shri krishna thakur ji

‘अहो मधुपुरी धन्या वैकुण्ठाच्च गरीयसी।
विना कृष्ण प्रसादेन क्षणमेकं न तिष्ठति।।’

ऋग्वेद की एक ऋचा में व्रज के सम्बन्ध में इन्द्र कहते हैं–‘हे भगवन् श्रीबलराम और श्रीकृष्ण! आपके वे अति रमणीक स्थान हैं। उनमें हम जाने की इच्छा करते हैं; परन्तु जा नहीं सकते क्योंकि यह मधुपुरी (मथुरा) धन्य और वैकुण्ठ से भी श्रेष्ठ है; वैकुण्ठ में तो मनुष्य अपने पुरुषार्थ से पहुंच सकता है, पर यहां श्रीकृष्ण की आज्ञा के बिना कोई एक क्षण भी ठहर नहीं सकता।’

व्रजभूमि सृष्टि और प्रलय की व्यवस्था से बाहर

सचमुच यह ‘व्रजभूमि’ धन्य है। कृष्णावतार के समय जैसे देवी-देवताओं, ऋषि-मुनियों व श्रुतियों आदि ने यहां आकर गोपियों का जन्म ग्रहण किया था वैसे ही इस भूमि को भी भगवान श्रीकृष्ण गोलोक से अपने साथ लाए थे। पुराणों के अनुसार यह भूमि सृष्टि और प्रलय की व्यवस्था से बाहर है।

‘व्रजभूमि’ रंगीले, छबीले, बांकेबिहारी, पीतपटधारी, कुंजविहारी, मुरलीधारी श्रीकृष्ण की क्रीडास्थली है और वे ही व्रजवासियों के ठाकुर, आराध्य व व्रजाधिपति हैं। इस व्रजभूमि में ऐसा कौन-सा आकर्षण है जो यहां कि रज को मस्तक पर धारण करने के लिए अब तक लोग तरसते हैं? इसका कारण यह है कि परब्रह्म यहां कण-कण में ‘ब्रजन’ करता है अर्थात् व्याप्त रहता है; इसीलिए यह ‘व्रज’ कहलाता है। यहां का चप्पा-चप्पा श्रीराधाकृष्ण के चरणचिह्नों से मण्डित है। यहां का कण-कण चिन्मय है। पशु-पक्षी लता-वृक्ष, स्थावरजंगम–सभी श्रीकृष्ण की प्रेममयी लीला के चिन्मय रसिक हैं क्योंकि सृष्टि का पूर्णतम माधुर्य यहां क्रीडारत रहता है। इसी माधुर्य को प्राप्त करने के लिए बड़े-बड़े लक्ष्मीपति अपने सभी सुख-सौभाग्य को ठुकराकर व्रज में बसते हैं और व्रजवासियों से मधुकरी मांगकर अपना उदर पोषण करते हैं।

जिस क्षण भगवान श्रीकृष्ण ने प्रेमभूमि व्रज में पदार्पण किया, उसी क्षण सारे व्रज का हृदयकमल विकसित हो गया। व्रजमण्डल के गोकुल गांव ने, गौओं ने, बछड़ों ने, गोप-गोपियों ने–सबने बड़े ही चाव से सुन्दर वस्त्रालंकारों से सुसज्जित होकर भगवान का स्वागत किया और यह कहकर उनसे वरदान चाहा कि–’भगवन्! तुम अनन्तकाल तक हमारे हृदयमन्दिर में निवास करो।’ उसी दिन से व्रज में सुख-समृद्धि छा गयी। प्रेम के अवतार व्रज के ठाकुर श्रीकृष्ण के चरण-स्पर्शमात्र से पृथिवीमाता का हृदय आनन्द से खिल उठा और सभी लोगों के हृदय श्रीकृष्णप्रेम के आकर्षण से मिलकर एक हो गए। श्रीचैतन्य महाप्रभु ने व्रज के सम्बन्ध में कहा है–’चिन्तामणि भूमि कल्पवृक्षमय वन।’

श्रीकृष्णावतार में माधुर्य, सौन्दर्य और प्रेम का समावेश

सच्चिदानन्द भगवान श्रीकृष्ण में माधुर्य, सौन्दर्य और प्रेम का सुन्दर समावेश हुआ है। उनका धाम व्रजभूमि जो गोलोक के समान है, उसकी मीठी व्रजभाषा, उनकी नित्य किशोर वयस, वस्त्रों में सर्वश्रेष्ठ पीताम्बर, सबसे निराला मोरमुकुट, घुटनों तक शोभायमान वनमाला, पशुओं में सबसे उत्तम पशु गौ, वाद्यों में मधुर वाद्य मुरली, भोज्य-पदार्थों में मधुरतम माखन, वृक्षों में सुन्दर कदम्ब का वृक्ष, सरिताओं में मनोहर यमुनानदी–ये सभी उनके अवतार के सुन्दर योग थे। वंशीवट की अपूर्व छटा, गह्वर वन के सघन कुंज, कदम्ब व तमाल के मनोरम वन, करील की कुंजों में भोंरों की गुंजार, मयूरों का कुंलाचें भरना, यमुना के कूल-कछारों में प्रकृति की अनूठी कारीगरी और उनमें व्रजसुन्दरियों की खनकती चूड़ियों व नूपुरों की झंकार और कान्हा की वंशी की मादकता–कैसा अद्भुत संगम और मन को बरबस अपनी ओर खींचने वाला जादू–यही है जीवन का सच्चा आनन्द।

व्रज के प्रेम की अनन्यता

सभी व्रजवासियों के प्रेम के केन्द्र श्रीकृष्ण थे और भगवान श्रीकृष्ण का भी जीवन, कार्य और लीलाएं अपने प्यारे व्रजवासियों को सुखी और कृतार्थ करने के लिए थीं। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है–

ब्रजवासी बल्लभ सदा मेरे जीवन प्रान।
इन्हें न कबहूँ बिसारिहौं मोहि नंदबाबा की आन।।

श्रीकृष्ण ने सारी वस्तुओं का अपनी इच्छानुसार उपयोग व वितरण करके मनुष्य और पशु ही नहीं; सारी प्रकृति को प्रेम, एकता और सेवा के सूत्र में बांध दिया था। उनका नटखट स्वभाव किसी को भी नहीं अखरता था। ऊपर से देखने में तो गोपियां श्रीकृष्ण के आनन्ददायक ऊधमों की शिकायत लेकर माता यशोदा के पास आतीं थीं किन्तु उनका वास्तविक उद्देश्य नंदभवन में आकर श्रीकृष्ण के सुन्दर मुखारविन्द का दर्शन करना ही था।

आनन्दरूप व्रज के ठाकुर श्रीकृष्ण और प्रेममूर्ति ठकुरानी श्रीराधा

जहां आनन्द है, वहीं प्रेम है। आनन्द बिना प्रेम नहीं होता और प्रेम बिना आनन्द नहीं रहता। अत: जहां श्रीकृष्ण हैं, वहीं श्रीराधा हैं और जहां श्रीराधा हैं, वहीं श्रीकृष्ण हैं। कृष्ण बिना राधा और राधा बिना कृष्ण रह ही नहीं सकते। इसीलिए कवि रसखानि कहते हैं–जिसकी खोज में सारा ब्रह्माण्ड पागल हो रहा है, वही लाड़िला नन्दलाल इस व्रज की सघन वन की कुंजों में श्रीराधा के पैरों-तले इसी अलौकिक रस की भीख मांगता फिरता है–

ढूँढ़त-ढूँढ़त ढूँढ़ि फिरयौ,
‘रसखानि’ बतायौ न लोग-लुगायन।
देख्यौ, दुर्यौ वह कुंज-कुटीरनि,
बैठ्यौ पलोटत राधिका-पायन।।

शेष, महेश, गणेश, सुरेश भी जिस परब्रह्म की अपार महिमा का पार पाने के लिए दिन-रात तपस्या करते हैं, वही सलौना श्यामसुन्दर अहीर की छोकरियों के प्रेमरूपी छाछ को प्राप्त करने के लिए उनके इशारों पर घंटो नाचता फिरता है–

नारद लै, सुक-ब्यास रटैं, पचि हारे, तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहिं अहीर की छोहरियां छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं।। (रसखानि)

जिसके घर में नौ लाख गाएं हों वह नन्दलाल एक-एक माखन के लोंदे के लिए व्रजबालाओं से अपने मुख पर गोबर के टप्पे लगवाता है, उनकी मनुहार करता है और उनके मीठे ताने भी सुनता है। साधारण ग्वालबालों की खरी-खोटी भी सुनता है फिर भी उन्हें अपना सखा होने का पूरा-पूरा अहसास भी कराता है।

उस परब्रह्म को माता यशोदा की वात्सल्यमयी गोद में बैठकर मनमोहन बनते तनिक भी देर नहीं लगती। सम्पूर्ण सृष्टि को अपने संकेतमात्र पर नचाने वाला यह त्रिभुवनपति यहां यशोदामाता की सांटी के सामने भयभीत हुआ कांपने लगता है। इसी मधुरता को दिखलाती हुई एक गोपी ब्रह्मोपासकों से कहती है–‘वेदों में ब्रह्म को खोजते-खोजते उन्हें न पाकर दु:खी हुए ब्रह्मप्रेमियो! सुनो, हम बताती हैं तुम्हारे ब्रह्म को; यदि तुम वास्तव में ब्रह्म का साक्षात् दर्शन करना चाहते हो तो यशोदा के घर जाकर देखो, जहां वह उपनिषद् का तत्त्व ब्रह्म ऊखल में बंधा बैठा है।’

धनि गोपी औ, ग्वाल धनि, धनि जसुदा धनि नंद।
जिनके आगे फिरत है, धायो परमानंद।।

ऐसी मिठास का कोई पार नहीं है। इस माधुर्यरस का सुख व्रजवासियों के अलावा अन्य किसी देवता को नसीब नहीं है इसीलिए ब्रह्मा और उद्धव इन्हीं व्रजवनिताओं की चरणधूलि को अपने मस्तक पर धारण करना चाहते हैं। सारा संसार जिसे अविनाशी कहता है वह इस व्रज के घर-घर का खिलौना है। यह व्रज तो तीनों लोक से न्यारा है जिसके हाथ में श्रीकृष्णरूपी सुख की राशि लग गयी है–

जो सुख लेत सदा ब्रजवासी।
सो सुख सपने हू नहिं पावत, जे जन हैं बैकुंठ-निवासी।।
ह्याँ घर घर ह्वै रह्यौ खिलौना, जक्त कहत जाको अविनासी।
नागरिदास विस्व तें न्यारी, लगि गई हाथ लूट सुखरासी।।

व्रज के कण-कण में रचे-बसे श्रीराधामाधव युगल के मदमस्त प्रेम का आनन्द लूटने के लिए रसिकभक्त रात-दिन व्रज की रजतरज में लोटते रहते हैं, शायद कभी उनके ठाकुर की पदरज का कोई कण उन्हें मिल जाये और उनका जीवन सफल हो जाए इसीलिए वे डंके की चोट कहते हैं–

और कोऊ समझौ, सौ समझौ, हमकूँ इतनी समझ भली है।
ठाकुर नन्द किशोर हमारे ठकुराइन बृषभानु लली है।।

व्रज में परब्रह्म श्रीकृष्ण के अटपटे नाम

बृज-सम और कोउ नहिं धाम।
या ब्रज में परमेसरहू के सुधरे सुंदर नाम।।
कृष्न नाम यह सुन्यो गर्ग तें, कान्ह कान्ह कहि बोलैं।
बालकेलि-रस मगन भये सब, आनंद-सिंधु कलोलैं।।
जसुदानंदन, दामोदर, नवनीतप्रिय, दधिचोर।
चीरचोर, चितचोर, चिकनियाँ चातुर नवलकिशोर।।
राधा-चंद-चकोर, सांवरो, गोकुलचंद, दधिदानी।
श्रीवृंदावनचंद, चतुर चित, प्रेम-रूप-अभिमानी।।
राधारमन, सुराधावल्लभ, राधाकांत, रसाल।
वल्लभसुत, गोपीजन-बल्लभ, गिरिधर-धर, छबिलाल।।
रासबिहारी, रसिकबिहारी, कुंजबिहारी स्याम।
बिपिनबिहारी, बंकबिहारी, अटलबिहारीऽभिराम।।
छैलबिहारी, लालबिहारी, बनवारी, रसकंद।
गोपीनाथ, मदनमोहन, पुनि बंसीधर, गोविन्द।।
ब्रजलोचन, ब्रजरमन, मनोहर, ब्रजउत्सव, ब्रजनाथ।
ब्रजजीवन, ब्रजबल्लभ सबके, ब्रजकिशोर, सुभगाथ।।
ब्रजमोहन, ब्रजभूषण, सोहन, ब्रजनायक, ब्रजचंद।
ब्रजनागर, ब्रजछैल, छबीले, ब्रजवर, श्रीनँदनंद।।
ब्रज-आनंद, ब्रजदूलह नितहिं, अति सुंदर ब्रजलाल।
ब्रज गउवन के पाछे आछे, सोहत ब्रजगोपाल।।
ब्रज-सम्बन्धी नाम लेत ये, ब्रज की लीला गावै।
‘नागरिदासहिं’ मुरलीबारो, ब्रज को ठाकुर भावैं।। (नागरीदासजी)

इस व्रज में माधुर्य का ही आधिपत्य है, उसी का बोलबाला है। ईश्वर के अटपटे नाम भी इसकी चाशनी में पगे बिना न रह सके। ऐसे अटपटे नाम लेने का अधिकार भी केवल व्रजवासियों को है। गर्गाचार्यजी ने  इन पूर्ण पुरुषोत्तम परब्रह्म का नाम ‘कृष्ण’ रखा पर व्रजवासियों ने इनके अनन्त अटपटे नाम रख दिए। नन्द-यशोदाजी के पुत्र होने से वे यशोदानन्दन, नन्दलाल, नन्दनन्दन कहलाते हैं। यशोदाजी इन्हें नीलमणि, कान्हा, कनुआ कहती हैं तो सखा कन्हैया कहकर पुकारते हैं। माता द्वारा रस्सी से कमर में बांधे जाने से दामोदर कहलाते हैं।

व्रज की गौओं के सेवक होने के कारण व्रजगोपाल, गोविन्द और गोपाल कहलाते हैं। गोपियों व भक्तों के मन व चित्त को चुराने के कारण चितचोर हैं, दधि और माखन की चोरी के कारण माखनचोर, दधिचोर व माखनप्रेमी होने से नवनीतप्रिय कहे गए। गोपियों के कात्यायनी व्रत में त्रुटि को दूर करने के कारण उनके वस्त्रों का अपहरण किया तो चीरचोर कहलाए। गोपियों के जीवनप्राण होने से गोपीनाथ कहलाते हैं।

श्रीराधा के पति होने से राधारमन, श्रीराधावल्लभराधाकांत कहे जाते हैं। राधारूपी चन्द्र के चकोर होने से राधाचन्द्रचकोर हैं। श्रीवृन्दावन व गोकुल के अधिपति होने से श्रीवृन्दावनचन्द्र और गोकुलचन्द्र हैं। रासलीला के अधिपति होने से रासबिहारी, रसिकबिहारी, कुंजबिहारी हैं। त्रिभंगी मुद्रा में खड़े होने से बांकेबिहारी; अत्यधिक सुन्दर होने से मनोहर, नवकिशोर होने से छैलबिहारी, चिकनियां, नवलकिशोर; वन में विचरण करने से वनवारी कहलाते हैं। बांसुरी को हर समय अपने अधरों पर रखने के कारण भक्तों ने उन्हें मुरलीमनोहर, वंशीधर कहा।

व्रजवासियों के सर्वस्व होने से श्रीकृष्ण ब्रजलोचन, ब्रजरमन, ब्रजउत्सव, ब्रजनाथ, ब्रजजीवन, ब्रजबल्लभ, ब्रजकिशोर, ब्रजमोहन, ब्रजभूषण, ब्रजनायक, ब्रजचंद, ब्रजनागर, ब्रजछैल-छबीले, ब्रजवर, ब्रजआनंद और ब्रजलाल भी कहे जाते हैं।

माधुर्य रस के लबालब सागर होने पर भी श्रीकृष्ण व्रजवासियों की रक्षा के लिए विपत्तियों के झेलने में भी नहीं हिचकिचाए। गोपियां कहती हैं–’विष-दूषित जल से, अनेक दानवों से, काल-की सी प्रलय वर्षा से, दावाग्नि से तथा अनगिनत आपत्तियों से आपने हमारी रक्षा की है।’

भक्तों के प्रतिपाल श्रीकृष्ण ही जगत के एकमात्र आश्रयस्थान हैं, वही जीव की परमगति हैं और वही सबके सच्चे सुहृद् हैं। अत: यही कामना है–

व्रजधूरि ही प्राण सौं प्यारी लगे,
ब्रजमण्डल मांहि बसाये रहो।
रसिकों के सुसंग में मस्त रहूं,
जग जाल सो नाथ बचाये रहो।
नित बांकी ये झांकी निहारा करुं,
छवि छांक सो नाथ छकाये रहो।
अहो बांकेबिहारी यही विनती,
मेरे नैनों से नैना मिलाये रहो।।

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