राजा परीक्षित और कलियुग के प्रसंग का वर्णन श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कन्ध के १६ व १७वे अध्याय में किया गया है ।
अभिमन्यु के पुत्र राजा परीक्षित के राज्य काल की घटना है । राजा परीक्षित का जीवन बहुत पवित्र था । वे कुरुजांगल देश के सम्राट थे । राजा परीक्षित को मालूम हुआ कि उनके राज्य में कलियुग का प्रवेश हो गया है, तो वे सेना लेकर दिग्विजय के लिए निकल पड़े ।
कलि पुरुष की बहुत इच्छा थी कि मैं राजा परीक्षित के शरीर में प्रविष्ट हो जाऊं क्योंकि जब राजा बिगड़ेगा तो प्रजा भी बिगड़ेगी । सौराष्ट्र (गुजरात) में सरस्वती नदी के तट पर कलि पुरुष ने राजा परीक्षित का कपट से स्पर्श करने का विचार किया । उसने माया रची ।
राजा परीक्षित ने एक स्थान पर आश्चर्यजनक दृश्य देखा कि धर्म रूपी बैल के तीन पैर किसी ने काट दिए हैं और बैल एक पैर पर खड़ा है । उसके पास में उन्हें एक अत्यन्त मरियल-सी गाय रूपी पृथ्वी मिली, उसके नेत्रों से आंसू झर रहे थे ।
बैल (नन्दी) धर्म का स्वरूप है । सत्ययुग में धर्म के चार अंग—सत्य, तप, पवित्रता और दया हैं । सत्ययुग में चारों तरफ धर्म का बोलवाला था । त्रेता युग में धर्म का पहला पैर, द्वापर में दूसरा और कलियुग में तीसरा पैर भी कट गया अर्थात् सत्य, तप और पवित्रता रूपी धर्म के तीन पैर कट चुके हैं । अब केवल दान-दया रूपी एक पैर पर ही धर्म टिका है; उसी के बल पर कलियुग में मनुष्य जी रहे हैं ।
धर्म ने पृथ्वी से पूछा—‘तुम दु:खी और श्रीहीन क्यों हो ? हो-न-हो तुम्हें भगवान श्रीकृष्ण की याद आ रही होगी; क्योंकि उन्होंने तुम्हारा भार उतारने के लिए ही अवतार लिया था । अब उनके लीला-संवरण (स्वधाम गमन) कर लेने पर तुम दु:खी हो रही हो ।’
पृथ्वी बोली—‘भगवान श्रीकृष्ण ने इस समय इस लोक से अपनी लीला का संवरण कर लिया है । उनकी छत्रछाया में उनके चरणों से विभूषित होने पर मुझे बहुत वैभव व सौभाग्य प्राप्त हुआ था । अब वह मुझ अभागिनी को छोड़कर चले गए हैं और यह संसार पापमय कलियुग की कुदृष्टि का शिकार हो गया है, यही देख कर मुझे बड़ा दु:ख हो रहा है ।’
धर्म और पृथ्वी की बात सुन कर राजा परीक्षित को बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने धर्म रूपी बैल से पूछा—‘तुम्हारे तीन पैर किसने काट डाले हैं ? मैं उनको सजा दूंगा ।’
धर्म रूपी बैल ने कहा—‘काल, कर्म और स्वभाव मनुष्य के सुख-दु:ख के कारण हैं । कौन सुख देता है और कौन दुख देता है, इसका निर्णय अभी तक नहीं हो सका है ।’
राजा परीक्षित ने देखा कि एक राजवेषधारी शूद्र पुरुष, जो कि कलि था, गाय और बैल को दण्डे से पीट रहा था, लातों से ठोकर मार रहा था । राजा परीक्षित को आश्चर्य हुआ कि मेरे राज्य में कौन गाय और बैल को त्रस्त कर रहा है ?
राजा को ‘गो-ब्राह्मण प्रतिपाल’ कहा जाता है । उन्होंने सोचा जिस राजा के राज्य में दुष्टों के उपद्रव से प्रजा त्रस्त रहती है, उस राजा की कीर्ति, आयु, ऐश्वर्य और परलोक नष्ट हो जाते हैं ।
राजा परीक्षित समझ गए कि यह कलि ही है जो गाय रूपी पृथ्वी और बैल रूपी धर्म को त्रस्त कर रहा है ।
फिर भी उन्होंने उस व्यक्ति से पूछा—‘अरे दुष्ट ! तुम कौन हो ? इन्हें क्यों पीट रहे हो ?’
उस व्यक्ति ने कहा—‘मैं कलि हूँ, मैं अपना काम कर रहा हूँ ।’
राजा ने क्रोधित होकर कहा—‘मैं तुम्हें यहां नहीं रहने दूंगा ।’
कलि ने कहा—‘पहले मेरे गुण-दोष तो सुन लो, तब निर्णय लेना । मेरे युग में धन-सम्पत्ति के लिए भाई-भाई लड़ेंगे । स्त्री-पुरुष मर्यादा का उल्लंघन करने वाले होंगे । हिंसा का प्राधान्य रहेगा । मानव अल्पायु और अल्प-बुद्धि होंगे । लोग मांस-मदिरा का सेवन करेगें ।’
कलि की बात सुनकर राजा ने तिलमिलाते हुए तलवार निकाल कर कहा—‘बस, बस, हद हो गई, तुम्हारे प्रभाव से तो मानवता ही लुप्त हो जाएगी, अत: मैं तुम्हें मार डालूंगा ।’
कलि ताड़ गया कि ये तो अब मुझे मार ही डालेंगे । उसने तुरंत कहा—‘राजन् ! मुझमें एक बड़ा भारी गुण है—सत्ययुग में दीर्घकालतक जप-तप, व्रत-उपवास करने से, त्रेतायुग में बड़े-बड़े यज्ञ करने से, द्वापरयुग में भगवत्पूजन-सेवा से जितना पुण्य मिलता है, उतना पुण्य मेरे काल में प्रेम से भगवन्नाम जप करने से मिलेगा ।‘ अर्थात् कलियुग में भगवान नामावतार रूप में जीवों का कल्याण करते हैं ।
कृतजुग त्रेताँ द्वापर पूजा मख अरु जोग ।
जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग ।। (राचमा ७।१०२ ख)
कलि के अंग-स्पर्श से राजा परीक्षित की बुद्धि भ्रमित होना
कलि ने राजा परीक्षित के पैर पकड़ लिए और कहा—‘मैं आपकी शरण में आया हूँ, मुझे न मारिए । वीर पुरुष शरणागत को कभी नहीं मारते हैं ।’
राजा परीक्षित का कलि से स्पर्श हुआ और उनकी बुद्धि बिगड़ गई । अति पापी या अति कामी के स्पर्श से उसके पाप के परमाणु मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं । स्पर्श से अनेक दोष आते हैं ।
राजा परीक्षित की गलती जिससे कलियुग का प्रवेश हुआ
पापी को सजा मिलनी ही चाहिए; परन्तु कलि का स्पर्श होने से राजा को कलि पर दया आ गयी । राजा परीक्षित ने कहा—‘जब तू हाथ जोड़ कर शरण में आ ही गया है तो मैं तुम्हें मारता नहीं हूँ; पर मेरे राज्य में तुम नहीं रह सकोगे क्योंकि इस देश में श्रीहरि यज्ञों के रूप में निवास करते हैं, यहां धर्म और सत्य का निवास है; परन्तु तू अधर्म का सहायक है ।’
कलि ने कहा—‘मैं कहां जाऊं ? जहां जाता हूँ, वहां आप ही का राज्य है । मैं आपकी शरण में आया हूँ । मुझे अपने राज्य में रहने के लिए जगह दीजिए ।’
राजा परीक्षित ने कलि को रहने के लिए दिए चार स्थान
राजा परीक्षित ने कलि से कहा—‘ये चार स्थान अधर्म के निवास-स्थान हैं—
—जिस घर में जुए का धन आता हो,
—जानबूझकर जीव की हिंसा होती हो, (श्रीडोंगरेजी महाराज का कहना है कि मच्छर, मक्खी और खटमल को भी जानबूझ कर मारने से घर में कलि का प्रवेश हो जाता है । हिंसा प्रतिहिंसा को जन्म देती है ।)
—मांस-मदिरा, तम्बाकू का सेवन हो, (इनसे तन-मन दोनों बिगड़ते हैं इसलिए ठाकुरजी इन्हें स्वीकार नहीं करते हैं, इसीलिए इनमें कलि का निवास है)
—पुरुष वेश्यागामी हो,
इन चार स्थानों पर तुम रह सकते हो ।’
कलि को इन चार स्थानों से संतोष नहीं हुआ । उसने कहा—‘ये तो गंदी जगह हैं, मुझे किसी सुन्दर जगह में निवास दीजिए ।’
राजा परीक्षित ने कहा—‘आज से तेरा सुवर्ण (धन) में निवास होगा अर्थात् अधर्म की लक्ष्मी में तेरा निवास होगा ।’
यह सुनकर कलि बहुत प्रसन्न हुआ । उसने सोचा राजा के घर में अन्याय का धन तो आता रहेगा । वह अदृश्य होकर परीक्षित की बुद्धि भ्रष्ट करने की ताड़ में रहने लगा ।
अधर्म से प्राप्त सुवर्ण (लक्ष्मी) में कलि का निवास
एक दिन राजा परीक्षित ने सोचा—मेरे पूर्वजों ने मेरे लिए क्या रखा है, यह तो मैंने देखा नहीं । इसलिए वे अपने पूर्वजों की सम्पत्ति देखने गए । वहां उन्हें एक पेटी में सुन्दर मुकुट मिला । राजा को वह मुकुट बहुत पसन्द आया और उन्होंने तुरंत वह मुकुट धारण कर लिया । वह मुकुट जरासंध का था जिसे भीमसेन ले आए थे । यह पाप का धन था । धर्मराज युधिष्ठिर ने इसे कभी नहीं पहना था; किन्तु कलि के स्पर्श से परीक्षित की मति बिगड़ गयी थी । कलि पुरुष ने तुरन्त राजा के शरीर में प्रवेश कर लिया । मुकुट पहनते ही राजा को शिकार खेलने की इच्छा होने लगी ।
जिस बालक को गर्भ में ही परमात्मा श्रीकृष्ण के दर्शन हो गए हों, वह कितना पवित्र होगा ! किन्तु कलियुग का प्रभाव ही ऐसा है, अच्छे-अच्छों को प्रभावित कर देता है । वैसे तो जिस दिन, जिस क्षण श्रीकृष्ण इस पृथ्वी को त्याग कर गोलोकधाम पधारे थे, उसी क्षण से अधर्म रूपी कलियुग का पृथ्वी पर आरम्भ हो गया था ।
राजा परीक्षित की कथा से शिक्षा
इस कथानक से बड़ी सीख मिलती है कि किसी भी वस्तु के उपयोग से पहले विचार कर लेना चाहिए कि वह शुद्ध है कि अशुद्ध ।
प्रत्येक वस्तु में तीन दोष आते हैं—1. काल दोष, 2. कर्ता दोष और 3. निमित्त दोष ।
—अपवित्र समय पर कोई वस्तु आती है तो उसमें काल दोष लगता है ।
—किसी पापी व्यक्ति की वस्तु लेने से कर्ता दोष होता है । जैसे पाप से धन कमाने वाले की वस्तु को लेना ।
—किसी वस्तु का गलत उपयोग निमित्त दोष होता है ।
इनसे पाप के परमाणु मनुष्य के शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं और मनुष्य का मन-बुद्धि बिगड़ने लगते हैं । वह दूसरों के प्रति छल-कपट और प्रपंच करने लगता है ।