शास्त्रों और पुराणों में जिन तैंतीस कोटि देवताओं का उल्लेख किया गया है, उनका हमें साक्षात् दर्शन नहीं होता है । हम केवल पुराणों में वर्णित उनके स्वरूप के अनुसार उनकी पहचान कर उनकी प्रतिमा की पूजा करते हैं । कुछ देवताओं जैसे सूर्य, चन्द्र व अग्नि को हम देख सकते हैं और जल (वरुण) को छू सकते हैं । लेकिन माता-पिता ऐसे सर्वश्रेष्ठ देवता हैं जिनकी हम साक्षात् पूजा कर सकते हैं, स्नान करा कर छप्पन भोग लगा सकते हैं, चरण धोकर चरणामृत ले सकते हैं और रूठ जाने पर मना सकते हैं, जिनकी झोली और वाणी सदैव हमारे लिए आशीर्वचनों से भरी रहती है ।
वाल्मीकि रामायण में भगवान श्रीराम सीताजी से कहते हैं—‘माता-पिता और गुरु—ये तीनों प्रत्यक्ष देवता हैं, इनकी अवहेलना करके अप्रत्यक्ष देवता की आराधना कैसे हो सकती है ?’
परमात्मा अपनी सेवा से अधिक माता-पिता की सेवा को श्रेष्ठ मानते हैं । इसका सुन्दर उदाहरण है—पंढरपुर में ईंट पर विट्ठल रूप में खड़ी भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति ।
भक्त पुण्डरीक और भगवान पण्ढरीनाथ
पंढरपुर के पास एक पुण्डरीक नाम का व्यक्ति माता-पिता का भक्त था । वह दिन-रात माता-पिता की सेवा-भक्ति में लगा रहता था । एक दिन भगवान श्रीकृष्ण रुक्मिणीजी के साथ आये और पुण्डरीक से बोले—‘पुण्डरीक’ !
पुण्डरीक ने कहा—‘कौन है ?’
भगवान बोले—‘भगवान !’
पुण्डरीक ने पूछा—‘कैसे आये ?’
भगवान ने कहा—‘मैं तुमसे मिलने आया हूँ ।’
पुण्डरीक ने कहा—‘भगवन् ! मुझको तो इस समय बात करने की फुर्सत नहीं है । आप आये हैं तो बैठिये । वहां एक ईंट पड़ी थी, पुण्डरीक ने बैठने के लिए भगवान को ईंट का आसन दे दिया और कहा—‘इस पर बैठिये ।’
भगवान ने कहा—‘मैं तुमसे मिलने के लिए आया हूँ और तुम्हें हमसे मिलने का भी अवकाश नहीं है ?’
पुण्डरीक ने कहा—‘महाराज ! मैं अपने माता-पिता की सेवा कर रहा हूँ, इस समय अवकाश नहीं है, आप क्यों आये ?’
भगवान ने कहा—‘तू माता-पिता का भक्त है इसलिए तुझे दर्शन देने के लिए आया हूँ ।’
पुण्डरीक ने कहा—‘माता-पिता की सेवा का इतना प्रभाव है कि बिना बुलाये आपको आना पड़ा ।’
भगवान ने कहा—‘माता-पिता की सेवा का तो ऐसा ही प्रभाव है ।’
तब पुण्डरीक ने कहा—‘तो आप ही विचारिये, जिन माता-पिता की सेवा का ऐसा प्रभाव है कि बिना बुलाये आपको आना पड़ा, उन माता-पिता की सेवा को मैं आपसे मिलने के लिए छोड़ दूँ ? आप बैठिये, यदि आपको समय न हो तो फिर और कभी आयें ।’
भगवान पुण्डरीक के सम्मुख आकर बोले—‘माता-पिता की सेवा में तुम्हारी इतनी सच्ची निष्ठा देखकर मैं तुमसे बहुत खुश हूँ ।’
माता पिता की सेवा से निवृत होने पर भगवान श्रीकृष्ण ने पुण्डरीक को इसी रूप में दर्शन दिए और वरदान मांगने को कहा ।
पुण्डरीक ने भगवान से वरदान मांगा—‘आप सदा यहां इसी रूप में स्थित होकर भक्तों को दर्शन दें ।’ तब से भगवान पंढरीनाथ दोनों हाथ कमर पर रखकर ईंट पर खड़े हैं ।
भगवान तो ऐसे भक्तों को खोजते रहते हैं, ढ़ूंढ़ते रहते हैं । भगवान उनके अधीन हो जाते हैं इसलिए भगवान से भी बढ़कर भगवान के भक्त हैं । इस प्रकार की स्थिति पैदा कर देनी चाहिए कि भगवान को हमारी आवश्यकता हो जाए। फिर भगवान को भी बुलाने की आवश्यकता नहीं है, वे बिना बुलाये ही आयेंगे ।
पुण्डरीक ने सिद्ध कर दिया कि—
सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमय: पिता ।
मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूजयेत् ।। (पद्मपुराण, सृष्टि. ४७।११)
अर्थात्—माता-पिता से बढ़कर इस लोक में कोई देवता नहीं है । मां में सारे तीर्थ और पिता में सारे देवता विराजते हैं । इसलिए हरसंभव तरीके से उन्हें प्रसन्न रखें (पूजा करें) ।
पद्मपुराण (सृष्टि. ४७।२०८) में भगवान कहते हैं—‘जिसने एक वर्ष, एक मास, एक पक्ष, एक सप्ताह या एक दिन भी माता-पिता की भक्ति की है, वह मेरे धाम को प्राप्त होता है ।’
भक्त पुण्डरीक हैं पंढरपुर धाम के प्रतिष्ठाता
महाराष्ट्र के शोलापुर में चन्द्रभागा (भीमा) नदी के तट पर पंढरपुर मन्दिर है जहां श्रीकृष्ण पण्ढरीनाथ, विट्ठल, विठोबा और पांडुरंग के नाम से जाने जाते हैं । वे महाराष्ट्र के संतों के आराध्य हैं । यह महाराष्ट्र का प्रधान तीर्थ है । देवशयनी और देवोत्थानी एकादशी को वारकरी सम्प्रदाय के लोग यहां यात्रा करने आते हैं । इस यात्रा को ही ‘वारी’ देना कहते हैं ।