गंगाधर त्रिशूलधर विषधर बाघम्बरधर गिरिचारी।
भोलेनाथ भक्त-दुखगंजन भवभंजन शुभ सुखकारी।।
यह भवसागर अति अगाध है पार उतर कैसे बूझै।
ग्राह मगर बहु कच्छप छाये मार्ग कहो कैसे सूझै।।
नाम तुम्हारा नौका निर्मल तुम केवट शिव अधिकारी।
भोलेनाथ भक्त-दुखगंजन भवभंजन शुभ सुखकारी।।

भगवान शिव नित्य और अजन्मा हैं। इनका आदि और अंत न होने से वे अनन्त हैं। इनके समान न कोई दाता है, न तपस्वी, न ज्ञानी है, न त्यागी, न वक्ता है और न ऐश्वर्यशाली। भगवान सदाशिव की महिमा का गान कौन कर सकता है? भीष्मपितामह के शिवमहिमा बताने के सम्बन्ध में प्रार्थना करने पर भगवान श्रीकृष्ण ने भी यही कहा–‘हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा), इन्द्र और महर्षि आदि भी शिवतत्त्व जानने में असमर्थ हैं, मैं उनके कुछ गुणों का ही व्याख्यान करता हूँ।’

ऐसी स्थिति में हम जैसे तुच्छ जीव शिव-तत्त्व के बारे में क्या कह सकते हैं। परन्तु एक सत्य यह है कि आकाश अनन्त है, सृष्टि में कोई-भी पक्षी ऐसा नहीं जो आकाश का अन्त पा ले, फिर भी वे अपनी सामर्थ्यानुसार आकाश में उड़ान भरते हैं; उसी तरह हम भी अपनी बुद्धि के अनुसार उस अनन्त शिवतत्त्व के बारे में लिखने का प्रयास करेंगे। भगवान शिव के विविध नाम हैं। भगवान शिव के प्रत्येक नाम में, नाम के गुण, प्रयोजन और तथ्य भरे हैं। यहां भगवान शिव के कुछ नाम और उनसे सम्बन्धित कथाएं दी जा रही हैं–

करुणावतार सदाशिव

शिव ही समस्त प्राणियों के अन्तिम विश्राम के स्थान हैं। श्रुति का कथन है कि जिनमें समस्त वस्तुएं शयन करती हैं, वही ‘शिव’ हैं। अनन्त पाप-तापों से उद्विग्न होकर विश्राम के लिए प्राणी जहां शयन करे, बस उसी सर्वाश्रय को शिव कहा जाता है। संसारिक क्लेशों, पाप-तापों और पीड़ाओं से व्याकुल जीव के दीर्घ सुषुप्ति (निद्रा) में विश्राम के लिए भगवान सर्वसंहार करके प्रलय करते हैं। यह संहार भी भगवान की कृपा ही है। महाप्रलय में भगवान सबको अपने स्वरूप में लीनकर परम शान्ति प्रदान करते हैं। जैसे औषधि से ठीक न होने वाले व्रण (फोड़े) से व्याकुल व्यक्ति को कष्ट से छुटकारा दिलाने के लिए डॉक्टर तीखे औजारों से आपरेशन करता है, उसी प्रकार पाप-ताप के बढ़ जाने पर करुणा से ही भगवान शिव विश्व का संहार करते हैं–

जिमि सिसु तन ब्रन होइ गोसाई।
मातु चिराव कठिन की नाई।। (राचमा. उत्तर. ७४।८)

वृद्धावस्था में अत्यन्त जर्जरित शरीर की सेवा से जब पुत्र-पौत्र भी कतराने लगते हैं, तब ऐसी दीन-हीन अवस्था में परम दयालु भगवान शिव कहते हैं–’अरे जीव! अब मैं तुझ पर दया करके तेरा यह शरीर ले लेता हूँ और तुझे ऐसा नया शरीर देता हूँ कि जो बन्धु-बांधव तेरे इस शरीर से घृणा करते थे, वे ही तुझको सिर व कंधे पर बिठाकर नाचेंगे और तेरे जिस मल-मूत्र से घृणा करते थे उसको ‘बालक का है जी, गंगाजल है’–कहकर कोई परहेज नहीं करेंगे।’ मारना भी भगवान की परम दयालुता का लक्षण है। इसीलिए भगवान का नाम केवल ‘शिव’ ही नहीं ‘सदाशिव’ है।

पंचानन या पंचवक्त्र

एक बार भगवान विष्णु ने अत्यन्त मनोहर किशोर रूप धारण किया। उस मनोहर रूप को देखने के लिए चतुरानन ब्रह्मा, बहुमुख वाले अनन्त आदि देवता आए। उन्होंने एकमुख वालों की अपेक्षा भगवान के रूपमाधुर्य का अधिक आनन्द लिया। यह देखकर शिवजी सोचने लगे कि यदि मेरे भी अनेक मुख व नेत्र होते तो मैं भी भगवान के इस किशोर रूप का सबसे अधिक दर्शन करता। शिवजी के मन में इस इच्छा के उत्पन्न होते ही वे पंचमुख हो गए (भगवान शिव के पांच मुख–अघोर, सद्योजात, तत्पुरुष, वामदेव और ईशान हैं) और प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र बन गए। तभी से उनको ‘पंचानन’ या ‘पंचवक्त्र’ कहते हैं।

त्रिनयन और त्रिनेत्र

भगवान शिव भूत्, भविष्य और वर्तमान–तीनों कालों की बातों को जानते हैं, इसी से ‘त्रिनयन’ कहलाते हैं। चन्द्र, सूर्य और अग्नि उनके तीन नेत्र हैं।

एक बार भगवान शिव शान्तचित्त बैठे हुए थे। उसी समय पार्वतीजी ने विनोदवश पीछे से आकर भगवान शिव के दोनों नेत्र मूंद लिए। भगवान शिव के सूर्य और चन्द्ररूपी नेत्रों के बंद होते ही संसार में अंधकार छा गया और जगत में अकुलाहट होने लगी। तब शिवजी के ललाट से अग्निस्वरूप तीसरा नेत्र प्रकट हुआ। उसके प्रकट होते ही दसों दिशाएं प्रकाशित हो गयीं, अंधकार हट गया। परन्तु हिमाचल जैसे पर्वत भी उस ललाटाग्नि से जलने लगे। यह देखकर पार्वतीजी घबरा गईं और हाथ जोड़कर भगवान शिव की स्तुति करने लगीं। तब शिवजी ने प्रसन्न होकर संसार की स्थिति यथावत् कर दी और तभी से ‘त्रिनेत्र’‘त्रिनयन’ कहलाने लगे।

नीलकण्ठ

हे नीलकण्ठ! आपकी दयालुता का क्या कहना। देवताओं और असुरों के द्वारा समुद्र-मंथन के समय सर्वप्रथम उसमें से हलाहल विष प्रकट हुआ, जिससे सारा संसार जलने लगा। देवता और असुर भी उस कालकूट विष की ज्वाला से दग्ध होने लगे। इस पर भगवान विष्णु ने शंकरजी से कहा कि आप देवाधिदेव और हम सभी के अग्रणी महादेव हैं। इसलिए समुद्र-मंथन से उत्पन्न पहली वस्तु आपकी ही होती है। हम लोग सादर उसे आपको भेंट कर रहे हैं। देवताओं व दानवों ने भगवान शंकर से विनती की–

‘शिवस्य तु वशे कालो न कालस्य वशे शिव:।’ हे शिव! काल आपके अधीन है, आप काल से मुक्त चिदानन्द हैं।’ जिसे मृत्यु को जीतना हो, उसे हे भगवन्! आपमें स्थित होना चाहिए। आपका मन्त्र ही मृत्युज्जय है।

भगवान शिव सोचने लगे–’यदि सृष्टि में मानव-समुदाय में कहीं भी यह विष (कलह-क्लेश, मतभेद, राग-द्वेष, संघर्ष आदि) रहे तो प्राणी अशान्त होकर जलने लगेगा। इसे सुरक्षित रखने की ऐसी जगह होनी चाहिए कि यह किसी को नुकसान न पहुंचा सके। यदि हलाहल पेट में चला गया तो मृत्यु निश्चित है और यदि बाहर रह गया तो सारी सृष्टि भस्म हो जाएगी, इसलिए सबसे सुरक्षित स्थान तो स्वयं मेरा ही कण्ठप्रदेश है।’

neekanth shivभगवान विष्णु की प्रार्थना पर जब शंकरजी उस महाविष का पान करने लगे तो शिवगणों ने हाहाकार करना प्रारम्भ कर दिया। तब भगवान भूतभावन शिव ने आश्वासन देते हुए कहा–’भगवान श्रीराम का नाम सम्पूर्ण मन्त्रों का बीज-मूल है, वह मेरा जीवन है, मेरे सर्वांग में पूर्णत: प्रविष्ट हो चुका है, अत: अब हलाहल विष हो, प्रयलानल-ज्वाला हो या मृत्युमुख ही क्यों न हो मुझे इनका किंचित भय नहीं।’ इस प्रकार राम-नाम का आश्रय लेकर महाकाल ने महाविष को अपनी हथेली पर रखकर आचमन कर लिया किन्तु उसे मुंह में लेते ही भगवान शिव को अपने उदरस्थ चराचर विश्व का ध्यान आया और वे सोचने लगे कि जिस विष की भयंकर ज्वालाओं को देवतालोग भी सहन नहीं कर सके, उसे मेरे उदरस्थ जीव कैसे सहन करेंगे?  यह ध्यान आते ही भगवान शिव ने उस विष को अपने गले में ही रोक लिया, नीचे नहीं उतरने दिया जिससे उनका कण्ठ नीला हो गया, जो दूषण (दोष) न होकर उनके लिए भूषण हो गया।

भगवान शंकराचार्यजी ने कहा है–’जरा-मृत्यु का अपहरण करने वाले अमृत का पान करते-करते इन्द्रादि सभी देवता भी विपन्नता अर्थात् मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं, किन्तु विकराल फेन वाले हलाहल विष का पान करने वाले महाकाल भगवान शंकर पर काल का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।’

कुछ लोगों के अनुसार यह शिवजी की परोपकारपरायणता अथवा त्याग के कारण हुआ, जबकि कुछ लोगों का कहना है कि यह पार्वतीजी के स्थिर सौभाग्य के कारण हुआ और कुछ अन्य लोगों के अनुसार यह भगवान शिव के राम-नाम के प्रति प्रेम के कारण हुआ था–

नाम प्रभाव जान सिव नीको।
कालकूट फलु दीन्ह अमी को।।

शिवजी के गरलपान से व्यावहारिक जीवन में यह शिक्षा मिलती है कि परिवार के मुखिया को परिवार के कलह, अशान्ति और स्वार्थ-भावना के जहर को पीना पड़ता है। पाप और विष में भेद नहीं है। शिव सबके दोषों को–विषों को पी जाते हैं–क्षमा कर देते हैं। इसी से गरल (विष) पान करने वाले समझे जाते हैं। इतना उदार और समर्थ मुखिया ही परिवार चला सकता है। हमारे जीवन में भी नित्य नये-नये विष–राग-द्वेष, कलह आदि आते रहते हैं किन्तु शिवभक्त उनसे अशान्त होने की बजाय शिव की तरह विवेकपूर्ण निर्णय लेकर उनसे पार हो जाते हैं।

गंगाधर

जटाजूटमध्ये स्फुरद्गांगवारि,
महादेवमेकं स्मरामि स्मरारिम्।।(वेदसारशिवस्तव:)
अर्थात्–जिनके जटाजूट में श्रीगंगाजी खेल रही हैं, उन एकमात्र कामारि श्रीमहादेवजी का मैं स्मरण करता हूँ।

पर्वतराज हिमालय की ज्येष्ठ कन्या हैमवती गंगा को मृत्युलोक में जाने का आदेश तो ब्रह्माजी ने दे दिया, पर गंगा के स्वर्ग से गिरने का वेग एक समस्या बनकर रह गई। ब्रह्माजी ने स्पष्ट कहा–’गंगा के गिरने का वेग पृथ्वी सहन नहीं कर सकेगी। केवल त्रिनेत्रधारी शंकर में ही इसके प्रचण्ड वेग को रोकने की क्षमता है।’

आकाश से गिरती हुई गंगाजी को, जो स्वच्छ, सुन्दर एवं चंचल जलराशि से युक्त तथा ऊंची-ऊंची लहरों से उल्लसित होने के कारण भयंकर जान पड़ती थी, भगवान शिव ने फूलों की हिलती हुई सुन्दर माला की भांति सहसा ही अपने मस्तक पर धारण कर लिया। भगवान शंकर के सिर पर अपनी लहरों के साथ लहराती हुई गंगा आकाश से इस प्रकार अवतरित हो रही है, जैसे चन्द्रमा को निर्मल मृणालकन्द (कमल के डंठल के मध्य का रेशा) समझकर उसे पाने की इच्छा करती हुई और अपने पंखों को हिलाती-डुलाती हंसिनी आकाश से सरोवर में उतर रही हो। भगवान शंकर की अनुकम्पा ने पृथ्वी को गंगा जैसा अद्भुत उपहार प्रदान किया, उन औघड़दानी शिव की प्रशंसा में जितना कुछ कहा जाए, कम ही होगा।

चन्द्रमौली, चन्द्रशेखर, शशिशेखर और मुण्डमालाधारी

चन्द्रमा को अभयदान देकर अपने शीश पर धारण करने वाले भगवान शिव को ‘चन्द्रमौली, चन्द्रशेखर शशिशेखर’ कहा जाता है। सुर और असुर दोनों ने ही समुद्र-मंथन में बराबर का श्रम किया था परन्तु श्रीहरि देवताओं की तरफ थे इसलिए अमृत देवताओं को ही प्राप्त हुआ था। असुरों ने धन्वन्तरि से बलपूर्वक अमृत कलश छीन लिया था किन्तु अमरत्व बलपूर्वक प्राप्त नहीं किया जा सकता। अमरत्व तो केवल उसे ही प्राप्त हो सकता है जिस पर श्रीहरि की कृपा होती है। अमरत्व प्राप्त करने के लिए मनुष्यों को श्रीहरि के चरणों में भक्ति रखनी चाहिए। जो उनके श्रीचरणों से दूर है उसे अमरत्व प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए श्रीहरि ने मोहिनी रूप धारणकर अमृत कलश को असुरों से लेकर देवताओं में अमृत वितरित कर दिया और असुर मोहिनी के मायाजाल में फंसकर अमृत से वंचित रह गए।

mohini amritअमृत के वितरण के समय असुर स्वर्भानु वेष बदलकर देवताओं की पंक्ति में बैठ गया। सूर्य और चन्द्रमा ने देवताओं के वेष में अपने मध्य में बैठे स्वर्भानु को पहचान लिया। उन्होंने संकेत से श्रीहरि को सूचित कर दिया कि यह सुर (देवता) नहीं है। दैत्य ने इन दोनों का संकेत देख लिया। तब तक स्वर्भानु को अमृत मिल चुका था। संकेत पाकर श्रीहरि ने अपने चक्र से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया।

मस्तक कट जाने पर धड़ ‘केतु’ बन गया। ब्रह्मा ने उसे दूर अन्तरिक्ष में फेंक दिया। उसका मस्तक ‘राहु’ कहलाया। वह विकृत एवं विकराल मुख चन्द्रमा को पकड़ने के लिए दौड़ा क्योंकि इस समय अमृत चन्द्रमा के पास था। राहु जब चन्द्रमा की ओर दौड़ा तो देवता चन्द्रमा को आगे करके अमरावती पहुंचने के लिए पूरे वेग से दौड़े किन्तु जब वे अमरावती पहुंचे तो राहु उनसे पहले पहुंचकर उनका रास्ता रोके खड़ा था। राहु ने चन्द्रमा को पकड़कर निगल लिया किन्तु धड़ न होने के कारण चन्द्रमा उसके गले से बाहर निकल आया।

राहु को अपनी भूल का पता लगा कि उसे निगलने की बजाय चन्द्रमा को चबा जाना चाहिए था। चन्द्रमा को उसने चबाने के लिए फिर पकड़ने की कोशिश की। इतने में चन्द्रमा शिवजी के पास चला आया और बोला, ‘हे भगवान! मैं आपकी शरण में हूँ। मेरी रक्षा कीजिए।’

‘डरो मत!’ भगवान शंकर बोले। उन्होंने चन्द्रमा को अपने मस्तक पर जटाओं में रख लिया। इस प्रकार भगवान शंकर ‘चन्द्रमौली’ कहलाए। इतने में राहु भी शंकरजी के पास पहुंचा और बोला, ‘भगवान! आप परमब्रह्म परमात्मा हैं। आप ही हम असुरों के परम आराध्य हैं। मैं आपके चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम करता हूँ। आप सबके पालक हैं। चन्द्रमा मेरा आहार है। आप इसे मुझे प्रदान करें।’

भगवान शंकर ने राहु से कहा–’मैं सबका आश्रयदाता हूँ। असुर और देवता दोनों मुझे प्रिय हैं। तुम्हारे उदर नहीं है इसलिए तुम बिना आहार के रह सकते हो। अमृत तुम प्राप्त कर चुके हो। चन्द्रमा अमृतमय हो गया है और मेरी शरण में आ गया है। मैंने इसे अभय प्रदान किया है।’

राहु भी भगवान शंकर को प्रणाम करके उनके मस्तक में चन्द्रमा के निकट विराजमान हो गया। उस समय राहु के भय से कांपते हुए चन्द्रमा से जो अमृतस्त्राव हुआ, उन अमृतकणों के स्पर्श से राहु के अनेक सिर हो गए। भगवान शंकर ने उन सिरों को लेकर मुण्डमाला बना ली। इस प्रकार राहु के सिरों की वह मुण्डमाला शिव के कण्ठ का आभूषण बन गई।

श्मशानवासी व चिताभस्मालेपी व राम-नाम प्रेमी (रामेश्वर)

प्रलयकालकाल में भगवान शिव के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं रहता, ब्रह्माण्ड श्मशान हो जाता है, उसकी भस्म और रुण्ड-मुण्ड में वही शिव व्यापक रहते हैं, अत: ‘चिताभस्मालेपी’‘रुण्डमुण्डधारी’ कहलाते हैं।

भगवान शंकर का राम-नाम पर बहुत स्नेह है। एक बार कुछ लोग एक मुरदे को श्मशान ले जा रहे थे और ‘राम-नाम सत् है’ ऐसा बोल रहे थे। शंकरजी ने राम-नाम सुना तो वे भी उनके साथ चल दिए। जैसे पैसों की बात सुनकर लोभी आदमी उधर खिंच जाता है, ऐसे ही राम-नाम सुनकर शंकरजी का मन भी उन लोगों की ओर खिंच गया। अब लोगों ने मुरदे को श्मशान में ले जाकर जला दिया और वहां से लौटने लगे। शंकरजी ने विचार किया कि बात क्या है? अब कोई आदमी राम-नाम ले ही नहीं रहा है। उनके मन में आया कि उस मुरदे में ही कोई करामात थी, जिसके कारण ये सब लोग राम-नाम ले रहे थे। अत: उसी के पास जाना चाहिए। शंकरजी ने श्मशान में जाकर देखा कि वह मुरदा तो जलकर राख हो गया है। अत: शंकरजी ने उस मुरदे की राख अपने शरीर में लगा ली और वहीं रहने लगे। ‘राख’ और ‘मसान’ दोनों के पहले अक्षर लेने से ‘राम’ हो जाता है। इसीलिए शंकरजी को ये दोनों ही प्रिय हैं।

किसी कवि ने कहा है–

बार-बार करत रकार व मकार ध्वनि,
पूरण है प्यार राम-नाम पे महेश को।।

सती के नाम में ‘र’कार अथवा ‘म’कार नहीं है, इसलिए शंकरजी ने सती का त्याग कर दिया। जब सती ने पर्वतराज हिमाचल के यहां जन्म लिया, तब उनका नाम ‘गिरिजा (पार्वती)’ हो गया। इतने पर भी ‘शंकरजी मुझे स्वीकार करेंगे या नहीं’–ऐसा सोचकर पार्वतीजी तपस्या करने लगीं। जब उन्होंने सूखे पत्ते भी खाने छोड़ दिए, तब उनका नाम ‘अपर्णा’ हो गया। ‘गिरिजा’ और ‘अपर्णा’–दोनों नामों में ‘र’कार आ गया तो शंकरजी इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने पार्वतीजी को अपनी अर्धांगिनी बना लिया। इसी तरह शंकरजी ने गंगा को स्वीकार नहीं किया परन्तु जब गंगा का नाम ‘भागीरथी’ पड़ गया, (इसमें भी ‘र’कार है)  तब शंकरजी ने उनको अपनी जटा में धारण कर लिया। अत: भगवान शंकर का राम-नाम में विशेष प्रेम है। वे दिन-रात राम-नाम का जप करते रहते हैं।

तुम्ह पुनि राम राम दिन राती।
सादर जपहु अनंग आराती।। (मानस १।१०८।४)

भगवान शंकर रामजी के सेवक, स्वामी और सखा–तीनों ही हैं। रामजी की सेवा करने के लिए शंकरजी ने हनुमान का रूप धारण किया। वानर का रूप उन्होंने इसलिए धारण किया कि अपने स्वामी की सेवा तो करूँ, पर उनसे चाहूँ कुछ भी नहीं; क्योंकि वानर को न रोटी चाहिए, न कपड़ा और न मकान। वह जो कुछ भी मिले, उसी से अपना निर्वाह कर लेता है। रामचन्द्रजी ने पहले रामेश्वर शिवलिंग का पूजन किया, फिर लंका पर चढ़ाई की। अत: भगवान शंकर रामजी के स्वामी हैं। ‘रामेश्वर’ शब्द का अर्थ करते हुए रामचन्द्रजी ने कहा ‘राम के ईश्वर।’ शंकरजी बोले कि नहीं, इसका अर्थ है ‘राम हैं ईश्वर जिसके।’ ब्रह्माजी ने इनसे भिन्न अपना मत प्रकट करते हुए कहा कि ये दोनों बराबर हैं। इस प्रकार भगवान शंकर रामचन्द्रजी के सखा भी हैं।

श्रीरामचरितमानस में भगवान रामचन्द्रजी कहते हैं–

संकर प्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास।
ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास।।
औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि।
संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि।।

पद्मपुराण (पातालखण्ड २८।२१-२३) में भगवान श्रीराम भगवान शंकरजी से कहते हैं–’आप (शंकरजी) मेरे हृदय में रहते हैं और मैं आपके हृदय में रहता हूँ। हम दोनों में कोई भेद नहीं है। मूर्ख एवं दुर्बुद्धि मनुष्य ही हमारे अंदर भेद समझते हैं। हम दोनों एकरूप हैं, जो मनुष्य हमारे अंदर भेद-भावना करते हैं, वे हजार कल्पपर्यन्त कुम्भीपाक नरकों में यातना सहते हैं।’

श्रीसीताजी ने पहले जनकपुर में शिव-धनुष की सेवा के द्वारा भगवान शंकर की प्रसन्नता प्राप्त की, तत्पश्चात् उनकी शक्ति गिरिजा के वरदान से अपने आराध्य श्रीराम को प्राप्त किया।

आशुतोष

शिव का एक नाम ‘आशुतोष’ है। ‘आशु’ का अर्थ है अति शीघ्र, ‘तोष’ यानी प्रसन्न होने वाले। उपासना से शीघ्र ही प्रसन्न होने के कारण उन्हें आशुतोष कहते है।

मूर्तिर्मृदा बिल्वदलेन पूजा अयत्नसाध्यंवदनाब्जवाद्यम्।
फलं च यद्यत् मनसोऽभिलाषो स्वरूपविश्वेश्वर एव देव:।।

अर्थात्–आशुतोष शंकर की उपासना कितनी सरल है–’मिट्टी से ही मूर्ति बन जाती है, बेल के पत्ते से ही पूजा हो जाती है तथा बिना मेहनत के ही मुख बजा देने (मुख से बम-बम की ध्वनि निकालने) से बाजे का काम हो जाता है। फिर इस पूजा से जो-जो मन की अभिलाषाएं होती हैं सब पूरी हो जाती हैं।’

हे शशिशेखर! आपके पूजन के लिए न तो पैसा चाहिए और न विशेष सामग्री की अपेक्षा है। सुबह-शाम, दिन में, रात में, दोपहर में, आधी रात को–जब हमें फुरसत हो, तभी हम आपकी पूजा बिना किसी संकोच के कर सकते हैं। आक की डोंडियों और धतूरे के पुष्पों से ही आप प्रसन्न हो जाते हैं, कौड़ियों में काम होता है। आक और धतूरे के बदले में आप देते हैं मोक्षसाम्राज्यलक्ष्मी, जो देवताओं को भी दुर्लभ है। कितना सस्ता सौदा है! इसीलिए तो आप ‘आशुतोष’ एवं ‘औढरदानी’ की उपाधि से विभूषित हैं। भगवान शिव भक्त की थोड़ी-सी सेवा-भावना से रीझ कर उसे न केवल ‘धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष’ बल्कि अपने-आप को  भी प्रदान कर देते हैं। इन्हीं गुणों के कारण उन्होंने रावण तथा भस्मासुर आदि को भी बिना बिचारे अनेक वरदान दे दिए।

इस सम्बन्ध में एक सुन्दर प्रसंग है–एक चोर था। वह किसी शिव-मंदिर में घण्टा चुराने गया। घण्टे पर हाथ न पहुंच पाने के कारण वह शिवलिंग पर चढ़ गया। शंकरजी ने माना कि और लोग तो हम पर थोड़ी-थोड़ी वस्तुएं चढ़ाते हैं, परन्तु इसने तो स्वयं को ही चढ़ा दिया। अत: भगवान शंकर स्वयं प्रकट हो गए और चोर का कल्याण हो गया। इसी महानता के कारण वे ‘आशुतोष’ कहलाते हैं।

मुकुन्दप्रिय

भगवान शिव श्रीहरि के अनन्य भक्त परम वैष्णव हैं। अत: उनके लिए कहा जाता है–’वैष्णवानां यथा शम्भु:।’ वैष्णवों में अग्रणी भगवान शिव ने श्रीहरि के चरणामृतरूपा गंगा को अपने जटाजूट में बांध लिया और गंगाधर कहलाए। भगवान शंकर के हृदय में विष्णु का और भगवान विष्णु के हृदय में शंकर का बहुत अधिक स्नेह है। पुराणों में यह कहा गया है कि शिव और विष्णु एक-दूसरे की अन्तरात्मा हैं और निरन्तर एक-दूसरे की पूजा, स्तुति व उपासना में संलग्न रहते हैं–‘शिवस्य हृदये विष्णु: विष्णोश्च हृदये शिव:।’

शिव तामसमूर्ति हैं और विष्णु सत्त्वमूर्ति हैं, पर एक-दूसरे का ध्यान करने से शिव श्वेतवर्ण के और विष्णु श्यामवर्ण के हो गए। वैष्णवों का तिलक (ऊर्ध्वपुण्ड्र) त्रिशूल का रूप है और शैवों का तिलक (त्रिपुण्ड) धनुष का रूप है। अत: शिव व विष्णु में भेद नहीं मानना चाहिए। हरि और हर–दोनों की प्रकृति (वास्तविक तत्त्व) एक ही है।

एक बार वैकुण्ठ में श्रीहरि ने स्वप्न में महादेवजी को देखा तो निद्रा भंग होने पर वे लक्ष्मी सहित गरुड़ पर सवार होकर कैलाश की ओर चल दिए। इसी प्रकार कैलाश पर महादेवजी ने स्वप्न में श्रीहरि को देखा तो निद्रा भंग होने पर वे भी पार्वती सहित नन्दी पर सवार वैकुण्ठ की तरफ चल दिए। मार्ग में ही श्रीहरि और महादेवजी की भेंट हो गई। दोनों हर्षपूर्वक गले मिले। फिर श्रीहरि महादेवजी से वैकुण्ठ चलने का आग्रह करने लगे और महादेवजी श्रीविष्णुजी से कैलाश चलने का आग्रह करने लगे। बहुत देर तक दोनों एक-दूसरे से यह प्रेमानुरोध करते रहे।

इतने में देवर्षि नारद वीणा बजाते, हरिगुण गाते वहां पधारे। तब पार्वतीजी ने नारदजी से इस समस्या का हल निकालने के लिए कहा। नारदजी ने हाथ जोड़कर कहा–‘मैं इसका क्या हल निकाल सकता हूँ। मुझे तो हरि और हर एक ही लगते हैं। जो वैकुण्ठ है वही कैलाश है।’

अंत में तय यह हुआ कि पार्वतीजी जो कह दें वही ठीक है। पार्वतीजी ने थोड़ी देर विचार करके कहा–हे नाथ! हे नारायण! आपके अलौकिक प्रेम को देखकर तो मुझे यही लगता है कि जो कैलास है वही वैकुण्ठ है और जो वैकुण्ठ है वही कैलास है। इनमें केवल नाम में ही भेद है। आपकी भार्याएं भी एक हैं, दो नहीं। जो मैं हूँ वही श्रीलक्ष्मी हैं और जो श्रीलक्ष्मी हैं वहीं मैं हूँ। अब मेरी प्रार्थना है कि आप लोग दोनों ही अपने-अपने लोक को पधारिए। श्रीविष्णु यह समझें कि हम शिवरूप से वैकुण्ठ जा रहे हैं और महेश्वर यह मानें कि हम विष्णुरूप से कैलास गमन कर रहे हैं। पार्वतीजी के वचनों को सुनकर दोनों देव हर्षित होकर अपने-अपने धामों को लौट गए।

एक बार भक्त नरसीजी को भगवान शंकर ने दर्शन दिए और उनसे वरदान मांगने को कहा। तब नरसीजी ने कहा कि जो चीज आपको सबसे अधिक प्रिय लगती है, वही दीजिए। भगवान शंकर ने कहा कि मेरे को कृष्ण सबसे अधिक प्रिय लगते हैं, अत: मैं तुम्हें उनके ही पास ले चलता हूँ। ऐसा कहकर भगवान शंकर उनको गोलोक ले गए।

ब्रह्मवैवर्तपुराण में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं शिवजी के प्रति अपने श्रद्धा-भाव को व्यक्त करते हुए कहते हैं–’देव! मेरा आपसे बढ़कर कोई प्रिय नहीं है। आप मुझे अपनी आत्मा से भी अधिक प्यारे हैं।’

कपाली

ब्रह्मा के मस्तक को काटकर उसके कपाल को कई दिनों तक कर में धारण करने से भगवान शिव ‘कपाली’ कहे जाते हैं। एक बार भगवान शिव ने कपाल व्रत धारण किया। वे कपाल (खप्पर) में भोजन करते थे। हाथ में कपाल लिए रहते थे। कपाल व्रत धारण करने वाला केवल भिक्षान्न खाता है, पवित्र तीर्थों के श्मशान में रहता है, प्रिय-अप्रिय अवस्थाओं में संतुष्ट रहता है, सब अंगों पर विभूति लगाए रहता है। वह जितेन्द्रिय, आसक्तिहीन व सदा जप में लगा रहता है। बैठे-बैठे ही निद्रा ले लेता है। इस व्रत को ‘महापाशुपत व्रत’ भी कहते हैं। यह व्रत शिव को अत्यन्त प्रिय है। वे इस व्रत को धारणकर भ्रमण करते हुए उज्जयिनी पहुंचे। वहां के उपवनों में वृक्षों ने उन पर पुष्पवर्षा की। भगवान शिव ने प्रसन्न होकर कहा–’तुम्हारा मंगल हो, जो चाहे सो मांग लो।’ वृक्षों ने कहा–’आप सदा इसी वन में निवास करें।’ वृक्षों की प्रार्थना स्वीकार कर वे एक वर्ष तक इसी वन में रहे और वर देते हुए कहा–यह वन महाकाल वन, गुह्य वन और श्मशान वन के नाम से जाना जाएगा।

हे कपालिन्! आप चाहें भीख मांगने का नाटक करें अथवा भूतों के दल के साथ श्मशान में गश्त लगावें, कुछ भी करें, आपका ऐश्वर्य किसी से छिपा नहीं रह सकता। आप ब्रह्मा, विष्णुपर्यन्त समस्त चराचर जगत् के स्वामी हैं। स्वर्णगिरि (सुमेरु) आपके समीप ही है, मन में आया कि सोना-ही-सोना ले लिया। देवताओं के खजांची कुबेर धनपतिजी आपकी बगल में ही अलकापुरी में रहते हैं, जब धनपति आपके पड़ोसी हैं तब आपको धन की क्या कमी रह सकती है? कल्पवृक्ष, कामधेनु और चिन्तामणियों का ढेर आपके घर में ही मौजूद है, क्योंकि ऋद्धि-सिद्धि आपकी पुत्रवधू हैं। वे जब चाहें एक क्षण में दुनिया भर का सामान लाकर जुटा सकती हैं। ऐसी दशा में आपको किसी भी वस्तु का अभाव नहीं हो सकता। चन्द्रमा जो अमृत का खजाना (सुधाकर) है, सदा आपके मस्तक पर ही रहता है और आपके युगलचरण समस्त कल्याणों के धाम हैं। फिर ऐसी कौन-सी वस्तु हो सकती है जो मैं आपको भेंट करूं? मेरे पास तो मन के सिवा और कोई वस्तु है भी नहीं। अत: आप कृपा कर इसी को स्वीकार कीजिए।

हे शम्भो! मेरी आत्मा तुम हो, बुद्धि पार्वतीजी है, प्राण आपके गण हैं, शरीर आपका मन्दिर है, सम्पूर्ण विषय-भोग की रचना आपकी पूजा है, निद्रा समाधि है, मेरा चलना-फिरना आपकी परिक्रमा है तथा सम्पूर्ण शब्द आपके स्त्रोत हैं; इस प्रकार मैं जो-जो भी कर्म करता हूँ, वह सब आपकी आराधना ही है।

प्रभो शूलपाणे विभो विश्वनाथ
महादेव शम्भो महेश त्रिनेत्र।
शिवाकान्त शान्त स्मरारे पुरारे
त्वदन्यो वरेण्यो न मान्यो न गण्य:।।

अर्थात्–हे प्रभो! हे त्रिशूलपाणे! हे विभो! हे विश्वनाथ! हे महादेव! हे शम्भो! हे महेश्वर! हे त्रिनेत्र! हे पार्वतीप्राणवल्लभ! हे शान्त! हे कामारे! हे त्रिपुरारे! तुम्हारे अतिरिक्त न कोई श्रेष्ठ है, न माननीय है और न गणनीय है।

9 COMMENTS

  1. बैनतेय सुनु संभु तब आए जहँ रघुबीर।
    बिनय करत गदगद गिरा पूरित पुलक सरीर।।

  2. namste prakand vidushi bhagwan shiv ke name padhkar aisa bajan ho gaya ki vyakt karna mushkil hai asha hai aise name or satwan milte rahengen apka abhar

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