Bhagwan Shri Krishna with Rukmini ji

भगवान शंकर के रौद्ररूप के अवतार हैं दुर्वासा ऋषि

भक्तों के धर्म की परीक्षा करने और उनकी भक्ति को बढ़ाने के लिए भगवान शंकर ने ही दुर्वासा ऋषि के रुप में अवतार धारण किया। भगवान शंकर के रुद्ररूप से दुर्वासा ऋषि प्रकट हुए थे, इसलिए उनका रूप अति रौद्र और स्वभाव अत्यन्त क्रोधी था । वे ‘क्रोधभट्टारक’ के नाम से भी जाने जाते हैं । किन्तु उनका एक अत्यन्त दयालु रूप भी था। दयालु रूप में भक्तों का दु:ख दूर करना और रौद्ररूप में दुष्टों का दमन करना उनका स्वभाव था।

दुर्वासा का अर्थ है—कटे-फटे मलिन वस्त्रों में रहने वाला अवधूत । दूर्वा के रस का पान करने के कारण भी उनका नाम दुर्वासा पड़ गया ।

‘अतिथि देवो भव’

वायुपुराण में कहा गया है कि योगी एवं सिद्ध पुरुष मनुष्य के कल्याण के लिए अनेक रूपों में विचरण करते (घूमते) रहते हैं, इसलिए अतिथि कोई भी क्यों न हो, सदैव ‘अतिथि देवो भव’ समझकर आदर-सत्कार करना चाहिए ।

महाभारत के शान्तिपर्व में कहा गया है कि गृहस्थ के लिए अतिथि को छोड़कर दूसरा कोई देवता नहीं है । जहां अतिथि का आदर होता है, वहां देवता प्रसन्न होते हैं । इसे भी यज्ञ माना गया है। इससे व्यक्ति धन, आयु, यश, पुण्य, स्वर्ग और असीम आनन्द प्राप्त करता है ।

भगवान श्रीकृष्ण का अतुलनीय एवं विचित्र अतिथि-सत्कार

महाभारत के अनुशासनपर्व में एक सुन्दर कथा है—

एक बार दुर्वासा ऋषि चीर धारण किए, जटा बढ़ाए, हाथ में बिल्ववृक्ष का दण्ड लिए तीनों लोकों में घूम-घूमकर चिल्लाते फिर रहे थे—‘मैं दुर्वासा हूँ। मैं रहने के लिए स्थान खोजता हुआ चारों ओर घूम रहा हूं । जो कोई भी मुझे अपने घर में अतिथि बनाना चाहता है, बताए ।  मुझे क्रोध बहुत जल्दी आता है । अत: जो कोई भी मुझे अपने घर पर आश्रय दे, वह इस बात का ध्यान रखे और सावधान रहे ।’

यह चिल्लाते हुए ऋषि त्रिलोकी में घूम आए पर किसी को भी दुर्वासारूपी विपत्ति को अपने घर में रखने का साहस नहीं हुआ । घूमते हुए दुर्वासा ऋषि द्वारका पहुंचे । भगवान श्रीकृष्ण ने जब दुर्वासा ऋषि की पुकार सुनी तो उन्हें अपने राजमहल में ठहरा लिया ।

दुर्वासा ऋषि ने ली जब श्रीकृष्ण की परीक्षा

दुर्वासा ऋषि का रहने का ढंग बहुत ही निराला था । वे अकेले ही कभी हजारों मनुष्यों का भोजन खा जाते और कभी बहुत थोड़ा खाते । किसी दिन वे महल से चले जाते और कुछ दिनों तक लौटते ही नहीं थे । कभी ठहाका मारकर जोरों से हंसते तो कभी बच्चों की तरह रोने लगते ।

एक दिन दुर्वासा ऋषि अपनी कोठरी में पलंग, बिस्तर आदि में आग लगाकर तेजी से भागते हुए श्रीकृष्ण के पास आए और बोले–’वासुदेव ! मैं इस समय खीर खाना चाहता हूँ, तुम मुझे तुरन्त खीर खिलाओ ।’

भगवान श्रीकृष्ण तो सर्वज्ञ परब्रह्म परमात्मा हैं, वह दुर्वासा ऋषि के मन की बात पहले ही ताड़ गए थे । इसलिए दुर्वासा ऋषि की पसन्द की सभी भोजन सामग्री पहले से ही तैयार थी । उन्होंने तुरन्त ही गरमागरम खीर लाकर ऋषि के सामने परोस दी ।

आधी खीर खाकर दुर्वासा ऋषि भगवान श्रीकृष्ण से बोले–’वासुदेव ! अब यह बची हुई जूठी खीर तुम अपने शरीर में चुपड़ लो ।’

शास्त्रों में कहा गया है—‘गुरु को राखौ शीश पर सब बिधि करैं सहाय’ अर्थात् गुरु की आज्ञा शिरोधार्य करने से सब प्रकार से भला होता है ।

श्रीकृष्ण ने तुरन्त ही वह खीर मस्तक व सभी अंगों में चुपड़ ली । यह देखकर पास ही खड़ी रुक्मिणीजी मुस्कराने लगीं तो ऋषि ने वह खीर उनको भी शरीर पर लगाने के लिए कहा । फिर श्रीकृष्ण और रुक्मिणीजी को एक रथ में जोतकर उस पर सवार हो गए । जिस तरह एक सारथि घोड़ों को चाबुक मारता है, उसी तरह ऋषि कोड़े फटकारते हुए द्वारका के राजमार्ग पर रथ चलाने लगे । यह सब देखकर सभी यादवों को बहुत क्लेश हुआ । भगवान श्रीकृष्ण सारे शरीर में खीर पोते हुए रथ खींचे ले जा रहे थे किन्तु  कोमलांगी रुक्मिणीजी बार-बार रथ खींचते समय गिर जातीं । क्रोधभट्टारक दुर्वासा उनकी बिल्कुल भी परवाह न कर रथ खींचने को कहते रहे । अंत में जब रुक्मिणीजी बिल्कुल पस्त हो गयीं तब श्रीकृष्ण ने दुर्वासा ऋषि से कहा–’भगवन् ! मुझ पर प्रसन्न हो जाइए ।’

दुर्वासा ऋषि ने दिया श्रीकृष्ण और रुक्मिणीजी को वरदान

दुर्वासा ऋषि प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण की ओर देखने लगे और बोले –‘वासुदेव ! तुमने क्रोध को जीत लिया है । तुम्हारा कोई अपराध मुझे दिखाई नहीं देता है । प्रसन्न होकर मैं तुम्हें वर देता हूँ कि–

  • तुम त्रिलोकी में सबके प्रिय होओगे ।
  • तुम्हारी कीर्ति सब लोकों में फैलेगी ।
  • जितनी वस्तु मैंने जलाई हैं, वे सब तुम्हें वैसी ही और उससे भी अच्छी होकर मिलेंगी ।
  • इस जूठी खीर को सारे शरीर में लगा लेने से अब तुमको मृत्यु का भय नहीं रहेगा । जब तक तुम जीवित रहना चाहोगे, रह सकोगे ।

दुर्वासा ऋषि ने श्रीकृष्ण से कहा—‘तुमने अपने तलवों में खीर क्यों नहीं लगायी, बस तुम्हारे तलवे ही निर्भय न बन सके ।’

(जरा व्याध ने प्रभास क्षेत्र में मृग के संदेह में जो बाण मारा वह भगवान श्रीकृष्ण के तलवे में लगा और भगवान नित्यलीला (स्वधाम) में प्रविष्ट हो गए ।)

जब श्रीकृष्ण ने अपने शरीर की ओर देखा तो वह एकदम साफ और कांतिमान था ।

दुर्वासा ऋषि का रुक्मिणीजी को वरदान

रुक्मिणीजी को देखकर दुर्वासा बोले–

  • मेरी जूठी खीर शरीर पर लगाने से तुम्हारे शरीर पर बुढ़ापा, रोग या अकान्ति का स्पर्श भी नहीं होगा ।
  • तुम्हारे शरीर से सदैव सुगन्ध निकलेगी ।
  • सभी स्त्रियों में श्रेष्ठ होकर यश और कीर्ति प्राप्त करोगी ।
  • अंत में तुम्हें श्रीकृष्ण का सालोक्य प्राप्त होगा ।

इतना कहकर दुर्वासा ऋषि अन्तर्ध्यान हो गए । जब श्रीकृष्ण ने महल में जाकर देखा कि ऋषि ने जो भी वस्तुएं जलायीं थीं वे पहले की तरह अपने स्थान पर रखी हुई थीं । दुर्वासा ऋषि का यह अद्भुत चरित्र देखकर सब हैरान रह गए ।

सत्य है—‘करो सेवा, मिले मेवा’

सेवारूपी भक्ति से ही प्राप्त होती है अभीष्ट सिद्धियां

हम जिस किसी की सेवा करते हैं तो वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सेवा करने वाले का उपकार अवश्य करता है । सेवा जितनी सहज और सरल प्रतीत होती है, उसका निर्वाह उतना ही कठिन है । गीता (४।१७) में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मयोग के रूप में इसे अत्यन्त कठिन बताया है—‘गहना कर्मणो गति: ।।’

तुलसीदासजी ने भी सेवक के धर्म को अत्यन्त कठोर बताते हुए कहा है—‘सब तें सेवक धरमु कठोरा ।।’

सेवा में भावनिष्ठा और समर्पण आवश्यक है जिससे पत्थरदिल मनुष्य को भी अपने अनुकूल किया जा सकता है ।

गीता (१७।१५) में कहा गया है—सेवक को आवेश पैदा न करने वाले, सत्य, प्रिय और हितकर वचन बोलने चाहिए और उसे प्रसन्न, शान्त, कम बोलने वाला और जितेन्द्रिय होना चाहिए । इसे ही वाणी का तप कहा गया है ।

सेवा जीवन धरम है, सेवा करम महान।
सेवा से सुख मिलत है, जानहु सकल जहान ।।

2 COMMENTS

  1. सेवा में,
    श्रीमान जी चरण स्पर्श ।
    महोदय ,
    निवेदन करना है कि प्रार्थी देवता दोनों अश्विनीकुमार द्वारा रचित ग्रंथ नेत्ररोग चिकित्सा अश्विनीकुमार संहिता कहा मिलेगी । उसकी कीमत क्या होगी ।
    पारसमणी कैसे बनाया जाता है सिद्धशूत कैसे बनाया जाता है । क्या सिद्धसूत प्रमाणित प्रयोग करने पर आश्चर्यजनक अपना प्रभाव दिखाये ।क्या सिद्धसूत कोई आज के जमाने में बनानें में सक्षम है इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में।
    यदि सम्भव न उचित समझें तो इस दास की विनय स्वीकार करते हुए मेरे ईमेल पते पर मेरे द्वारा लिखीं गये वाक्यों के सम्बन्ध में उत्तर देने का कष्ट करें।
    अन्त में चरण स्पर्श ।

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