Sheshnaag carrying earth vishnu

गीता (१०।२९) में भगवान श्रीकृष्ण ने नागों में शेषनाग को अपना स्वरूप बताते हुए कहा है—‘मैं नागों में शेषनाग हूँ ।’

भगवान शेषनाग हजार फणों वाले हैं, कमल की नाल की तरह श्वेत रंग के हैं, मणियों से मण्डित हैं, नीले वस्त्र धारण करते हैं । उनका यह संकर्षण विग्रह समस्त जगत का आधार है; क्योंकि सम्पूर्ण पृथ्वी भगवान शेष के एक फण पर राई के दाने के समान स्थित है ।

भगवान शेषनाग पृथ्वी को क्यों धारण करते हैं ?

चाक्षुष मन्वन्तर के प्रारम्भ में प्रजापति दक्ष ने महर्षि कश्यप को अपनी ग्यारह कन्याएं पत्नी रूप में प्रदान कीं । उन कन्याओं में से एक कद्रू थी, जिसने करोड़ों महा सर्पों को जन्म दिया । वे सभी सर्प विष रूपी बल से सम्पन्न, उग्र और पांच सौ फणों से युक्त थे । उन सब में प्रथम व श्रेष्ठ फणिराज ‘शेषनाग’ थे, जो अनन्त एवं परात्पर परमेश्वर हैं ।

एक दिन भगवान श्रीहरि ने शेष से कहा—‘इस भूमण्डल को अपने ऊपर धारण करने की शक्ति दूसरे किसी और में नहीं है; इसलिए इस भूलोक को तुम्हीं अपने मस्तक पर धारण करो । तुम्हारा पराक्रम अनन्त है; इसलिए तुम्हें ‘अनन्त’ कहा गया है । जन-कल्याण के लिए तुम्हें यह कार्य अवश्य करना चाहिए ।’

शेष ने भगवान से कहा—‘पृथ्वी का भार उठाने के लिए आप कोई अवधि निश्चित कर दीजिए । जितने दिन की अवधि होगी, उतने समय तक मैं आपकी आज्ञा से भूमि का भार अपने सिर पर धारण करुंगा ।’

भगवान ने कहा—‘नागराज ! तुम अपने सहस्त्र मुखों से प्रतिदिन मेरे गुणों को बताने वाले अलग-अलग नए-नए नामों का उच्चारण किया करो । जब मेरे दिव्य नाम समाप्त हो जाएं, तब तुम अपने सिर से पृथ्वी का भार उतार कर सुखी हो जाना ।’

(हजार फणों वाले शेषनाग भगवान श्रीहरि के परम भक्त हैं । वे अपने एक हजार मुखों और दो हजार जिह्वाओं (सांप के मुख में दो जीभ होती हैं) से सदा भगवान श्रीहरि का नाम जप करते रहते हैं । भगवान शेष सेवा-भक्ति के आदर्श उदाहरण हैं । वे भगवान का पलंग, छत्र, पंखा बन कर श्रीहरि की सेवा करते हैं ।)

नागराज शेष ने कहा—‘पृथ्वी का आधार तो मैं हो जाऊंगा, किंतु मेरा आधार कौन होगा ? बिना किसी आधार के मैं जल के ऊपर कैसे स्थित रहूंगा ?’

भगवान ने कहा—‘तुम इसकी चिंता मत करो । मैं ‘कच्छप’ बन कर महान भार से युक्त तुम्हारे विशाल शरीर को धारण करुंगा ।’

तब नागराज शेष भगवान श्रीहरि को नमस्कार कर पाताल से लाख योजन नीचे चले गए । वहां अपने हाथ से अत्यंत गुरुतर (भारी) भूमण्डल को पकड़ कर प्रचण्ड पराक्रमी शेष ने अपने एक ही फन पर पृथ्वी को धारण कर लिया । 

भगवान अनन्त, (संकर्षण, शेष) के पाताल चले जाने पर ब्रह्माजी की प्रेरणा से अन्य नाग भी उनके पीछे-पीछे चले गए । कोई अतल में, कोई वितल में, कोई सुतल में और महातल में तथा कितने ही तलातल और रसातल में जाकर रहने लगे । 

ब्रह्माजी ने उन सर्पों के लिए पृथ्वी पर ‘रमणक द्वीप’ प्रदान किया । 

महाभारत के आदिपर्व की कथा

महाभारत के आदिपर्व में यह कथा कुछ इस तरह है—

अपने भाइयों का सौतेले भाइयों के झगड़े से परेशान होकर शेषनाग ने उनका साथ छोड़ दिया और विरक्त होकर कठिन तपस्या शुरु कर दी । वे गंधमादन, बदरिकाश्रम, गोकर्ण और हिमालय की तराई आदि स्थानों पर एकान्तवास में रहते और केवल वायु पीते थे । इससे उनके शरीर का मांस, त्वचा और नाड़ियां बिल्कुल सूख गईं । 

उनके धैर्य और तप को देख कर पितामह ब्रह्मा उनके पास आए और पूछा—‘शेष ! तुम्हारे इस घोर तपस्या करने का क्या उद्देश्य है ? तुम प्रजा के हित का कोई काम क्यों नहीं करते हो ?’

शेष जी ने कहा—‘मेरे भाई सौतेली मां विनता और उसके पुत्रों गरुड़ और अरुण से द्वेष करते हैं; इसलिए मैं उनसे ऊब कर तपस्या कर रहा हूँ । अब मैं तपस्या करके यह शरीर छोड़ दूंगा परंतु मुझे चिंता इस बात की है कि मरने के बाद भी मेरा उन दुष्टों का संग न हो ।’

ब्रह्माजी ने कहा—‘मैं तुम्हारे मन और इन्द्रियों के संयम से बहुत प्रसन्न हूँ । चिंता छोड़ कर प्रजा के हित के लिए एक काम करो । यह सारी पृथ्वी, पर्वत, वन, सागर, ग्राम आदि हिलते-डोलते रहते हैं । तुम इसे इस प्रकार धारण करो कि यह अचल हो जाए ।’

शेष जी ने कहा—‘मैं आपकी आज्ञा का पालन कर इस पृथ्वी को इस प्रकार धारण करुंगा, जिससे वह हिले-डुले नहीं । आप इसे मेरे सिर पर रख दीजिए ।’

ब्रह्माजी ने कहा—‘शेष ! पृथ्वी तुम्हें मार्ग देगी, तुम उसके भीतर घुस जाओ । ‘

ब्रह्माजी की आज्ञा का पालन करते हुए शेष जी भू-विवर में प्रवेश करके नीचे चले गए और समुद्र से घिरी पृथ्वी को चारों ओर से पकड़ कर सिर पर उठा लिया । वे तभी से स्थिर भाव में होकर पृथ्वी को धारण किए हुए हैं ।

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