शिवरात्रि पर शिवपूजन की विधि

भगवान शिव के षोडशोपचार अर्थात् सोलह उपचारों से पूजा की सामग्री व विधि दी जा रही है। अपने समय, स्वास्थ्य व सामर्थ्य के अनुसार जैसे भी बने, पूजा की जा सकती है। भगवान सदाशिव की पूजा जहां एक ओर राजसी उपचारों व वैभव से की जाती है; वहीं दूसरी ओर वह केवल जल, अक्षत, बिल्वपत्र और मुखवाद्य (मुख से बम-बम भोले की ध्वनि) से ही पूरी हो जाती है। शिवजी की प्रसन्नता के लिए गाल बजाना भी श्रेष्ठ माना गया है; इसीलिए वे ‘आशुतोष’ कहे जाते हैं।

फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को क्यों कहते हैं महाशिवरात्रि?

महाशिवरात्रि फाल्गुनमास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि को मनाई जाती है। भगवान शिव के निराकार से साकाररूप में अवतरण की रात्रि ही महाशिवरात्रि है। कहा जाता है कि इस दिन शिवजी समस्त शिवलिंगों में प्रवेश करते हैं। ईशान-संहिता के अनुसार फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी की रात्रि को भगवान शिव करोड़ों सूर्यों के समान प्रभा वाले लिंगरूप में प्रकट हुए। इसलिए इसे महाशिवरात्रि कहते हैं जबकि प्रत्येक मास की कृष्णपक्ष की चतुर्दशी ‘शिवरात्रि’ कहलाती है।

भगवान शिव का संसार को दान

ब्रह्माजी इसलिए परेशान हैं कि जिन लोगों के मस्तक पर मैंने सुख का नाम-निशान भी नहीं लिखा था, आपके पति शिवजी अपनी परम उदारता और दानशीलता के कारण उन कंगालों को इन्द्रपद दे देते हैं, जिससे उनके लिए स्वर्ग सजाते-सजाते मेरे नाक में दम आ गया है। शिवजी ब्रह्मा का लिखा भाग्य पलटकर अनधिकारियों को स्वर्ग भेज रहे हैं। दीनता और दु:ख को कहीं भी रहने की जगह न मिलने से वे दु:खी हो रहे हैं। याचकता व्याकुल हो रही है। अर्थात् शिवजी की दानशीलता ने सभी दीनों व कंगालों को सुखी और राजा बना दिया है। शिवजी ने प्रकृति के सारे नियम ही पलट दिए हैं।

शिवपंचाक्षर मन्त्र ‘नम: शिवाय’

यह पंचाक्षर मन्त्र मोक्षमार्ग को प्रकाशित करने वाला दीपक है। अविद्या के समुद्र को सोखने वाला वडवानल है और पापों के जंगल को जला डालने वाला दावानल है। यह पंचाक्षर मन्त्र वटवृक्ष के बीज की भांति हैं जो सब कुछ देने वाला तथा सर्वसमर्थ है।

भगवान शंकर, शुक्राचार्य और मृतसंजीवनी विद्या

दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य, भृगुपुत्र कवि का शुक्राचार्य नाम क्यों पड़ा?, शुक्राचार्य द्वारा कहे गए भगवान शंकर के १०८ नाम, भगवान शंकर द्वारा शुक्राचार्य को मृतसंजीवनी विद्या देना, शुक्रेश्वर शिवलिंग

चौबीस देवताओं के चौबीस गायत्री मन्त्र

देवताओं की गायत्रियां वेदमाता गायत्री की छोटी-छोटी शाखाएं है, जो तभी तक हरी-भरी रहती हैं, जब तक वे मूलवृक्ष के साथ जुड़ी हुई हैं। वृक्ष से अलग कट जाने पर शाखा निष्प्राण हो जाती है, उसी प्रकार अकेले देव गायत्री भी निष्प्राण होती है, उसका जप महागायत्री (गायत्री मन्त्र) के साथ ही करना चाहिए।

गायत्री मन्त्र के चमत्कारी चौबीस अक्षर

गायत्री वेदजननी गायत्री पापनाशिनी। गायत्र्या: परमं नास्ति दिवि चेह च पावनम्।। (शंखस्मृति) अर्थात्--‘गायत्री वेदों की जननी है। गायत्री पापों का नाश करने वाली है। गायत्री से...

जलधारा, पुष्पों व धान्यों से शिवपूजा का फल

भगवान शिव ने अपने कण्ठ में कालकूट विष को धारण कर रखा है। उस विषाग्नि को शान्त करने के लिए उनके मस्तक पर गंगा और चन्द्रकला दो फायरब्रिगेड का कार्य करते हैं। उसी विषाग्नि की तीव्रता को शान्त करने के लिए भगवान शिव का शीतल वस्तुओं से अभिषेक किया जाता है। जैसे--कच्चा दूध, गंगाजल, पंचामृत, गुलाबजल, इक्षुरस (गन्ने का रस), चंदन मिश्रित जल, कुश-पुष्पयुक्त जल, सुवर्ण एवं रत्नयुक्त जल (रत्नोदक) व नारियल का जल आदि।

रावण का उत्कर्ष और पतन

अभिमानी दशानन ने कैलासपर्वत को मूल से उखाड़कर अपने कंधों पर उठा लिया। पर्वत हिलते देखकर शिवजी ने कहा--’यह क्या हो रहा है? पार्वतीजी ने हंसते हुए कहा--’आपका शिष्य आपको गुरुदक्षिणा दे रहा है।’ यह अभिमानी रावण का कार्य है, ऐसा जानकर शिवजी ने उसे शाप देते हुए कहा--’अरे दुष्ट! शीघ्र ही तुझे मारने वाला उत्पन्न होगा।’ शिवजी ने अपने पैर के अंगूठे से पर्वत को दबा दिया। दशानन का कंधा और हाथ पर्वत के नीचे दब गए तो वह जोर-जोर से रुदन करने लगा। दीर्घकाल तक रुदन करते-करते उसने भगवान शंकर की स्तुति की, जो ताण्डव स्तुति के नाम से प्रसिद्ध है।

शिवपूजन और बिल्वपत्र

विष्णुप्रिया लक्ष्मीजी के वक्ष:स्थल से प्रादुर्भूत हुआ बिल्ववृक्ष, बिल्वपत्र से ही शिवपूजन की पूर्णता, मनोकामनापूर्ति, संकटनाश व सुख-सम्पत्ति के लिए इस मन्त्र के साथ चढ़ाएं बेलपत्र : भालचन्द्र मद भरे चक्ष, शिव कैलास निवास, भूतनाथ जय उमापति पूरी मो अभिलाष। शिव समान दाता नहीं, विपति विदारन हार, लज्जा मेरी राखियो सुख सम्पत्ति दातार।।