कृष्णावतार आनन्द अवतार है। भगवान श्रीकृष्ण व्रज के सुख की टोकरी सिर पर लेकर ढोते हैं और व्रज की गलियों में कहते फिरते हैं–आनंद लो आनंद।
एक दिन नंद के दुलारे श्रीकृष्ण प्रात:काल जल्दी उठकर अपनी बालसुलभ क्रीड़ाओं से यशोदामाता को बहुत खिझाने लगे। यशोदामाता ने कई बार समझाया–कन्हैया उत्पात मत कर। आज मुझे बहुत काम है पर कन्हैया ने एक नहीं सुनी। खीजकर मैया ने उन्हें घर से बाहर सखाओं के साथ जाकर खेलने को कह दिया। श्रीकृष्ण तो मानो इसी ताक में थे। आज उन्हें अपनी बाललीला में कुछ नवीन रंग भरने थे। वात्सल्य-प्रेम में आकण्ठ डूबी हुई किसी गोपी को अपनी बाललीला के द्वारा कृतार्थ करना था। इसलिए वे मैया से डरने का बहाना करके यमुनातट की ओर भाग चले।
श्रीकृष्ण का मनोहारी स्वरूप
छोटे से कृष्ण हैं, पीली धोती धारण किये, उसके ऊपर लाल-हरा कछोटा बांधे, कन्धे तक घुँघराले केश मुख पर लहराते हुए, मस्तक पर गोरोचन का तिलक लगाये, कमनीय कण्ठ में कठुला पहने, हृदय पर बघनखा आदि टोना-निवारक वस्तुओं से निर्मित माला पहने, पांव में नुपुर पहने हुए हैं। इधर-उधर घूमने के बाद उन्हें भूख सताने लगी तो वह एक गोपी के पास जाकर खड़े हो गये। गोपी उनकी वेशभूषा, मन्द-मन्द कटीली मुस्कान, प्रेम भरी चितवन, भौंहों की मटकन आदि को देखकर मन-ही-मन उन पर रीझ गयी और कन्हैया से बोली–क्या चाहिए? कन्हैया गोपी से थोड़ा माखन-छाछ देने का अनुरोध करने लगे; परन्तु गोपी ने कन्हैया से कहा–’बिना मूल्य दिये कहीं भी कुछ नहीं मिलता।’
तनक लाय नवनीत प्रीति सौं, दै री ! दया दिखाय।
नाँहि नैक दही ही अपनौ, कै कछु मही मँगाय।।
देखि स्याम की जुगुति ‘विनय’ सुनि, गोपी मन मुसक्याँनी।
‘मिलत न कछु बिनु मोल लाल ! कहुँ-कहि बिनु मोल बिकानी।। (श्रीविंध्येश्वरीप्रसादजी मिश्र)
गोपी के इस स्वार्थभरे उत्तर को सुनकर कन्हैया ने कहा–
मोल माखन कौ माँगत हाय।
मैं बालक कछु पास न मेरे, देउँ कहाँ तैं लाय।।
श्रीकृष्ण ने माखन के लिए उठाये गोपियों के गोमय (गोबर) के टोकरे
गोपी को कन्हैया पर जरा भी दया नहीं आयी और उसने कहा–कन्हैया ! कोई बात नहीं है। तू यदि मेरे माखन का मूल्य नहीं दे सकता तो न सही, तू मेरा कुछ काम कर दे। माखन बनाने के लिए कितना परिश्रम करना पड़ता है? देख कन्हैया ! ब्राह्ममुहुर्त में जगकर हम दधिमंथन करती हैं, दिन-रात गौओं की सेवा करती हैं–गौओं को चारा आदि देना, उन्हें स्नान कराना, गोष्ठ की झाड़ू-बुहारी लगाना, गोबर (गोमय) को खाँच (टोकरी) में भर-भर कर पुष्पवाटिका में डालना, यमुनाजी से जल भरकर लाना और ऊपर से घर के सारे काम भी हम ही करते हैं। हम सभी गोपियां तेरी मैया के समान ‘व्रजरानी’ तो हैं नहीं कि हमारे सब काम दास-दासियां कर दें। अत: कन्हैया ! तू यदि सचमुच मेरा ताजा माखन अरोगना चाहता है तो गोष्ठ में चलकर मेरा थोड़ा-सा काम कर दे। काम यह है कि मैं गोष्ठ की सफाई करके जब गोबर की टोकरियां भर-भर कर उन्हें बाहर ले आऊँ, तब तुम प्रत्येक बार सहारा देकर मेरे सिर पर खाँच रखवाते जाना। इसके बदले में मैं तुम्हें उतने ही माखन के लौंदे (गोले) दूँगी जितनी बार तुम टोकरी उठवाओगे।
जितिक बार तुम खाँच उठावहु, करि श्रमु नंद दुलारे।
उतने ही नवनीत पिंड, गनि राखहुँ हाथ तिहारे।।
कन्हैया ने गोपी की बात मान ली। पर कितनी टोकरी उठाई हैं–इस संख्या का पता कैसे चले क्योंकि दोनों को ही गिनती नहीं आती है। गोपी बहुत चालाक है, उसने कन्हैया को एक उपाय सुझाया–
‘तू जितनी बार मेरे सिर पर गोमय (गोबर) की टोकरी रखवाने में सहायता करेगा, मैं उतनी बार तेरे कपोलों पर गोबर की रेखाएं बनाती जाऊँगी। काम खत्म हो जाने पर हम किसी पढ़े-लिखे सयाने व्यक्ति से वे रेखाएं गिनवा लेंगे और उतने ही माखन के लोंदे मैं तुझे दे दूंगी। बोलो, स्वीकार है यह प्रस्ताव।’
श्रीकृष्ण ने गोपियों के मन की अभिलाषा पूरी की
कन्हैया क्या करते? जो गोपी अनेक जन्मों से अपने हृदय के जिन भावों को श्रीकृष्ण को अर्पण करने की प्रतीक्षा कर रही है, उसकी उपेक्षा वह कैसे करें? इन्हीं गोपियों की अभिलाषाओं को पूरा करने के लिए ही तो निर्गुण-निराकार परम-ब्रह्म ने सगुण-साकार लीलापुरुषोत्तमरूप धारण किया है। दिन भर के भूखे-प्यासे श्यामसुन्दर गोपी के साथ उसकी गौशाला में जाकर गोमय की टोकरियां उठवाने लगे। एक हाथ से अपनी खिसकती हुई काछनी को सम्हालते और दूसरे हाथ से गोमय की खाँच गोपी के सिर पर रखवाते। ऐसा करते हुए कन्हैया का कमल के समान कोमल मुख लाल हो गया। चार-पांच टोकरियां उठवाने के बाद कन्हैया बोले–गोपी, तेरा कोई भरोसा नहीं है। तू बाद में धोखा दे सकती है, इसलिए गिनती करती जा। और उस निष्ठुर गोपी ने कन्हैया के लाल-लाल मुख पर गोमय की हरी-पीली आड़ी रेखाएं बना दीं। अब तो गोपी अपनी सुध-बुध भूल गयी और कन्हैया के सारे मुख-मण्डल पर गोमय के प्रेम-भरे चित्र अंकित हो गये–’गोमय-मण्डित-भाल-कपोलम्।’
बिबस लोभ-माखन-चाखन के, हरि तँह खाँच उठाई।
गुलचा खाय लाल-गालनि पै, गोमय-लिपि लिखवाई।।
जब गोपी को होश आया तब वह बोली कि मुझे इतना गोबर तो चाहिए नहीं था, मैं क्यों इतनी टोकरियां भर-भर कर ले गयी।? कन्हैया ने कहा–बहाना मत बना, गिनती के अनुसार गिन-गिन कर माखन के लोंदे ला। गोपी बोली–कन्हैया, ऐसे माखन नहीं मिलता। कन्हैया ने पूछा–फिर कैसे मिलेगा? गोपी ने कहा–पहले नाचो तब मिलेगा।
छछिया भर छाछ पर नाच दिखावे
अब कन्हैया एक हाथ अपनी कमर पर और दूसरा हाथ अपने सिर पर रखकर ‘ता-ता थेई, ता-ता थेई’ नाच रहे हैं। ब्राह्मणों द्वारा किये गये यज्ञ-आवाहन आदि कर्मकाण्ड भी जिन्हें अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाते वही प्रेमरससिन्धु भगवान श्रीकृष्ण व्रज में तनिक से माखन के लिए कभी नृत्य करते हैं तो कभी याचक बनने में भी संकोच नहीं करते हैं। व्रजमण्डल के आकाश में स्थित देवतागण गोपी और श्रीकृष्ण की इस झांकी को देखकर पुष्पवर्षा करते हैं।
ब्रज में नाचत आज कन्हैया मैया तनक दही के कारण।
तनक दही के कारण कान्हां नाचत नाच हजारन।।
नन्दराय की गौशाला में बंधी हैं गैया लाखन।
तुम्हें पराई मटुकी को ही लागत है प्रिय माखन।।
गोपी टेरत कृष्ण ललाकूँ इतै आओ मेरे लालन।
तनक नाच दे लाला मेरे, मैं तोय दऊँगी माखन।। (रसिया)
प्रेम की झिड़कियाँ भी मीठी होती हैं–मार भी मीठी लगती है। शेष, महेश, गणेश, सुरेश इस मजे को क्या जानें–सुस्वादु रस का यह जायका उनके भाग्य में कहाँ? वे जिस परब्रह्म की अपार महिमा का पार पाने के लिए दिन-रात नाक रगड़ते रहते हैं, वही सलोना श्यामसुन्दर व्रजमण्डल के प्रेमसाम्राज्य में छाछ की ओट से इसी रस के पीछे अहीर की छोकरियों (गोपियों) के इशारों पर तरह-तरह के नाच नाचता-फिरता है–
सेस, महेस, गनेस, दिनेस,
सुरेसहु जाहि निरन्तर गावैं।
जाहि अनादि, अनन्त, अखण्ड,
अछेद, अभेद, सुबेद बतावैं।।
नारद-से सुक व्यास रटैं,
पचिहारे, तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीरकी छोहरियाँ,
छछियाभरि छाछपै नाच नचावैं।। (रसखान)
श्रीमद्भागवत में कहा गया है–’प्यारे कृष्ण ! आपकी एक-एक लीला मनुष्यों के लिए परम मंगलमयी और कानों के लिए अमृतस्वरूप हैं। जिसे एक बार उस रस का चस्का लग जाता है, उसके मन में फिर किसी दूसरी वस्तु के लिए लालसा ही नहीं रह जाती।’