एक मोहन ही मेरा घरबार भी आराम भी ।
मेरी दुनियाँ की सुबह और मेरे जग की शाम भी ।।
राज औ सरताज मोहन के सिवा कोई नहीं ।
वैद्य मेरे रोग का मोहन सिवा कोई नहीं ।।
भगवत्प्रेम एक ऐसी अमूल्य निधि है, जिसे पाकर संसार की अपार सम्पत्ति, उच्चाधिकार, विशाल वैभव और उच्च-कुल में जन्म–सब कुछ पीछे छूट जाता है, रह जाती है सिर्फ दीवानगी । श्रीकृष्ण-प्रेम की लगन या दीवानगी जब लग जाती है, तब उसका माधुर्य इतना हृदयस्पर्शी होता है कि उसका अनुभव सिर्फ प्रेमी भक्त ही कर सकता है ।
श्रीकृष्ण-प्रेम दीवानी मीराबाई
श्रीकृष्ण-भक्ति की विरहाग्नि में विदग्ध व्यक्तित्त्व का नाम है मीरा । मीरा की उपासना में तन्मयता, वेदना और हृदय की सच्ची पुकार है । प्रेमरस में छकी मीरा गाती—
मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई ।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई ।।
मीरा की सखियां कहतीं–‘अरी बाबरी ! तू तो बेसुध होकर गा रही है । पर वह तेरा सांवरा कितना निष्ठुर है, जो कभी तेरे पास आता नहीं ।’
तब मीरा सखियों से कहती–‘मेरे गोपाल तो मेरे साथ ही नाचते हैं’—‘सखी री मेरे संग संग नाचे गोपाल ।’
जब श्रीकृष्ण विरह की मीरा की मर्मान्तक पीड़ा संगीत की तानों में भी संभाले न संभलती तो वीणा की मादकता में वे गातीं–
राणाजी ! मैं साँवरे रँग राची ।
सज सिणगार पद बाँध घूँघरु, लोक लाज तजि नाची ।।
मीरा प्रेम रोग की रोगिणी थी । कई दिनों तक बिना खाये-पीये प्रेम-समाधि में पड़ी रहती । घरवालें ने वैद्य बुलाये परन्तु मीरा ने कहा—
हे री मैं तो दरद दिवाणी मेरो दरद न जाणै कोय ।
घायल की गति घायल जाणै जो कोइ घायल होय ।।
दरद की मारी बन बन डोलूँ, बैद मिल्या नहिं कोय ।
मीरा की प्रभु पीड़ मिटैगी, जब बैद साँवलिया होय ।।
मीरा के लिए साँवले-सलोने गिरधर गोपाल ही एकमात्र वैद्य हैं, जो अपने दर्शन की संजीवनी से उसकी बाह्य और आंतरिक पीड़ा को शांत कर देते हैं । मीरा का प्रेम भावलोक की वस्तु है, उसमें सांसारिकता के लिए कोई जगह नहीं थी ।
मीरा अपने सच्चे पति के दर्शन करना चाहती थी । वह जानती थी कि उसकी प्रेम-साधना वृंदावन में ही फले-फूलेगी । लम्बे समय तक मीरा गिरिधर से मिलने की आतुरता लिए वृंदावन में घूमती रही, पिया को ढूंढती रही; परंतु जिसकी खोज में वह वृंदावन आई, वह नहीं मिला । मीरा ने धैर्य नहीं छोड़ा । पैरों में घुंघरु बांध कर, होठों में दर्द भरे बोल लेकर नाचती-गाती मीरा द्वारका पहुंच गई ।
मीरा रणछोड़राय जी के मंदिर में रात-दिन नृत्य में लीन रहने लगी । मंदिर के प्रांगण में भगवान के सामने प्रेमपूर्ण आराधना करती हुई कहती—
श्रीगिरिधर आगे नाचूँगी ।।
नाच-नाच पिव रसिक रिझाऊँ प्रेमी जनकूँ जाचूँगी ।
प्रेम प्रीतिका बाँधि घूँघरु सुरत की कछनी काछूँगी ।।
लोक लाज कुल की मरजादा यामें एक न राखूँगी ।
पिवके पलँगा जा पौडूँगी मीरा हरि रँग राचूँगी ।।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है—‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।’ अर्थात् जो मेरे चरणकमल रूपी मकरंद (पराग) के रसिक हैं, उनके लिए मैं भी मधुर होकर उनकी कामना पूर्ति करता हूँ ।
मीरा का प्रियतम कोई साधारण प्राणी तो है नहीं ! वह तो साक्षात् रसेश्वर प्रेम की मूर्ति गिरधर गोपाल है ।
प्रेम दीवानी मीरा का रणछोड़राय जी से मिलन
आज भगवान रणछोड़ जी के मंदिर की अद्भुत मनमोहक छटा है । मीरा करुण स्वर से गा रही थी और उसके नूपुर श्रीकृष्ण-मिलन की पीड़ा में पुकार रहे थे । उस रूपराशि को देख कर किसका चित्त उन्मत्त नहीं होता !
तुम्हरे कारण सब सुख छोड्या अब मोहि क्यूँ तरसावौ हो ।
विरह-व्यथा लागी उर अंतर सो तुम आय बुझावौ हौ ।।
अब छोड़त नहिं बणै प्रभूजी हँस कर तुरत बुलावौ हौ ।
मीरा दासी जनम-जनमकी अंगसे अंग लगावौ हौ ।
जब भक्त भगवान के लिए व्याकुल हो जाता है, तब भगवान भी उससे मिलने के लिए वैसे ही व्याकुल हो उठते हैं । भक्त भगवान को बाध्य कर देता है । मीरा के निकट भगवान को बाध्य होकर आना पड़ा । मीरा को नृत्यावस्था में उन्मत्त देख भगवान रणछोड़राय जी ने अपनी हृदयेश्वरी को अपने हृदय में विराजमान कर लिया । मीरा सदेह उनके श्रीविग्रह में विलीन हो गई—
गिरधर के तन से मिल्यो, ललित चूनरी छोर ।
काहू कोनहिं लखि परयो मीरा गई किस ओर ।।
लोग ठगे से अवाक् रह गए । मीरा की चुनरी और भगवान के पीताम्बर का अमिट गठजोड़ हो गया । कौन किससे मिला, यह कहना कठिन है । भक्तों को ऐसे दिव्य मिलन की याद दिलाने के लिए मीरा की मतवाली चूनर का छोर लहराता रहा ।
अपनी प्रेम साधना में लीन होकर मीरा जी ‘साईं की सेज’ का सुख पा सकीं, प्रेम का अमृत पी सकीं ।
मनुष्य का भगवान से केवल सम्बन्ध हो जाना चाहिए । वह सम्बन्ध चाहे जैसा हो—काम का हो, क्रोध का हो, स्नेह का हो, नातेदारी का हो या और कोई हो । चाहे जिस भाव से भगवान में अपनी समस्त इन्द्रियां और मन जोड़ दिया जाए तो उस जीव को भगवान की प्राप्ति हो ही जाती है ।