श्रीराधा भक्तिमार्ग की आचार्या हैं । आचार्य उसे कहते हैं जो किसी विशेष पद्धति का चलन करे । श्रीराधा और गोपियों ने भक्तिमार्ग की नयी पद्धति का आविष्कार किया जो मुनियों के लिए भी दुर्लभ है ।
भक्ति के प्रकार
भक्ति तीन प्रकार की होती है—
- तदीया भक्ति—जिसमें माना जाता है ‘भगवान भक्तों के हैं’ ।
- त्वदीया भक्ति—वह है जिसमें भक्त अपने को भगवान का मानता है—‘मैं तेरा हूँ भगवान’ ।
- मदीया भक्ति—जिसमें भक्त कहता है ‘श्रीकृष्ण मेरे हैं’, ‘गोविन्द मेरे हैं’, ‘गोपाल मेरो है’ । इस भक्ति में भक्त का सब कुछ भगवान ही बन जाते हैं । अपना सब कुछ आराध्य को समर्पित हो जाता है । यह भाव ही ‘गोपीभाव’ कहलाता है ।
श्रीराधा की श्रीकृष्णभक्ति
श्रीराधा की भक्ति मदीया भक्ति है—अपना सुख कोई सुख नहीं, प्रियतम श्रीकृष्ण का सुख ही अपना सुख है । ‘तत्सुखे सुखित्वम्’ तुम्हारे सुख में ही मेरा सुख है । श्रीराधा कभी भी अपने में प्रेम या कोई गुण नहीं देखतीं, अपने को सेवा के अयोग्य मानकर भी सतत् अपने आराध्य श्रीकृष्ण की आराधना किया करती हैं । श्रीराधा के इस प्रेम का नाम ही ‘महाभाव’ है ।
कहते हैं प्रेम का जो सार है, वही राधा बन गया, इसीलिए श्रीराधा सर्वोत्कृष्ट प्रेम की प्रतीक हैं । प्राणीमात्र को भगवत्प्रेम का पाठ पढ़ाने के लिए ही उनका अवतार हुआ है । भगवान की अभिन्नस्वरूपा (उन्हीं के वाम अंग से प्रकट हुई हैं) होने पर भी नित्य आराधिका बनकर उनकी भक्ति में ही लीन रहना—यह आदर्श वे जगत में प्रस्तुत करती है ।
श्रीराधा स्वयं कृष्णमय थीं । उनके चित्त, इन्द्रिय, शरीर, भावना, बुद्धि और अहंकार—सभी श्रीकृष्णप्रेम के साररूप द्वारा बने हैं, इसलिए श्रीकृष्णसुखजीवना श्रीराधा का एकमात्र कार्य है श्रीकृष्ण को आनन्द देना । इसी कारण वे ‘आह्लादिनी’ कहलाती है । महाभावरूपा श्रीराधा श्रीकृष्ण-प्रेम में अपने को सदा भूली रहती हैं । वे अपने को ‘श्रीकृष्णरूपी धन’ का धनी मानती हैं ।
राधा नित्य श्याम की मूरति, नहीॅ अन्य कुछ भावाभाव ।
राधा श्याम, श्याम राधा हैं, अन्य तत्त्व का नित्य अभाव ।। (पद-रत्नाकर)
भाई हनुमानप्रसादजी पोद्दार ने अपनी पुस्तक ‘श्रीराधा-माधव-चिन्तन’ में एक सुन्दर प्रसंग का वर्णन किया है—
एक दिन श्रीराधा एकान्त में महाभाव में निमग्न बैठी थीं । तभी एक सखी ने आकर उनसे श्रीकृष्ण-प्रेम प्राप्ति का उपाय पूछा । श्रीकृष्ण-प्रेम का नाम सुनते ही श्रीराधा के नेत्रों से आंसुओं की धारा बह चली और वे गद्गद् वाणी में बोलीं—‘अरी सखी ! मैं क्या साधन बतलाऊँ, मेरे पास तो कुछ और है ही नहीं । मेरे तन, मन, प्राण, धन, जन, शील, मान, अभिमान—सभी कुछ एकमात्र श्रीकृष्ण हैं । इस राधा के पास अश्रुजल (आंसुओं की धार) को छोड़कर और कोई धन है ही नहीं जिसके बदले में उन प्रेमधन श्रीकृष्ण को प्राप्त किया जाए । उनके प्रेम को प्राप्त करने का एक ही उपाय है कि बस, सब कुछ उन्हीं को समर्पण कर, सब कुछ उन्हीं को समझ कर, उन्हीं के लिए यह पवित्र प्रेमाश्रुओं की धारा बहती रहे ।’
इसीलिए संतों ने कहा है—‘श्रीराधे ! तुम्हारी प्रेमडोर में बंधे भगवान श्रीकृष्ण पतंग की भांति सदा तुम्हारे आस-पास ही चक्कर लगाते रहते हैं, तुमने अपने प्रेमाश्रुओं की बाढ़ से उन्हें वश में कर लिया है । श्रीकृष्ण की आराधना के ही कारण तुम ‘राधा’ नाम से विख्यात हुईं । अपना यह नामकरण स्वयं तुमने किया है ।’
भगवान के साथ जिनका प्रेम का सम्बन्ध है, वे कभी भी भगवान की किसी विधि में शंका नहीं करते । प्रेमी कभी मंगल-अमंगल जानता ही नहीं है । यह उसके प्यारे का विधान है, उसके सुख की चीज है यही उसका जीवन है । श्रीराधा और गोपीजनों का भी यही भाव था कि चिरकाल तक हमारा मिलन न हो परन्तु हमारे प्यारे श्रीकृष्ण सुखी रहे ।
श्रीराधाजी ललितासखी से कहती हैं कि यदि श्रीकृष्ण लौटकर व्रज में नहीं आते तो निश्चय ही मैं इस जीवन में उनको नहीं देख पाऊंगी । अत: अब इतना कष्ट उठाकर इस शरीर की रक्षा करने का कोई प्रयोजन नहीं है । शरीर चला जाए परन्तु मैं विधाता से हाथ जोड़कर यह प्रार्थना करती हूँ कि मेरे शरीर के पांचों भूत प्रियतम श्रीकृष्ण को समर्पित भूतों में ही विलीन हों—
- मेरे शरीर का जलतत्त्व वृन्दावन की उस कालिन्दी (यमुना) और वापियों (सरोवरों) में जाकर मिले जहां श्रीकृष्ण जल विहार करते हों,
- मेरा अग्नितत्त्व उस दर्पण के प्रकाश में समा जाए जिसमें श्रीकृष्ण अपना मुख निहारते हों,
- मेरे शरीर का आकाशतत्त्व नन्दनन्दन के आंगन में समा जाए जिसमें श्रीकृष्ण क्रीड़ा करते हों,
- पृथ्वीतत्त्व उस धरती में समा जाए जिस पर श्रीकृष्ण चलते-फिरते हों,
- ताल-तमाल के वृक्षों की वायु में मेरा वायुतत्त्व विलीन हो जाए जो प्रियतम श्रीकृष्ण को हवा देता हो ।
श्रीराधा के इसी महाभाव पर रीझ कर व्रज की लीला में श्रीकृष्ण उनसे कृपा-कटाक्ष का दान मांगते हैं । इसका सुन्दर वर्णन अष्टछाप के कवि श्रीगोविन्दस्वामी के पद में किया गया है–
कृपा अवलोकन दान दे री ।
महादानी बृषभान नंदनी ।।
तृषित लोचन चकोर मेरे ।
तुव वदन इन्दू किरण पान दे री ।।
मनुष्य की कामना जब शरीर में केन्द्रित होती है, तब उसका नाम होता है ‘काम’ और जब वह श्रीकृष्ण में केन्द्रित होती है, तब वही ‘प्रेम’ बन जाती है । जहां पर अपने सुख की इच्छा है, चाहे मनुष्य से हो या भगवान से या मोक्ष की इच्छा हो, वहां प्रेम नहीं है, वह ‘काम’ है ।
लक्ष्मी-पार्वतीजी में कामना है । वे अपने पतियों की सेवा, प्रेम चाहती हैं परन्तु श्रीराधा में कोई कामना नहीं है । अरुन्धती, अनुसूया जैसी पतिव्रताएं भी श्रीराधा जैसा पातिव्रत्य चाहती हैं—
निज तन-मन जिनके नहीं, प्रिय तन-मन कौं धार ।
प्रियमय, राधा-सी सती, अन्य कौन संसार ।। (पद-रत्नाकर)
श्रीकृष्ण की आराधिका हैं श्रीराधा
भगवान प्रेम के भूखे हैं । बृहदारण्यक में कहा गया है—‘एकाकी न रमते’ । उनकी एक से दो होने की इच्छा हुई, इसलिए भगवान प्रेम-लीला के लिए श्रीराधा और श्रीकृष्ण के रूप में दो हो जाते हैं । वास्तव में श्रीराधा श्रीकृष्ण से अलग नहीं होतीं, श्रीकृष्ण ही प्रेम की वृद्धि के लिए श्रीराधा को अलग करते हैं । दोनों में कोई-छोटा-बड़ा नहीं है । दोनों ही एक-दूसरे के इष्ट और एक-दूसरे के भक्त हैं ।
श्रीराधिकोपनिषद् में कहा गया है—
कृष्णेन आराध्यत इति राधा ।
कृष्णं समाराधयति सदेति राधिका ।।
अर्थात्—‘श्रीकृष्ण इनकी नित्य आराधना करते हैं, इसलिए इनका नाम राधा है और श्रीकृष्ण की ये सदा आराधना करती हैं, इसलिए राधिका नाम से प्रसिद्ध हुई हैं ।’
श्रीराधा का श्रीकृष्ण के प्रति भाव-समुद्र इतना अगाध है जिसका वर्णन कर पाना असंभव है । आज के इस अशांत और स्वार्थमय विश्व में श्रीराधा के दिव्य प्रेम का एक कण भी मनुष्य को महामानव बनाने में समर्थ है । हमें भी नित्य व निरंतर भगवान की पूजा-आराधना अंहकाररहित होकर, त्यागमय जीवनशैली अपना कर, भक्ति-पूर्वक करनी चाहिए ।