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वैष्णव का विशेष लक्षण है भगवान की पूजा (अर्चन भक्ति)

वेदों में नित्य प्रात:काल और सायंकाल भगवान की पूजा करने का विधान बताया गया है । भगवान की पूजा-अर्चना (अर्चन भक्ति) नवधा भक्ति का एक अंग है और गृहस्थों के लिए तो यह अर्चन भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है ।

गीता (12।2) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥

अर्थात्—हे अर्जुन ! जो मनुष्य मुझमें अपने मन को स्थिर करके निरंतर मेरे सगुण-साकार रूप की पूजा में लगे रहते हैं, और अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे दिव्यस्वरूप की आराधना करते हैं वह मेरे द्वारा योगियों में अधिक पूर्ण सिद्ध योगी माने जाते हैं ।

गीता (18।64-65) में भी यही बात कही गयी है—

‘हे अर्जुन ! सम्पूर्ण गोपनीय से भी अति गोपनीय मेरे परम रहस्ययुक्त वचन को तू फिर सुन ।………तू मुझमें मन वाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको प्रणाम कर । ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है ।’

हम भक्तनि के भक्त हमारे ।
सुनि अर्जुन ! परतिग्या मेरी, यह व्रत टरत न टारे ।।

अर्चन भक्ति की अवर्णनीय शक्ति और चमत्कार

अर्चन भक्ति ‘भक्त का जीवन’ और ‘उनका स्वभाव’ है । अर्चन भक्ति में भक्त अपने आराध्य को नित्य नए-नए श्रृंगार, वस्त्र और भोजन-सामग्री अर्पित कर लाड़ लड़ाता है । यह भक्ति जिसके (भगवान) प्रति होती है उसे भी नित्य रस मिलता है और जिसको (भक्त) होती है उसको भी रस मिलता है । भक्ति वह प्यास है जो कभी बुझती नहीं और न कभी उसका नाश होता है बल्कि यह निरन्तर बढ़ती जाती है । इस भक्ति में वह शक्ति है कि यह भगवान को भक्त के अधीन बना देती है ।

महाकवि धनंजय की अनन्य भक्ति

महाकवि धनंजय नित्य की तरह भगवान की पूजा में मग्न थे । तभी एक व्यक्ति ने मन्दिर में आकर उनसे कहा—‘आपके पुत्र को सर्प ने डस लिया है, आप चलिए ।’

संदेशवाहक के वचन सुनकर भी धनंजय उसी तरह पूजा करते हुए बोले—

सुनता है, सुनकर कहता है—मैं ही क्या कर लूंगा ।
पूजन छोड़ भगूं, आखिर जीवन तो डाल न दूंगा ।।

धनंजय का यह उत्तर सुनकर संदेशवाहक वहां से चुपचाप चला गया और धनंजय की पत्नी के पास जाकर बोला कि धनंजय तो पूजा में मस्त हैं, आप ही चलिए । पुत्र-शोक से संतप्त पत्नी मन्दिर में आकर धनंजय से कहती है—

कठोर हो, क्या पूजा अब भी भाती है ।।
अरे, छोड़ चल दो, पूजा को फिर भी समय मिलेगा ।
चला गया बच्चा तो दुख दिल से कभी न निकलेगा ।।
ऐसी भी पूजा क्या, जो बच्चे का रहम भुलाती ।
जल्दी चलो, खौफ से मेरी धड़क रही है छाती ।।

पत्नी के इतना कहने पर भी जब धनंजय पूजा से न उठे, तब पुत्र की चिन्ता में व्याकुल पत्नी अपने अचेत पुत्र को मन्दिर में ले आयी । फिर भी धनंजय की पूजा में कोई बाधा न आयी । उनकी तल्लीनता देखकर मन्दिर में सब लोग चकित रह गये ।

पत्नी के बार-बार कहने पर धनंजय ने  ‘विषापहारस्तोत्र’ की रचना की जिसके एक श्लोक का अर्थ है—

‘शरीर का विष उतारने के लिए लोग मणि, मन्त्र, तन्त्र, औषध एवं रसायन’ के लिए भागते-फिरते हैं, किन्तु आपका स्मरण नहीं करते । उन्हें यह ज्ञात नहीं है कि ये सब आपके ही नाम हैं, विष उतारने वाले तो आप ही हैं ।’

हयशीर्षसंहिता में कहा गया है—‘उपासक के तप से, अत्यधिक पूजन से और इष्ट से प्रतिमा की एकरूपता से मूर्ति में भगवान उपस्थित हो जाते हैं ।’

कवि धनंजय के इन शब्दों का अचूक प्रभाव हुआ । तभी—

उठा कुमार नींद से, सोकर ही जैसे जागा हो ।
जीवन की दुंदुमी श्रवणकर महाकाल भागा हो ।।

धनंजय फिर भी भगवान की स्तुति में लीन रहे ।  मन्दिर में उपस्थित सभी लोग भक्त और भगवान की जय-जयकार करने लगे—

कहने लगे धन्य पूजा और धन्य अनन्य पुजारी ।
श्रद्धा और भक्तिमय पूजा है अतीव सुखकारी ।।

भक्त की भक्ति जब चरमसीमा पर पहुंच जाती है, तब उसकी दशा भी स्थितप्रज्ञ ज्ञानी की-सी हो जाती है । फिर ऐसे भक्त को भगवान क्यों न गले लगाएंगे !

स्थितप्रज्ञ ज्ञानी किसे कहते हैं ?

गीता में अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछते है—हे मधुसूदन ! ये स्थितप्रज्ञ क्या होता है ? इसे समझाओ !

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥ (गीता, 2।56)

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—‘पार्थ !  दुःख भोगते हुए भी जिसके मन में उद्वेग नहीं होता और जो न ही सुख की लालसा रखता है तथा जिसके ह्रदय में क्रोध, मोह, भय आदि विकारों के लिए कोई स्थान नहीं होता है वह मनुष्य स्थितप्रज्ञ है, वह मुनि, संन्यासी स्थिरबुद्धि कहा जाता है ।’

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्‌ ।
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ (गीता, 2।57)

अर्थात्—‘सब जगह आसक्तिरहित हुआ जो मनुष्य उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है ।’

‘जो निरन्तर आत्मभाव में स्थित, दु:ख-सुख को समान समझने वाला, मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाव वाला, ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रिय को एक-सा मानने वाला और अपनी निन्दा-स्तुति में भी समान भाव वाला है, वही गुणातीत है।’ (गीता, 14।24)

गीता में परमात्मा को प्राप्त करने के लिए स्थितप्रज्ञ मनुष्य में समता का होना एक आवश्यक लक्षण बताया गया है ।

स्थितप्रज्ञता के लिए आवश्यक है निष्काम भक्ति और अनन्य शरणागति

स्थितप्रज्ञता के लिए मनुष्य में निष्काम भक्ति और अनन्य शरणागति आवश्यक है । अनेक जन्मों तक की गयी प्रार्थना, अर्चना, सत्कर्म आदि के रूप में किए गए कठोर परिश्रम से जो पुण्यफल संचित होते हैं, उसी से निष्काम भक्ति मनुष्य के हृदय में अंकुरित होती है । ऐसी भक्ति से ही भगवान का साक्षात्कार होता है क्योंकि भक्ति से जो चित्त पिघल जाता है उस पिघले हुए चित्त में भगवान की छवि अंकित हो जाती है जैसे पिघली हुई लाख में वस्तु की छाप आ जाती है ।

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