प्रश्न यह हैं कि भगवान के जन्म का क्या अर्थ है ? क्या भगवान का जन्म मनुष्यों की भांति होता है ? क्या वे भी माता-पिता के रज-वीर्य से पैदा होते हैं ? यदि भगवान अनादि और अजन्मा हैं तो फिर उनके जन्म कैसे हुए ?
इन प्रश्नों का उत्तर देते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता (४।९) में कहा है–
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ।।
अर्थात्—हे अर्जुन ! मेरे जन्म और कर्म दिव्य व अलौकिक हैं—जो मनुष्य इस तत्त्व को जान लेता है, शरीर त्यागने पर वह मुझे ही प्राप्त होता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता है ।
क्या भगवान का जन्म मनुष्यों की भांति होता है ?
भगवान का अवतार (जन्म) मनुष्यों की भांति न तो कर्म से प्रेरित होता है, न उनका शरीर पांचभौतिक होता है । उनका जन्म और उनके कर्म दोनों ही दिव्य होते हैं ।
भगवान अपने जन्म की दिव्यता को बताते हुए अर्जुन से कहते हैं—
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ।। (गीता ४।६)
अर्थात्—‘मैं अज हूँ अर्थात् मेरा जन्म वास्तव में नहीं होता । मैं अव्यय हूँ, अर्थात न तो मैं पैदा ही होता हूँ और न मरता ही हूँ । अजन्मा और अविनाशीस्वरूप होते हुए और समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी मैं अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ ।’
इस श्लोक में भगवान अपने जन्म की विलक्षणता बताते हुए कहते हैं कि वे अजन्मा और अविनाशी हैं, सभी जीवों के स्वामी हैं । उनका न कभी जन्म होता है न मरण होता है । भगवान का मंगलमय शरीर नित्य, सत्य और चिन्मय है; जो जन्म लेता हुआ-सा तथा अन्तर्धान हुआ-सा दिखाई देता है । वे युग-युग में अपने दिव्य रूप में प्रकट होते हैं । भगवान का अवतारी-शरीर कर्तृत्वरहित, वासनारहित तथा कर्मफल से रहित होता है।
इस प्रकार भगवान का जन्म नहीं होता है, वे माया का आवरण धारण करके प्रकट होते हैं; लेकिन वे कब और किस समय प्रकट होते हैं—इसका उत्तर स्वयं भगवान ने दिया है—
‘हे भारत ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ । साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप-कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ ।’ (गीता ४।७)
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं–‘हे अर्जुन ! मेरे अनेक जन्म हुए हैं और तेरे भी अनेक जन्म हुए हैं । तुझमें और मुझमें यही अंतर है कि तू जीव है, नर है और मैं नारायण हूँ; इसलिए मैं अपने सम्पूर्ण जन्मों को जानता हूँ, तू अपने जन्मों को नहीं जानता ।’ (गीता ४।५)
भगवान जन्म नहीं लेते प्रकट होते हैं, इस तथ्य को श्रीकृष्ण, श्रीराधा, श्रीराम और श्रीसीता जी के जन्म-प्रसंग से जान सकते हैं—
भगवान श्रीकृष्ण का जन्म
भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को भगवान श्रीकृष्ण जब कारागार में वसुदेव-देवकी के सामने प्रकट हुए, उस समय उनका जन्म साधारण मनुष्यों की भांति नहीं हुआ । सच्चिदानन्द परमात्मा श्रीकृष्ण अपनी लीला से ही शंख, चक्र, गदा और पद्म सहित विष्णु के रूप में वहां प्रकट हुए और माता देवकी की प्रार्थना पर उन्होंने द्विभुज बालक का रूप धारण कर लिया ।
श्रीराधा का जन्म
श्रीराधा का ननिहाल रावल ग्राम में था । रक्षाबंधन के पर्व पर श्रीराधा की गर्भवती मां कीर्तिरानी अपने भाई को राखी बांधने रावल ग्राम आईं । भाद्रपद शुक्ल अष्टमी चन्द्रवार (सोमवार) को मध्याह्न के समय अनुराधा नक्षत्र में श्रीराधा का प्राकट्य कालिन्दी-तट पर स्थित रावल ग्राम में ननिहाल में हुआ । प्राकट्य के समय अकस्मात् प्रसूतिगृह में एक ऐसी दिव्य ज्योति फैली कि जिसके तेज से अपने-आप ही सबकी आंखें मुँद गईं । उस समय ऐसा भान हुआ कि कीर्तिदा जी के प्रसव हुआ है; पर प्रसव में केवल हवा निकली । जब कीर्तिदा तथा पास में उपस्थित गोपांगनाओं के नेत्र खुले, तब उनको वायु में कम्पन-सा दिखाई दिया और उसमें सहसा एक परम दिव्य लावण्यमयी बालिका प्रकट हो गयी ।
रानी कीर्तिदा ने यही समझा कि इस बालिका का जन्म मेरे ही उदर से हुआ है । बरसाने में खबर फैल गई कि कीर्तिदा ने एक सुन्दर बालिका को जन्म दिया है ।
एक अन्य मत के अनुसार भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी चन्द्रवार (सोमवार) के एक दिन पहले बरसाने के राजा वृषभानु जी अपनी पत्नी को लिवाने ससुराल रावल ग्राम आए । प्रात: यमुना-स्नान करते समय भगवान की लीला से कीर्तिरानी के गर्भ का तेज निकलकर यमुना किनारे बढ़ने लगा और यमुना जी के जल में नवविकसित कमल के केसर के मध्य एक परम सुन्दरी बालिका में परिणत हो गया ।
भगवान श्रीराम का जन्म
भए प्रकट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी ।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी ।।
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी ।
भूषन वनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी ।।
कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता ।
माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता ।।
करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता ।
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता ।।
भगवान श्रीराम भी चतुर्भुजरूप में माता कौसल्या के सामने प्रकट हुए और फिर माता के प्रार्थना करने पर द्विभुज बालक के रूप में बदल गए ।
माता सीता का जन्म
मिथिला के राजा सीरध्वज जनक ब्रह्मज्ञानी थे । एक बार वे यज्ञ के लिए पृथ्वी जोत रहे थे । उस समय चौड़े मुंह वाली सीता (हल के धंसने से बनी गहरी रेखा) से एक कन्या का प्रादुर्भाव हुआ, जो साक्षात् लक्ष्मी के समान रूपवती थी । राजा ने उसे भगवान का प्रसाद मान कर अपनी औरस पुत्री की तरह लाड़ से पाला और वही ‘सीता जी’ के नाम से जानी जाती हैं ।
स्पष्ट है कि भगवान का जन्म मनुष्यों की भांति नहीं होता; वे अपनी माया के साथ प्रकट होते हैं ।
भगवान की लीला अमोघ है । जैसे मनुष्य जादूगर की करामात को नहीं समझ पाता, वैसे ही भगवान के संकल्प के द्वारा प्रकट हुई उनकी लीलाओं को कुबुद्धि जीव पहचान नहीं सकता । उनके जन्म व लीलाओं के रहस्य को वही मनुष्य जान सकता है, जिसने निष्कपट भाव से उनके चरणकमलों का आश्रय लिया हो ।
Bahut mahatvpurn baten aur Gyan jisko dhundhne mein vyakti ko bahut parishram lagta hai aur Radhika se yah sahaj hi prapt ho jata hai dhanyvad 🙏