भगवान शंकर का सिद्ध स्तोत्र शिव महिम्न:-स्तोत्र

परम शिवभक्त गन्धर्वराज पुष्पदंत द्वारा रतित शिव महिम्न:-स्तोत्र उपासक को अवश्य फल देने वाला है।

श्रावणमास में शिवपूजा संवारती है जीवन

दरिद्रता, रोग, दु:ख और शत्रुपीड़ा को दूर भगाए श्रावण में शिवपूजा |

ज्ञान के आदर व पूजन का पर्व गुरुपूर्णिमा

गुरुपूजा का अर्थ किसी व्यक्ति का पूजन या आदर नहीं है; वरन् उस गुरु की देह में स्थित ज्ञान का आदर है, ब्रह्मज्ञान का पूजन है।

भगवान गणपति के 108 नाम, बनाएं सारे बिगड़े काम

जिस प्रकार भगवान में अनन्त शक्तियां होती हैं, वैसे ही उनके नाम अनन्त शक्तियों से भरे जादू की पिटारी हैं। इसलिए प्रतिदिन चाहे हम गणेशजी की विधिवत् पूजा करें अथवा उनके नामों के पाठ-स्मरण से अपने दिन की शुरुआत करें; अष्टसिद्धि-नवनिधि के दाता श्रीगणेश को प्रसन्नकर हम कार्यों में सफलता, विवेक-बुद्धि एवं सुख-शान्ति व समृद्धि प्राप्त कर सकते हैं।

भगवान शिव और पार्वती के परिहास में छिपा जगत का कल्याण

’पार्वती! तुम अपने पिता हिमाचल की तरह पत्थर-दिल प्रतीत होती हो। तुम्हारी चाल में भी पहाड़ी मार्गों की तरह कुटिलता है। ये सब गुण तुम्हारे शरीर में हिमाचल से ही आए प्रतीत होते हैं।’ शिवजी के इन वचनों ने पार्वतीजी की क्रोधाग्नि में घी का काम किया। उनके होंठ फड़कने लगे, शरीर कांपने लगा।

तुलसीदासजी ने अपनी वातपीड़ा दूर करने के लिए रचा ‘हनुमानबाहुक’

वातपीड़ा दूर करने वाला रामबाण स्तोत्र 'हनुमानबाहुक', हनुमानबाहुक' के तीन पाठ मिटा देते हैं वातरोग, तुलसीदासजी ने 'हनुमानबाहुक' के रूप में हनुमानजी के दरबार में लगाया अपना प्रार्थना-पत्र, 'हनुमानबाहुक’ रूपी मन्त्रात्मक वन्दना से तुलसीदासजी की पीड़ा हुयी दूर, 'हनुमानबाहुक' पाठ की विधि।

भगवान शंकर का विचित्र दूल्हावेष

कहां तुम कमल के समान विशाल नेत्र वाली और कहां शिव भयंकर तीन नेत्रों वाले विरुपाक्ष? कहां तुम चन्द्रमा के समान मुख वाली और कहां शिव पांच मुख वाले, तुम्हारे सिर पर सुन्दर वेणी और शिव के सिर पर जटाजूट, तुम्हारे शरीर पर चंदन का लेप और शिव के शरीर पर चिताभस्म, कहां तुम्हारा दुकूल और कहां शिव का गजचर्म! कहां तुम्हारे दिव्य आभूषण और कहां शिव के सर्प और मुण्डमाला ! कहां तुम्हें सुख देने वाला मृदंगवाद्य व भेरी की ध्वनि और कहां उनका डमरु और अशुभ श्रृंगी का शब्द? कहां तुम्हारे बाजे ‘ढक्का’ का शब्द और कहां उनका अशुभ गले का शब्द।

शिवावतार महायोगी गुरु गोरक्षनाथ

महायोगी गोरखनाथजी मनुष्यों को योग का अमृत प्रदान करने के लिए चारों युगों में विद्यमान हैं। ऐसी मान्यता है कि त्रेतायुग में भगवान श्रीराम ने अश्वमेधयज्ञ के समय गोरखनाथ मन्दिर, गोरखपुर में गुरु गोरखनाथजी को अपने यज्ञ में शामिल होने के लिए आमन्त्रित किया था। द्वापर में धर्मराज युधिष्ठिर ने गोरखनाथजी को अपने यज्ञ में शामिल होने के लिए बुलाया था। महायोगी गोरखनाथजी ने श्रीकृष्ण और रुक्मिणीजी का कंगन-बंधन सिद्ध किया था। वे श्रीराम, हनुमान, युधिष्ठिर, भीम आदि सभी के पूज्य थे। मां ज्वाला ने स्वयं अपने हाथ से भोजन बनाकर खिलाने का उनसे अनुरोध किया था।

भगवान शंकर का अंगराग चिताभस्म

जैसे राजा अपने राज्य में कर लगाकर उन्हें ग्रहण करता है, जैसे मनुष्य भोज्य पदार्थों को पकाकर उसका सार ग्रहण करता है तथा जैसे जठरानल तरह-तरह के भोज्य पदार्थों को अधिक मात्रा में ग्रहणकर उसको पचाकर उसका सारतत्त्व पोषण रूप में लेता है, उसी प्रकार परमेश्वर शिव ने भी संसाररूपी प्रपंच को जलाकर भस्मरूप से उसके सारतत्त्व को ग्रहण किया है।

व्रज में गोपी बने त्रिपुरारि

महारास में गोपियों के मण्डल में मिलकर गोपीरूप शंकरजी अतृप्त नेत्रों से मनमोहन श्रीकृष्ण की रूपमाधुरी का पान करने लगे। रासेश्वर श्रीकृष्ण और रासेश्वरी श्रीराधा को गोपियों के साथ नृत्य करते देखकर भोलेनाथ स्वयं भी ‘तत थेई थेई’ कर नाचने लगे। तभी श्यामसुन्दर ने ऐसी मोहनी वंशी बजाई कि भोलेनाथ अपनी सुध-बुध भूल गए और उनके सिर से घूंघट हट गया और उनकी जटाएं बिखर गईं।