भगवान श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से निकली हुई अमृतवाणी ‘गीता’ का प्रमुख सिद्धान्त है—‘कर्मयोग’ । कर्मयोग दो शब्दों से मिल कर बना है—कर्म + योग । कर्म अर्थात् करना और योग का अर्थ है समतापूर्वक; अर्थात् निष्कामभाव से शास्त्रों द्वारा बताए गए कर्मों का आचरण करना ही ‘कर्मयोग’ कहलाता है ।
प्रश्न यह है कि क्या अर्जुन से पहले भगवान ने किसी और को कर्मयोग का उपदेश किया था और क्यों किया था ?
इसका उत्तर देते हुए गीता (४/१-३) (३/१-३) में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं—‘मैंने इस अविनाशी कर्मयोग के बारे में सृष्टि के आरम्भ में विवस्वान सूर्य को बताया था । सूर्य ने इसे अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्वाक्षु को इसका उपदेश किया । सूर्य के दूसरे पुत्र यमराज से नचिकेता ने कर्मयोग की शिक्षा प्राप्त की थी । इस तरह यह कर्मयोग परम्परा से कई पीढ़ियों तक चलता रहा ।
राजा जनक और संत-महात्मा व ऋषि-मुनियों ने इस कर्मयोग का आचरण कर सिद्धि प्राप्त की । बहुत समय बीतने पर जब यह कर्मयोग लुप्त सा हो गया, तब मैंने नर-ऋषि के अवतार और अपने प्रिय भक्त-सखा अर्जुन को इसका पुन: उपदेश किया है ।’
अर्जुन ने आश्चर्यचकित होकर भगवान से पूछा—‘सूर्य का जन्म तो आपके जन्म से बहुत पहले हुआ था; इसलिए यह कैसे माना जाए कि आपने यह विद्या सूर्य को दी थी ?’
इसका उत्तर देते हुए भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं–‘हे अर्जुन ! मेरे अनेक जन्म हुए हैं और तेरे भी अनेक जन्म हुए हैं । तुझमें और मुझमें यही अंतर है कि तू जीव है, नर है और मैं नारायण हूँ; इसलिए मैं अपने सम्पूर्ण जन्मों को जानता हूँ, तू अपने जन्मों को नहीं जानता ।’
‘हे भारत ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ । साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप-कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ ।’
श्रीमद्भागवत (२।९।३२) में भी भगवान श्रीकृष्ण यही बात कहते हैं–‘सृष्टि के पूर्व भी मैं ही था, मुझसे भिन्न कुछ भी नहीं था और सृष्टि के उत्पन्न होने के बाद जो कुछ भी यह दिखायी दे रहा है, वह मैं ही हूँ । जो सत्, असत् और उससे परे है, वह सब मैं ही हूँ तथा सृष्टि के बाद भी मैं ही हूँ एवं इन सबका नाश हो जाने पर जो कुछ बाकी रहता है, वह भी मैं ही हूँ ।’
भगवान ने सर्वप्रथम कर्मयोग का उपदेश सूर्यदेव को क्यों किया ?
इसके पीछे कई कारण हैं—
▪️ सृष्टि में जो सबसे पहले उत्पन्न होता है, उसे ही सबसे पहले कर्तव्य का उपदेश किया जाता है अर्थात् कर्तव्य का ज्ञान कराया जाता है । सृष्टिकाल में सर्वप्रथम सूर्य की उत्पत्ति हुई और फिर सूर्य से समस्त लोक उत्पन्न हुए; इसीलिए सूर्य को ‘सविता’ कहा जाता है, जिसका अर्थ है ‘उत्पन्न करने वाला’ । भगवान ने सृष्टि के आदि मे सबसे पहले सूर्य देव को कर्मयोग का उपदेश किया । तब से सूर्य देव निरंतर कर्मयोग का अक्षरश: पालन कर रहे हैं ।
▪️ निषिद्ध कर्मों और फल और आसक्ति का त्याग करके अपने कर्तव्य-कर्मों को करना ही कर्मयोग है । सूर्य देव ‘निष्काम-कर्मयोग के आचार्य’ माने जाते हैं । वे कर्मशीलता व कर्मठता के अद्वितीय उदाहरण हैं । भगवान ने सूर्य को कर्मयोग का उपदेश इसलिए किया कि जैसे सूर्य के प्रकाश में प्राणियों के अधिकांश कर्म होते हैं; किंतु सूर्य का उन कर्मों से कोई सम्बन्ध नहीं होता । कर्मों में सूर्य का भोक्तापन और कर्तापन नहीं हैं । साथ ही सूर्य किसी भी अवस्था में अपने नियत कर्म का त्याग नहीं करते, नियत समय पर उदय होना और नियत समय पर अस्त होना, यही सूर्य के कर्मयोग की विलक्षणता है । वे कर्मयोगी की तरह निष्काम-भाव से नित्य-निरंतर भ्रमण करते हुए अपने प्रकाश व चैतन्य से विश्व का कल्याण करते हैं; इसीलिए कर्मयोग का वास्तविक अधिकारी सूर्य को जान कर ही भगवान ने सबसे पहले उन्हें कर्मयोग का उपदेश दिया था ।
देवराज इंद्र भी सूर्य के कर्मकौशल की प्रशंसा करते हुए कहते हैं—‘सूर्य श्रेष्ठ इसलिए हैं कि वे लोक-मंगल के लिए निरंतर गतिशील रहते हुए जरा भी आलस्य नहीं करते हैं; अत: सूर्य देव की भांति हमें भी कर्तव्य-पथ पर सदैव चलते रहना चाहिए ।’
▪️ सूर्य समस्त जगत के नेत्र हैं । उनके उदय होते ही समस्त प्राणी जाग्रत होकर अपने-अपने कामों में लग जाते हैं । सूर्य से ही मनुष्यों में कर्तव्यपरायणता आती है । अत: सूर्य को जो उपदेश प्राप्त होगा, वह समस्त प्राणियों को भी अपने-आप प्राप्त हो जाएगा ।
▪️ जैसा राजा व श्रेष्ठ जन आचरण करते हैं, वैसा ही आचरण प्रजा करने लगती है । राजाओं में पहला स्थान सूर्य का है । सूर्य से प्राप्त ज्ञान से भविष्य में होने वाले राजाओं ने भी कर्मयोग का सुचारु रूप से पालन किया । वे बिना किसी आसक्ति के राजकार्य किया करते थे । राजा जनक इसका श्रेष्ठ उदाहरण हैं । इसी कारण भगवान ने सबसे पहले कर्मयोग का उपदेश सूर्य को ही दिया ।
सूर्य देव ने भगवान से कर्मयोग की शिक्षा को इस तरह आत्मसात कर लिया कि तब से वे नित्य, निरंतर, नियमित रूप से गतिशील रह कर समस्त संसार को कर्म करने का पथ-प्रदर्शन करते चले आ रहे हैं । यही कारण है कि जो लोग सूर्योपासना करते हैं, उन्हें निष्काम कर्मयोग करने की नित्य नई शक्ति, शारीरिक स्फूर्ति तथा राष्ट्र व समाज की सेवा करने की प्रेरणा प्राप्त होती रहती है ।