क्या है श्रीसत्यनारायण व्रतकथा का संदेश

नमो भगवते नित्यं सत्यदेवाय धीमहि।
चतु:पदार्थदात्रे च नमस्तुभ्यं नमो नम:।।

अर्थात्—षडैश्वर्यरूप भगवान सत्यदेव को नमस्कार है, मैं आपका सदा ध्यान करता हूँ। आप धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—इन चारों पुरुषार्थों को देने वाले हैं, आपको बारम्बार नमस्कार है।

ईश्वर का भावरूप विग्रह है सत्य

सनातन हिन्दू धर्म में किसी भी मांगलिक कार्य के आरम्भ में गणपतिपूजन व कार्य के पूरे होने पर भगवान सत्यनारायण का पूजन-कथाश्रवण करने की परम्परा है। सत्यनारायण का अर्थ है—‘सत्य’ अर्थात् भगवान ‘सर्वकारणकारण’ हैं इसलिए परमसत्य कहलाते हैं, ‘नार’ का अर्थ है पंचभूत और ‘अयन’ माने रहने वाले; इसलिए सत्यरूप में रहने वाले भगवान नारायण। सत्य को नारायण मानकर उसे अपने जीवन में उतारने का व्रत लेने वालों की कथा है ‘सत्यनारायण व्रतकथा’।

श्रीमद्भागवत में हैं सत्यरूप परमात्मा श्रीकृष्ण की स्तुति

कंस के कारागार में बन्द देवकी के गर्भ में जब भगवान ने प्रवेश किया तो भगवान शंकर तथा ब्रह्माजी के साथ समस्त देवता और नारदजी आदि कंस के कारागार में आए और देवकी के गर्भ की स्तुति की—

सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं
सत्यस्य योनिं निहितं च सत्ये।
सत्यस्य सत्यमृतसत्यनेत्रं
सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्ना:।। (श्रीमद्भागवत (१०।२।२६)

अर्थात्—प्रभो! आप सत्यसंकल्प हैं। सत्य ही आपकी प्राप्ति का सबसे अच्छा साधन है। सृष्टि के पूर्व, प्रलय के पश्चात् और संसार की स्थिति के समय—इन तीनों अवस्थाओं में आप सत्य हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश—इन पांच दिखायी देने वाले सत्यों के आप ही कारण हैं और उनमें आप अन्तर्यामी रूप से विराजमान भी हैं। आप ही मधुर वाणी और समदर्शन (सबमें भगवान के दर्शन) के प्रवर्तक हैं। आप तो बस, सत्यस्वरूप ही हैं। हम सब आपकी शरण में आये हैं।

श्रीमद्भागवत के इस श्लोक को ‘भगवान की गर्भस्तुति’  कहा जाता है। इस स्तुति से स्पष्ट है कि ईश्वर सत्यस्वरूप है। भगवान के इसी सत्यस्वरूप से लोगों को परिचित कराने के लिए ही पुराणों में ‘सत्यनारायण व्रतकथा’ का उल्लेख हुआ है।

‘सत्यनारायण व्रतकथा’ का संदेश

‘सत्यनारायण व्रतकथा’ का संदेश है कि निष्काम या सकाम किसी भी तरह से सत्य की उपासना करने से मनुष्य को लौकिक सुखों के साथ सत्यरूप नारायण की प्राप्ति हो जाती है।

मनुष्य यदि अपने जीवन में सत्य को अपना ले तो उसके अंदर भगवदीय गुण विकसित होने लगते हैं। ऐसे व्यक्ति जो सत्य के आग्रह पर अडिग रहते हैं, भगवान उनकी रक्षा करते हैं, उन्हें कोई हानि नहीं पहुंचा सकता है। इसके विपरीत सत्य से दूर रहने वाला व्यक्ति तामसी स्वभाव का होकर पाप के रास्ते चल पड़ता है; फलस्वरूप जीवन भर क्लेशों से घिरा रहता है।

कलियुग में प्रत्यक्ष फल देते हैं भगवान सत्यनारायण

मृत्युलोक में प्राणियों के क्लेश और दु:ख देखकर देवर्षि नारद ने भगवान नारायण से इससे बचने का उपाय पूछा। भगवान ने बहुत ही सरल व सभी के द्वारा किया जा सकने वाला उपाय बताते हुए कहा—‘जैसे अन्धकार को भगाने के लिए प्रकाश ही एकमात्र उपाय है, उसी प्रकार क्लेशों से मुक्ति पाने के लिए भगवान सत्यनारायण का आश्रय ही अमोघ उपाय है।’

सत्यनारायणस्यैव व्रतं सम्यग् विधानत:।
कृत्वा सद्य: सुखं भुक्त्वा परत्र मोक्षमाप्नुयात्।।

अर्थात्—जैसे ही मनुष्य सत्य को अपने जीवन का अंग बनाता है वैसे ही सद्य: (तुरन्त) उसे सुख मिलना शुरु हो जाता है—इतना चमत्कारी है सत्यनारायण व्रत। व्रतकथा की फलश्रुति में बताया गया है कि व्यक्ति जिस-जिस वस्तु की इच्छा करता है, उसे वह सब प्राप्त हो जाती हैं; साथ ही सत्यलोक (वैकुण्ठ) की प्राप्ति के साथ ही अगले जन्मों में भी उत्तम योनि व शरीर प्राप्त हुए।

सत्यव्रत या ‘सत्यं परं धीमहि’

‘सत्यव्रत’ या अपने मन में सत्यरूप परमात्मा को धारण करने का अर्थ है—मन, वाणी और कर्म-आचरण में सत्य को धारण करना। हमारे सभी शुभ व अशुभ कर्मों का कारण मन है; अत: इस चंचल मन को विषयों से हटाकर परमात्मा में लगाएं। मन के शुद्ध होने से मनुष्य के अंदर अपने-आप दया, करुणा, परोपकार आदि सद्गुण आयेंगे और उसके सभी कार्य भगवान की प्रसन्नता के लिए होने लगेंगे। इस प्रकार सत्यव्रत के पालन से सत्यरूप भगवान की प्राप्ति सरलता से हो जाती है। इसीलिए विभिन्न उपनिषदों व पुराणों में मनुष्य के लिए सत्य की अनिवार्यता को बताते हुए कहा गया है—

—सत्यं वद (सत्य बोलो)।
—नास्ति सत्यात् परं तप: (सत्य बोलने के समान कोई तप नहीं है)।

दरिद्र ब्राह्मण, गरीब लकड़हारा, उल्कामुख और तुंगध्वज राजा, साधु वैश्य आदि जैसे सत्य को अपनाने से सुखी व सम्पन्न हो गए; वैसे ही हमें भी सत्य को अपनाने के लिए किसी दिन या मुहुर्त को देखने की आवश्यकता नहीं है। दृढ़ निश्चय व पूर्ण समर्पण से सत्य के रास्ते पर चलिए, सुख-समृद्धि, व शान्ति आपके जीवन में आने के लिए बेकरार रहेगी।

धरमु न दूसर सत्य समाना।
आगम निगम पुरान बखाना।। (मानस २।९५।५)

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