bhagwan ram with devtas

भगवान की कृपा प्राप्त करने के लिए भगवान की आराधना, स्तुति करना आवश्यक है । भगवत्कृपा केवल मनुष्यों के लिए ही नहीं वरन्, देवता, दानव, वेद, ऋषि-मुनि—त्रिलोकी के समस्त जीवों की चाह रही है; क्योंकि यही सुख-शान्ति व सफलता का साधन है ।

राज्याभिषेक हो जाने पर राजा की स्तुति करने की परम्परा है । जब प्रभु श्रीराम का राज्याभिषेक हो गया, तब वेदों ने सोचा कि अभी-अभी सिंहासन पर बैठे प्रभु श्रीराम का दर्शन करना चाहिए; किन्तु दरबार में इतनी भीड़ है कि श्रीराम तक पहुँच पाना बहुत कठिन है । वेदों को ‘भगवान का भाट’ कहा गया है । अत: वेदों ने वन्दी (भाट) का वेष धारण कर लिया क्योंकि भाट का काम राजा का यशोगान करना होता है, अत: अब राजा राम तक पहुंचने से उन्हें कोई नहीं रोक सकता ।

भिन्न भिन्न अस्तुति करि गए सुर निज निज धाम ।
बंदी बेष बेद तब आए जहँ श्रीराम ।।
प्रभु सर्बग्य कीन्ह अति आदर कृपानिधान ।
लखेउ न काहूँ मरम कछु लगै करन गुन गान ।। (राचमा ७।१२ ख-ग)

वेद जब वन्दी वेष में श्रीराम दरबार में पधारे तो प्रभु श्रीराम के अलावा अन्य कोई उन्हें पहचान नहीं पाया । प्रभु श्रीराम तो सर्वज्ञ है, उन्होंने वेदों को पहचान लिया और उनका बहुत आदर किया ।

भगवान राम की स्तुति के सम्बन्ध में महर्षि वाल्मीकि का कथन है—‘श्रीराम ! आपका दर्शन और स्तुति अमोघ (कभी निष्फल न जाने वाली और अपने लक्ष्य तक पहुंचाने वाली) है तथा पृथ्वी पर आपकी भक्ति करने वाले मनुष्य भी अमोघ ही होंगे ।’ 

इसलिए राज्याभिषेक के समय वेदों द्वारा की गई प्रभु श्रीराम की स्तुति बहुत फलदायी है । अपना कल्याण चाहने वाले मनुष्य को इस स्तुति का नित्य पाठ अवश्य ही करना चाहिए ।

प्रभु श्रीराम की वेदों द्वारा की गई स्तुति (हिन्दी अर्थ सहित) 

जय सगुन निर्गुन रूप रूप अनूप भूप सिरोमने ।
दसकंधरादि प्रचंड निसिचर प्रबल खल भुजबल हने ॥
अवतार नर संसार भार बिभंजि दारुन दुख दहे ।
जय प्रनतपाल दयाल प्रभु संजुक्त सक्ति नमामहे ॥ १ ॥

अर्थात्—सगुण और निर्गुण रूप ! हे अनुपम रूप-लावण्ययुक्त ! हे राजाओं के शिरोमणि ! आपकी जय हो । आपने रावण आदि प्रचण्ड, प्रबल और दुष्ट निशाचरों को अपनी भुजाओं के बल से मार डाला । आपने मनुष्य अवतार लेकर संसार के भार को नष्ट करके अत्यंत कठोर दुःखों को भस्म कर दिया । हे दयालु ! हे शरणागत की रक्षा करने वाले प्रभो ! आपकी जय हो । मैं शक्ति (सीताजी) सहित शक्तिमान्‌ आपको नमस्कार करता हूँ ।

तव बिषम माया बस सुरासुर नाग नर अग जग हरे ।
भव पंथ भ्रमत अमित दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे ॥
जे नाथ करि करुना बिलोके त्रिबिधि दुख ते निर्बहे ।
भव खेद छेदन दच्छ हम कहुँ रच्छ राम नमामहे ॥ २ ।।

अर्थात्—हे हरे ! आपकी दुस्तर माया के वशीभूत होने के कारण देवता, राक्षस, नाग, मनुष्य और चर, अचर सभी काल कर्म और गुणों से भरे हुए (उनके वशीभूत हुए) दिन-रात अनन्त भव (आवागमन) के मार्ग में भटक रहे हैं । हे नाथ ! इनमें से जिनको आपने कृपा करके देख लिया, वे माया जनित तीनों प्रकार के दुःखों से छूट गए । हे जन्म-मरण के श्रम को काटने में कुशल श्रीरामजी ! हमारी रक्षा कीजिए । हम आपको नमस्कार करते हैं ।

जे ग्यान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी ।
ते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरी ॥
बिस्वास करि सब आस परिहरि दास तव जे होइ रहे ।
जपि नाम तव बिनु श्रम तरहिं भव नाथ सो समरामहे ॥ ३ ।।

अर्थात्—जिन्होंने झूठे ज्ञान के अभिमान में विशेष रूप से मतवाले होकर जन्म-मृत्यु को हरने वाली आपकी भक्ति का आदर नहीं किया, हे हरि ! उन्हें देव-दुर्लभ पद को पाकर भी हम उस पद से नीचे गिरते देखते हैं परन्तु जो सब आशाओं को छोड़कर आप पर विश्वास करके आपके दास हो रहते हैं, वे केवल आपका नाम ही जपकर बिना ही परिश्रम भवसागर से तर जाते हैं । हे नाथ ! ऐसे आपका हम स्मरण करते हैं ।

जे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनिपतनी तरी ।
नख निर्गता मुनि बंदिता त्रैलोक पावनि सुरसरी ।।
ध्वज कुलिस अंकुस कंज जुत बन फिरत कंटक किन लहे ।
पद कंज द्वंद मुकुंद राम रमेस नित्य भजामहे ।। ४ ।।

अर्थात्—जो चरण शिवजी और ब्रह्माजी के द्वारा पूज्य हैं, तथा जिन चरणों की कल्याणकारी रज का स्पर्श पाकर गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या तर गई, जिन चरणों के नख से मुनियों द्वारा वन्दित, त्रैलोक्य को पवित्र करने वाली देव नदी गंगाजी निकलीं और ध्वजा, वज्र, अंकुश और कमल—इन चिह्नों से युक्त जिन चरणों में वन में फिरते समय कांटे चुभ जाने से घट्ठे पड़ गए हैं, हे मुकुन्द ! हे राम ! हे रमापति ! हम आपके उन्हीं दोनों चरणकमलों को नित्य भजते रहते हैं ।

अब्क्तमूलमनादि तरु त्वच चारि निगमागम भने ।
षट कंध साखा पंच बीस अनेक पर्न सुमन घने ।।
फल जुगल बिंधि कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आश्रित रहे ।
पल्लवत फूलत नवल नित संसार बिटप नमामहे ।। ५ ।।

अर्थात्—वेद शास्त्रों ने कहा है कि जिसका मूल अव्यक्त है, जो अनादि है, जिसके चार त्वचाएं, छह तने, पच्चीस शाखाएं और अनेकों पत्ते और बहुत से फूल हैं, जिसमें कड़वे और मीठे दो प्रकार के फल लगे हैं जिस पर एक ही बेल है, जो उसी के आश्रित रहती है, जिसमें नित्य नए पत्ते और फूल निकलते रहते हैं, ऐसे संसार वृक्षस्वरूप (विश्वरूप में प्रकट) आपको हम नमस्कार करते हैं ।

जे ब्रह्म अजमद्वैतमनुभवगम्य मन पर ध्यावहीं ।
ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं ।।
करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह वर मागहीं ।
मन बचन कर्म बिकार तजि तव चतन हम अनुरागहीं ।। ६ ।।

अर्थात्—ब्रह्म अजन्मा है, अद्वैत है, केवल अनुभव से ही जाना जाता है और मन से परे है—जो इस प्रकार ब्रह्म का ध्यान करते हैं, वे ऐसा कहा करें और जाना करें, किंतु हे नाथ ! हम तो नित्य आपका सगुण यश ही गाते हैं । हे करुणा के धाम प्रभो ! हे सद्गुणों की खान ! हे देव ! हम यह वर मांगते हैं कि मन, वचन, और कर्म से विकारों को त्यागकर आपके चरणों में ही प्रेम करें ।

सब के देखन बेदन्ह बिनती कीन्हि उदार ।
अंतर्धान भए पुनि गएब्रह्म आगार ।। (राचमा ७।१३ क)

वेदों ने सबके देखते यह श्रेष्ठ विनती की । फिर वे अंतर्ध्यान हो गए और ब्रह्मलोक को चले गए ।

प्रभु श्रीराम की वेदस्तुति के पाठ की महिमा

  • मन की चंचलता रोकने के लिए भगवान श्रीराम का गुणगान सर्वोपरि उपाय है । श्रीराम के गुणगान से ही मनुष्य भुक्ति और मुक्ति दोनों प्राप्त कर लेता है और संसार-बंधन से मुक्त होकर परम पद को प्राप्त कर लेता है ।
  • मनुष्य के जन्म-जन्मान्तर के पाप नष्ट हो जाते हैं ।
  • उसकी चंचल लक्ष्मी स्थिर हो जाती है अर्थात् लक्ष्मीजी सदैव उसके घर में निवास करती हैं ।
  • सभी प्राणी उसके अनुकूल हो जाते हैं, शत्रु मित्र बन जाते हैं । 
  • उस मनुष्य के लिए जल स्थल बन जाता है, जलती हुई अग्नि शान्त हो जाती है ।
  • क्रूर ग्रहों के समस्त उपद्रव शान्त हो जाते हैं ।
  • मनुष्य की सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं ।
  • वह सबका वन्दनीय, सब तत्त्वों का ज्ञाता और भगवद्भक्त हो जाता है ।

तुलसीदासजी का कथन है—जो जीभ (मनुष्य) भगवान राम का गुणगान नहीं करती, वह मेंढक की जीभ के समान है—

जो नहिं करइ राम गुन गाना ।
जीह स दादुर जीह समाना ।।

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