उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि न मनोरथै : ।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा: ।।
अर्थात्—सब काम पुरुषार्थ से ही सिद्ध होते हैं, केवल मन में सोच लेने से सिद्ध नहीं होते । सिंह सोच ले कि मैं तो जंगल का राजा हूँ, मुझे पुरुषार्थ करने से क्या मतलब ? तो सोते हुए सिंह के मुंह में कभी मृग नहीं आते, उसके लिए तो उसे शिकार करना ही होता है ।
परम पुरुषार्थी महर्षि विश्वामित्र
महर्षि विश्वामित्र के समान पुरुषार्थी ऋषि शायद ही कोई और हो । वे अपनी सच्ची लगन, पुरुषार्थ और तपस्या के बल पर क्षत्रिय से ब्रह्मर्षि बने । ब्रह्माजी ने बड़े आदर से इन्हें ब्रह्मर्षि पद प्रदान किया । सप्तर्षियों में अग्रगण्य हुए और वेदमाता गायत्री के द्रष्टा ऋषि हुए । इन्हें अपनी समाधि में प्रज्ञा शक्ति से अनेक मन्त्रों के स्वरूपों का दर्शन हुआ, इसलिए ये ‘मन्त्रद्रष्टा ऋषि’ कहलाते हैं ।
‘मन्त्रद्रष्टा ऋषि’ किसे कहते हैं ?
वेद परमात्मा के श्वास से प्रकट हुए शुद्ध ज्ञान का नाम है । महाप्रलय के बाद ईश्वर ने सृष्टि के प्रारम्भ में सबसे पहले हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा) को बनाया; फिर उनसे तपस्या कराई । इसके बाद योग्यता आने पर सृष्टि की सुव्यवस्था के लिए धर्म-बोध की आवश्यकता समझकर सबसे पहले ब्रह्मा को वेद धारण कराया । वेद पहले ब्रह्मा के हृदय में आविर्भूत हुए, हृदय में फलित होने पर उन्हें ब्रह्माजी के मुखों से उच्चरित करा दिया । ये वेद उनके चारों मुखों में सर्वदा विद्यमान रहते हैं । इस तरह ईश्वर ने ब्रह्माजी को वेद प्रदान किए । वेदों की प्राप्ति के पश्चात् इन्हीं की सहायता से ब्रह्माजी भौतिक सृष्टि-रचना में समर्थ हुए ।
ब्रह्माजी की ऋषिसंतानों (सनक, सनन्दन, वशिष्ठ आदि) ने आगे चलकर तपस्या द्वारा वेद रूपी ईश्वरीय ज्ञान का अपने हृदय में साक्षात्कार किया, अंत:चक्षुओं से प्रत्यक्ष दर्शन किया और फिर उसे प्रकट किया । वे ही ऋषि वेदमन्त्रों के द्रष्टा बने ।
इस प्रकार मन्त्रद्रष्टा ऋषि वह है जिसने मन्त्र के ज्ञान को और मन्त्र को समाधि की दशा में अपने निर्मल अंतकरण में दर्शन किया । ऋषियों ने मन्त्रों को देखा; इसलिए उनका नाम ‘ऋषि’ पड़ा । जिस ऋषि ने अपनी तपश्चर्या के द्वारा किसी विशेष अवसर पर जिस मन्त्र का विशेष दर्शन किया वह उसका ‘मन्त्रद्रष्टा ऋषि’ कहलाया ।
गायत्री मन्त्र के द्रष्टा महर्षि विश्वामित्र
यदि महर्षि विश्वामित्र न होते तो सबसे अधिक लोकप्रिय गायत्री मन्त्र जगत को प्राप्त नहीं होता । उन्हीं की कृपा से, उनकी साधना से यह गायत्री मन्त्र है । यह उनका जगत पर महान उपकार है ।
महर्षि विश्वामित्र तपस्या के धनी थे । इन्हें गायत्री माता सिद्ध थीं और इनकी पूर्ण कृपा महर्षि पर थी । महर्षि द्वारा नयी सृष्टि का निर्माण, त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेजने और क्षत्रिय होकर ब्रह्मर्षि पद प्राप्त करने सम्बन्धी जो असम्भव कार्य उन्होंने किए, उन सबके पीछे गायत्री-जप और संध्योपासना का ही प्रभाव था ।
वेदों का सार-सर्वस्व गायत्री मन्त्र
गायत्री मन्त्र चारों वेदों में पाया जाता है । यजुर्वेद संहिता के तीसरे अध्याय में ३५वां मन्त्र गायत्री मन्त्र है । नारायण-उपनिषद् में भी ३५वां मन्त्र गायत्री मन्त्र है । अथर्ववेद के सूर्योपनिषद् में भी गायत्री मन्त्र है । सामवेद का सावित्री-उपनिषद् है ।
ऋग्वेद के दस मण्डलों में से तृतीय मण्डल में ६२ सूक्त (मन्त्रों के समूह) हैं, इन सभी सूक्तों के द्रष्टा ऋषि विश्वामित्र हैं; इसलिए तृतीय मण्डल ‘वैश्वामित्र मण्डल’ कहलाता है । इस तृतीय मण्डल का विशेष महत्व है, क्योंकि इसी में ब्रह्म-गायत्री का जो मूल है, वह उपलब्ध होता है ।
ऋग्वेद के तृतीय मण्डल के ६२वें सूक्त का दसवां मन्त्र ‘गायत्री मन्त्र’ के नाम से प्रसिद्ध है । यह मन्त्र सभी वेद-मन्त्रों का मूल बीज है । गायत्री मन्त्र की व्याख्या का विस्तार चारों वेदों के रूप में हुआ; इसीलिए गायत्री को ‘वेदमाता’ कहते हैं ।
गायत्री मन्त्र का छन्द गायत्री, ऋषि विश्वामित्र और देवता सविता हैं । मन्त्र इस प्रकार है—
‘तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो न: प्रचोदयात् ।।’
अर्थात्—सच्चिदानन्द परमात्मन् ! आपके प्रेरणादायी विशुद्ध तेज:स्वरूप (सूर्यदेव) का हम अपने हृदय में नित्य ध्यान करते हैं, उससे हमारी बुद्धि निरन्तर प्रेरित होती रहे । आप हमारी बुद्धि को अपमार्ग से रोककर तेजोमय शुभ मार्ग की ओर प्रेरित करें । उस प्रकाशमय पथ का अनुसरण कर हम आपकी ही उपासना करें और आपको ही प्राप्त करें ।
इस मन्त्र में परब्रह्म परमात्मा से सद्बुद्धि प्रदान करने की प्रार्थना की गई है ।
देवी गायत्री कैसी हैं, उनका स्वरूप कैसा है, उनकी आराधना कैसे करनी चाहिए, यह सबसे पहले महर्षि विश्वामित्र ने ही संसार को बताया ।
गायत्री का स्वरूप
‘विश्वामित्रकल्प’, विश्वामित्रसंहिता’ और ‘विश्वामित्रस्मृति’ आदि उनके मुख्य ग्रन्थ हैं, जिनमें उन्होंने मुख्य रूप से गायत्री की साधना का ही उपदेश करके हुए कहा है कि केवल गायत्री मन्त्र के जप कर लेने से सभी मन्त्रों का जप सिद्ध हो जाता है । देवी गायत्री सर्वस्वरूपा हैं और यह चराचर जगत देवी का ही विग्रह है ।
महर्षि विश्वामित्र ने उपासना के लिए देवी गायत्री के ध्यान के लिए उनका यह स्वरूप बताया है—
मुक्ताविद्रुमहेमनीलधवलच्छायैर्मुखैस्त्रीक्षणै-
र्युक्तामिन्दुनिबद्धरत्नमुकुटां तत्त्वार्थवर्णात्मिकाम् ।
गायत्रीं वरदाभयांकुशकशा: शुभ्रं कपालं गुणं
शंखं चक्रमथारविन्दयुगलं हस्तैर्वहन्तीं भजे ।। (देवीभागवत १२।३)
‘जो मोती, मूंगा, सुवर्ण, नीलमणि तथा उज्जवल प्रभा के समान वर्ण वाले पांच मुखों से सुशोभित हैं, तीन नेत्रों से जिनके मुख की अनुपम शोभा है, जिनके रत्नमय मुकुट में चन्द्रमा जड़े हैं, जो चौबीस वर्णों से युक्त हैं तथा जो अपने हाथों में अभय, वर, मुद्राएं, अंकुश, पाश, शुभ्रकपाल, रस्सी, शंख, चक्र और दो कमल धारण करती हैं, हम उनका ध्यान करते हैं ।’
गायत्री साधना वास्तव में तेजस्विता, प्राण-शक्ति और ब्रह्म-बल प्राप्त करने की साधना है ।
महर्षि विश्वामित्र की महिमा के सम्बन्ध में क्या कहा जाए जिन्हें साक्षात् भगवान अपना गुरु मान कर उनकी सेवा करते थे ।