जगह काम-लोलुपता बढ़ने लगती है, ईश्वर को मानने वाले साधु चरित्र पुरुषों पर अत्याचार होने लगते हैं, सच्चे साधकों को पग-पग पर अपमानित व लज्जित होकर पद-पद पर विघ्न-बाधाओं का सामना करना पड़ता है, मनुष्य विनाश में विकास देखने लगता है, इस प्रकार साधु हृदय मानवों की करुण पुकार जब चरम सीमा पर पहुँच जाती है तब भगवान का अवतार होता है।