जहां देखो वहां मौजूद,
मेरा कृष्ण प्यारा है,
उसी का सब है जल्वा,
जो जहां में आशकारा है।। (लालामूसा)
सम्पूर्ण जगत भगवान में ही ओतप्रोत
गीता (१०।३९) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं–
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।।
अर्थ—हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणियों का जो बीज है, वह मैं ही हूँ। मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है।
यह सम्पूर्ण संसार साक्षात् परमात्मा का ही स्वरूप है। आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, ग्रह-नक्षत्र, दिशाएं, वृक्ष, नदियां, समुद्र, जमीन, खम्भा, मकान जो भी चीज देखने, सुनने या चिन्तन में आती है—ये सब भगवान ही हैं। चर-अचर, जलचर, नभचर, थलचर, भूत-प्रेत, पिशाच, दानव, राक्षस, देवता, गंधर्व, चौरासी लाख योनियां, चौदह भुवन–इन सबका बीज एक भगवान ही हैं। इसमें भला-बुरा, अच्छा-गंदा, गुण-दोष आदि दो चीजें नहीं हैं। संसार के आदि में भी भगवान थे और अन्त में भी भगवान रहेंगे।
श्रीमद्भागवत (२।९।३२) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं–‘सृष्टि के पूर्व भी मैं ही था, मुझसे भिन्न कुछ भी नहीं था और सृष्टि के उत्पन्न होने के बाद जो कुछ भी यह दिखायी दे रहा है, वह मैं ही हूँ। जो सत्, असत् और उससे परे है, वह सब मैं ही हूँ तथा सृष्टि के बाद भी मैं ही हूँ एवं इन सबका नाश हो जाने पर जो कुछ बाकी रहता है, वह भी मैं ही हूँ।’
माता यशोदा ने श्रीकृष्ण के मुख में किए सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के दर्शन
गीता (११।७) में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं–’अब इस मेरे शरीर में एक जगह स्थित चराचर सहित सम्पूर्ण जगत को देख तथा और जो कुछ देखना चाहता हो सो देख।’
भगवान के यह वचन श्रीमद्भागवत के एक प्रसंग से सिद्ध होते हैं—भगवान के एक-एक रोम में करोड़ों ब्रह्माण्ड हैं; उन ब्रह्माण्डों के रूप में भगवान ही प्रकट हुए हैं। एक बार कन्हैया ने मिट्टी खा ली। माता यशोदा ने छड़ी दिखाकर कन्हैया को डराते हुए मुंह खोलकर दिखाने के लिए कहा। कन्हैया ने जब अपना मुंह खोला तो उनके छोटे से मुख में माता को अनन्त लोक दिखाई दिए। यहां तक कि पृथ्वी, भारतवर्ष, व्रज और व्रज में भी नंदगाव दिखाई दिया। नन्दगांव में भी माता यशोदा ने नन्दबाबा का घर देखा। उसमें भी अपनी गोद में कन्हैया को बैठे देखा। इस प्रकार माता ने भगवान के मुख में अनन्त सृष्टि को देखा। इससे स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण के सिवाय कोई दूसरी चीज है ही नही–‘वासुदेव: सर्वम्।’
कृष्ण! तव सत्ता ही सब ठौर,
दीखता मुझे नहीं कुछ और।
जहां तक जाती मेरी दृष्टि,
तुझी में व्याप्त मिली सब सृष्टि।। (नन्दकिशोर झा, काव्यतीर्थ)
गीता (७।७) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं–हे अर्जुन! जैसे सूत की मणियां सूत के धागे में पिरोयी होती हैं, ऐसे ही सम्पूर्ण जगत् मेरे में ही ओतप्रोत है। अर्थात्–सूत भी भगवान हैं, मणियां भी भगवान हैं, माला भी भगवान है और माला फेरने वाले भी भगवान ही हैं।
संसार में भगवान के हैं विभिन्न रूप
एक ही भगवान कई रूपों में हमारे सामने आते हैं। भूख लगने पर अन्नरूप में, प्यास लगने पर जलरूप में, रोग में औषधिरूप से, गर्मी में छायारूप में तो सर्दी में वस्त्ररूप में परमात्मा ही हमें प्राप्त होते हैं। परमात्मा ने जहां श्रीराम, कृष्ण आदि सुन्दर रूप धारण किए तो वहीं वराह (सूअर), कच्छप, मीन आदि रूप धारण कर भी लीला की। भगवान कभी पुष्प या सुन्दरता के रूप में आते हैं तो कहीं मांस-हड्डियां पड़ी हो, दुर्गन्ध आ रही हो, वह भी भगवान का ही रूप है। मृत्यु के रूप में भी भगवान ही आते है।
गीता (९।१९) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं–‘मैं ही सूर्यरूप में तपता हूँ, वर्षा का आकर्षण कर उसे बरसाता हूँ। मैं ही अमृत और मृत्यु हूँ और सत् और असत् भी मैं ही हूँ।’
अत: जो हमारे मन को सुहाए वह भी भगवान का रूप है और जो नहीं सुहाये, वह भी भगवान का रूप है। जो मन को नहीं सुहाता उसमें भगवान को देखना अत्यन्त कठिन है परन्तु उसके प्रति भी भगवद्भाव आ जाए तो यह भक्त बनने की निशानी है और गीता में कहा गया है कि ऐसे महात्मा दुर्लभ होते हैं।
जैसे जमीन में जल सब जगह रहता है, पर उसकी प्राप्ति कुएं से ही होती है; वैसे ही भगवान सब जगह हैं किन्तु उनकी प्राप्तिस्थान हृदय है (गीता १३।१७)।
घर में लगी आग में नामदेवजी ने किए भगवान के दर्शन
भगवान कोई भी रूप धारण कर लीला करें, सच्चे भक्त भगवान को हरेक रूप में पहिचान लेते हैं क्योंकि उनकी दृष्टि भगवान को छोड़कर कहीं जाती नहीं।
नामदेवजी के घर में आग लग गयी। लोगों ने जब आग लगने का समाचार नामदेवजी को दिया तो वे बहुत प्रसन्न हुए कि मेरे घर में मेरे भगवान के सिवा और कौन बिना पूछे आ सकता है? भगवान ही अग्नि रूप में घर में आए हैं और घर की चीजों का भोग लगा रहे हैं। घर के बाहर जो सामान रखा था, नामदेवजी उसे भी उठाकर घर के भीतर अग्नि में डालने लगे कि भगवन् इनका भी भोग लगाओ। आग से नामदेवजी का घर जल गया किन्तु भगवान ने रातोंरात उनका छप्पर छा दिया क्योंकि मनुष्य भगवान को जो अर्पित करता है, वही उसे प्रसाद रूप में मिलता है।
गीता (६।३०) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।
अर्थात्–जो सबमें मुझको देखता है और मुझमें सबको देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता।’
मीराबाई के पास सिंह भेजा गया किन्तु उसे भी उन्होंने अपने आराध्य का नरसिंह रूप मानकर पूजा-स्तुति की और सिंह भी उन्हें बिना हानि पहुंचाए वापिस चला गया। मीरा ने विष को अपने गिरधर का चरणामृत समझकर पान कर लिया। भगवान कण-कण में बसे हैं। प्रह्लादजी के कहने पर भगवान नृसिंहरूप में खम्भे से प्रकट हो गए।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी यही बात कही है—
सीय राममय सब जग जानी।
करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी।। (मानस, बाल. ८।१)
‘सब कुछ भगवान ही हैं’—यह बात मनुष्य राग-द्वेष व मोह के कारण समझ नहीं पाता। जो मनुष्य समस्त प्राणियों में भगवद्बुद्धि करके सबकी सेवा करते हैं वे संसार-सागर में सहज ही तर जाते है |
सब जग ईश्वर-रूप है, भलो बुरो नहिं कोय।
जैसी जाकी भावना, तैसो ही फल होय।।